Thursday 27 July 2023

विनसन आदि तीर्थों का वर्णन, नैमिषीय तथा सप्तसारस्वत तीर्थों का विशेष वृतांत


संजय कहते हैं_महाराज ! वहां सरस्वती नदी जमीन के भीतर अदृश्य रूप से बहती है, इसलिये ऋषिगण उसे 'विनशन तीर्थ' कहते हैं। बलदेवजी वहां आचमन करके आगे बढ़े और सरस्वती के उत्तम तट पर सुभूमिक तीर्थ में जा पहुंचे। वहां उन्हें बहुत_से गन्धर्व और अप्सराएं दिखाई पड़ीं। उस पवित्र तीर्थ में स्नान तथा दान करके वे गन्धर्वतीर्थ में गये, जहां तपस्या में लगे हुए विश्र्वावसु आदि प्रधान _प्रधान वसु गाना बजाना तथा नृत्य कर रहे थे। उस तीर्थ में स्नान करके बलदेवजी ने ब्राह्मणों को सोना_चांदी आदि विविध वस्तुओं का दान किया। फिर उन्हें भोजन कराकर बहुमूल्य वस्तुएं दे उनकी कामनाएं पूर्ण की। तत्पश्चात् वे गर्गस्त्रोत नामक तीर्थ में गये। जहां वृद्ध गर्ग ने तपस्या करके अन्त:कर्ण को पवित्र किया था तथा काल का ज्ञान, काल की गति, नक्षत्रों और ग्रहों की गति का उलट_फेर, भयंकर उत्पात और शुभ शकुन आदि ज्योति:शास्त्र के विषयों की पूर्ण जानकारी प्राप्त की थीं। उन्हीं के नाम पर यह तीर्थ 'गर्गस्त्रोत' कहा जाने लगा। वहां पर बलदेवजी ने ब्राह्मणों को विधिपूर्वक धन दान दिया और नाना प्रकार के पदार्थ भोजन कराकर शंखतीर्थ में पदार्पण किया। वहां उन्होंन मेरुगिरि के समान एक बहुत ऊंचा शंख देखा; जो अनेकों ऋषियों से सुसेवित था। वहीं सरस्वती के तट पर एक बहुत बड़ा वृक्ष था, जहां हजारों की संख्या में यक्ष, विद्याधर, राक्षस, पिशाच तथा सिद्ध रहते थे। वे सब अन्न त्याग करके व्रत और नियमों का पालन करते हुए समय_समय पर उस वृक्ष का फल ही खाया करते थे। वहां बलदेवजी ने ब्राह्मणों की पूजा करके उन्हें बर्तन और वस्त्र दान दिये। इसके बाद वे परम पवित्र द्वैतवन में आये। उस वन में रहनेवाले ऋषि_मुनियों का दर्शन करके उन्होंने वहां के तीर्थ_जल में डुबकी लगाई और ब्राह्मणों की पूजा करके उन्हें विविध प्रकार के भोज्यपदार्थ दान किये। फिर वहां से चलकