Tuesday 18 July 2023

बलरामजी की तीर्थयात्रा तथा प्रभास_क्षेत्र का प्रभाव

जनमेजय ने कहा_मुने ! जब महाभारत युद्ध आरंभ होने के पहले ही बलदेवजी भगवान् श्रीकृष्ण की सम्मति लेकर अन्य वृष्णवंशियों के साथ तीर्थयात्रा के लिये चले गये और जाते_जाते यह कह गये कि 'मैं न तो दुर्योधन की सहायता करूंगा, न पाण्डवों की; तब फिर उस समय वहां उनका शुभागमन कैसे हुआ ? यह समाचार आप मुझे विस्तार से सुनाइये ? वैशम्पायनजी कहते हैं_राजन् ! जिस समय पाण्डव उपलव्य नामक स्थान में छावनी के डालकर ठहरे हुए थे, उन्हीं दिनों की बात है, पाण्डवों ने सब प्राणियों के हित के लिये भगवान् श्रीकृष्ण को धृतराष्ट्र के पास भेजा। उन्हें भेजने का उद्देश्य यह था कि कौरव_पाण्डवों में शान्ति बनी रहे_कलह न हो। भगवान् हस्तिनापुर जाकर धृतराष्ट्र से मिले और उनसे सबके लिये हितकर एवं यथार्थ बातें कहीं। किन्तु उन्होंने भगवान् का कहना नहीं माना। जब वहां सन्धि कराने में सफल न हो सके तो भगवान् उपलव्य में ही लौट आये और पाण्डवों से बोले_'कौरव अब काल के वश में हो रहे हैं इसलिये मेरा कहना नहीं मानते। पाण्डवों ! अब तुमलोग मेरे साथ पुष्य नक्षत्र में युद्ध के लिये निकल पड़ो।' इसके बाद जब सेना का बंटवारा होने लगा तो बलदेवजी ने श्रीकृष्ण से कहा_'मधुसूदन ! तुम कौरवों की भी सहायता करना।' परन्तु श्रीकृष्ण ने उनका यह प्रस्ताव नहीं स्वीकार किया; इससे वे रूठ गये और पुष्य नक्षत्र में वहां से तीर्थयात्रा के लिये निकल पड़े। रास्ते में उन्होंने सेवकों को आज्ञा दी कि तुमलोग द्वारका जाकर तीर्थयात्रा में उपयोगी सभी आवश्यक सामान लाओ। साथ ही अग्निहोत्र की अग्नि और यज्ञ करानेवाले ब्राह्मणों को आदरपूर्वक ले आना। सोना, चांदी, गौ, वस्त्र, घोड़े, हाथी, रथ, खच्चर और ऊंट भी लाने चाहिये। इस प्रकार आदेश देकर वे सरस्वती नदी के किनारे _किनारे उसके प्रवाह की ओर तीर्थयात्रा के लिये चयन पड़े; उनके साथ ऋत्विक, सउहऋद्, श्रेष्ठ ब्राह्मण, रथ, हाथी_घोड़े, सेवक, बैल, खच्चर और ऊंट भी थे। उन्होंने देश_देश में थके_मांदे रोगी, बालक और वृद्धों का सत्कार करने के लिये तरह_तरह की देने योग्य वस्तुएं तैयार करा रखी थीं। भूखों को भोजन कराने के लिये सर्वत्र अन्न का प्रबंध कराया गया था। जिस किसी देश में जो कोई ब्राह्मण जब भोजन की इच्छा प्रकट करता था, उसको उसी स्थान पर तत्काल भोजन दिया जाता था। भिन्न-भिन्न तीर्थों में बलदेवजी की आज्ञा से उनके सेवक खाने_पीने की पदार्थों का ढ़ेर लगा रखते थे। ब्राह्मणों के सम्मानार्थ बहुमूल्य वस्त्र, पलंग और बिछौने तैयार रहते थे। इस यात्रा में सबलओग आराम से चलते और विश्राम करते थे। यात्रा करनेवालों की यदि इच्छा हो तो उन्हें सवारियां भी मिलती थीं। प्यासे को पानी पिलाया जाता और भूखे को स्वादिष्ट अन्न दिया जाता था। उन यात्रियों का रास्ता बड़े सुख से तो होता था। सबको स्वर्गीय आनंद मिलता था। सभी सदा ही प्रसन्न रहते थे। साथ में खरीदने _बेचने की वस्तुओं का बाजार भी लगता था। महात्मा बलदेवजी ने अपने मन को वश में रखकर पुण्य तीर्थों में ब्राह्मणों को बहुत _सा धन दान दिया, यज्ञ करके उन्हें दक्षिणाएं दीं हजारों दूध देनेवाली गऔएं दान कीं। उन गौओं के सींग में सोना मढ़ा था और उन्हें सुन्दर वस्त्र ओढ़ाये गये थे। भिन्न-भिन्न देशों के घोड़े दान किये गये। तरह_तरह की सवारियां, सेवक, रत्न, मोती, मणि, मूंगा, सोना, चांदी तथा लोहे और तांबे के बर्तन भी ब्राह्मणों को दिये गये। इस करार सरस्वती के तटवर्ती तीर्थों में बहुत _सा दान करके बलरामजी क्रमश: कुरुक्षेत्र में आ पहुंचे। जनमेजय ने कहा_आप मुझे सरस्वती के तटवर्ती तीर्थों के गुण, प्रभाव और उत्पत्ति की कथा सुनाइये। उन तीर्थों में जाने का क्या फल है ? और यात्रा की सिद्धि कैसे होती है ? तथा जिस क्रम से बलरामजी ने यात्रा की थी, वह क्रम भी बताइये, मुझे यह सब सुनने का बड़ा कौतूहल हो रहा है। वैशम्पायनजी बोले_राजन् ! सरस्वती तट के तीर्थों का विस्तार, उनका प्रभाव तथा उनकी उत्पत्ति की पवित्र कथाएं मैं सुना रहा हूं, सुनो । यादवनन्दन बलदेवजी ब्राह्मणों तथा ऋत्वइजओं के साथ सबसे पहले प्रभास_क्षेत्र में गये जहां राजयक्ष्मा से कष्ट पाते हुए चन्द्रमा को शाप से छुटकारा मिला तथा अपना खोया हुआ तेज भी प्राप्त हुआ, जिससे वे सारे जगत् को प्रकाशित करते हैं। चन्द्रमा को प्रभासित करने के कारण ही वह प्रधान तीर्थ पृथ्वी पर 'प्रभास' नाम से विख्यात हुआ।जनमेजय ने पूछा_मुनिवर ! भगवान् सोम को यक्ष्मा कैसे हो गया ? और उन्होंने उस तीर्थ में किस तरह स्नान किया तथा उसमें डुबकी लगाने से वे रोगमुक्त हो पुष्ट किस प्रकार हुए ? ये सारी बातें आप मुझे विस्तार के साथ बताइये।
वैशम्पायनजी ने कहा_राजन् ! दक्षप्रजापति की संतानों में अधिकांश कन्याएं हुई थीं, उनमें से सत्ताइस कन्याओं का ब्याह उन्होंने चन्द्रमा के साथ कर दिया। उन सबकी 'नक्षत्र' संज्ञा थी। चन्द्रमा के साथ जो नक्षत्रों का योग होता है, उसकी गणना के लिये वे सत्ताइस रूपों में प्रकट हुई थीं। वे सब_की_सब अनुपम सुन्दरी थीं। किन्तु उनमें भी रोहिणी का सौन्दर्य सबसे बढ़कर था, इसलिये चन्द्रमा का अनुराग रोहिणी में ही अधिक हुआ। वहीं उनकी हृदयवल्लभा हुई। वे सदा ही उसके ही संपर्क में रहने लगे। जनमेजय ! पूर्वकाल में चन्द्रमा रोहिणी नक्षत्र के संपर्क में रहने लगे। जनमेजय! पूर्वकाल में चन्द्रमा रोहिणी नक्षत्र के संसर्ग में अधिक काल तक रहा करते थे; इसलिये नक्षत्र नामधारी दूसरी स्त्रियों को बड़ी ईर्ष्या हुई, वे, वे कुपित होकर अपने पिता प्रजापति के पास चली गयीं और बोलीं _'प्रजानाथ ! सोम सदा रोहिणी के पास ही रहते हैं, हमलोगों पर उनका स्नेह नहीं है। अतः हमलोग अब आपके पास ही रहेंगी और नियमित आहार करके तपस्या में लग जायेंगी। उनकी बातें सुनकर दक्ष ने सोम को बुलाकर कहा_'तुम अपनी सब स्त्रियों में समता का भाव रखो, सबके साथ एक_सा वर्ताव करो। ऐसा करने से ही तुम पाप से बच सकोगे।' तदनन्तर, दक्ष ने अपनी कन्याओं से कहा_'तुम सब लोग चन्द्रमा के पास जाओ, अब वे मेरी आज्ञा के अनुसार तुम सबके साथ समान भाव रखेंगे।' पिता के विदा करने पर वे पुनः पति के घर चली गयीं। किन्तु सोम के वर्ताव में कोई अन्तर नहीं पड़ा। उनका रोहिणी के प्रति अधिकाधिक प्रेम बढ़ता गया और वे सदा उसी के पास रहने लगे। तब शेष कन्याएं पुनः एकसाथ होकर पिता के पास गयीं और कहने लगीं_'पिताजी ! सोम ने आपकी आज्ञा नहीं मानी, अब तो हम आपकी सेवा में ही रहेंगी।' यह सुनकर दक्ष ने फिर सोम को बुलवाया और कहा_'तुम सब स्त्रियों के साथ समान वर्ताव करो, नहीं तो मैं शाप दे दूंगा।' परन्तु चन्द्रमा ने उनकी बात का अनादर करके रोहिणी के ही साथ निवास किया।
जब दक्ष को पुनः इसका समाचार मिला तो उन्होंने क्रोध में भरकर सोम के लिये यक्ष्मा की सृष्टि की, यक्ष्मा चन्द्रमा के शरीर में घुस गया। क्षयरोग से पीड़ित हो जाने के कारण चन्द्रमा प्रतिदिन क्षीण होने लगे। उन्होंने उससे छूटने का यत्न भी किया, नाना प्रकार के यज्ञ आदि किये, किन्तु दक्ष के शाप से छुटकारा न मिला, वे प्रतिदिन क्षीण ही होते गये। जब चन्द्रमा की प्रभा नष्ट हो गयी, तो अन्न आदि औषधियों का पैदा होना भी बन्द हो गया। जो पैदा भी हओतईं उनमें न कोई स्वाद होता, न रस। उनकी शक्ति भी नष्ट हो जाती। इस प्रकार अन्न आदि के न होने से सब प्राणियों का नाश होने लगा। सारी प्रजा दुर्बल हो गयी।
तब देवताओं ने चन्द्रमा के पास आकर कहा_'यह आपका रूप कैसा हो गया ? इसमें प्रकाश क्यों नहीं होता ? हमलोगों से सारा कारण बताइये, आपसे पूरा हाल सुनकर फिर हम इसके लिये कोई उपाय करेंगे।'
उनके इस प्रकार पूछने पर चन्द्रमा ने उन्हें अपने को शाप मिलने का कारण बताया और उस शाप के रूप में यक्ष्मा की बीमारी होने का हाल भी कह सुनाया। देवतालोग उनकी बात सुनकर दक्ष के पास गये और बोले_'भगवन् ! आप चन्द्रमा पर प्रसन्न होकर शापनिवृत कीजिये। उनका क्षय होने से प्रजा का भी क्षय हो रहा है। तृण, लता, बेलें, औषधियां तथा नाना प्रकार के बीज_ये सब नष्ट हो रहे हैं। इनके न रहने से हमारा नाश ही हो जायगा। फिर हमारे बिना संसार कैसे रह सकता है ? इस बात पर ध्यान देकर आपको अवश्य कृपा करनी चाहिये।' देवताओं के ऐसा कहने पर प्रजापति बोले_'मेरी बात पलटी नहीं जा सकती, एक शर्त पर इसका प्रभाव कम हो सकता है, यदि चन्द्रमा अपनी सब स्त्रियों के साथ समान वर
ताल करें तो सरस्वती नदी के उत्तम तीर्थ में स्नान करने से ये पुनः पुष्ट हो जायेंगे। फिर ये पंद्रह दिनों तक बराबर क्षीण होंगे और पंद्रह दिनों तक बढ़ते रहेंगे। मेरी यह बात सच्ची मानो। पश्चिम समुद्र के तट पर, जहां सरस्वती नदी सागर में मिलती है, जाकर ये भगवान् शंकर की अराधना करें, इससे इन्हें इनकी खोयी हुई कान्ति मिल जायगी।'
इस प्रकार प्रजापतिकी आज्ञा होने से सोम सरस्वती के प्रथम तीर्थ प्रभास क्षेत्र में गये। वहां अमावस्या को उन्होंने स्नान किया, इससे उनकी प्रतिभा बढ़ गयी, फिर वे समस्त संसार को प्रकाशित करने लगे। तब देवतालोग चन्द्रमा को साथ लेकर प्रजापति के पास गये। उन्होंने देवताओं को तो विदा कर दिया और चन्द्रमा से कहा_'बेटा ! आज से अपनी पत्नियों का तथा ब्राह्मण का अपमान न करना। जाओ, सावधानी के साथ मेरी आज्ञा का पालन करते रहना।
यह कहकर प्रजापति ने उन्हें जाने की आज्ञा दे दी। चन्द्रमा अपने लोक में गये और संपूर्ण प्रजा पूर्ववत् प्रसन्न रहने लगी। जनमेजय ! चन्द्रमा को जिस प्रकार शाप मिला था, वह सारा प्रसंग मैंने तुम्हें सुना दिया, साथ ही सब तीर्थों में प्रधान प्रभास_क्षेत्र का प्रभाव भी बता दिया। उस तीर्थ में स्नान करने के पश्चात् बलरामजी चमसोभ्देद नामक तीर्थ में गये, वहां विधिवत् स्नान करके उन्होंने नाना प्रकार के दिन दिये और एक रात वहीं निवास भी किया। दूसरे दिन उदपान तीर्थ में गये, जहां स्नान करने से मनुष्य का कल्याण हो जाता है। इस तीर्थ में सरस्वती नदी का जल जमीन के भीतर छिपा रहता है।

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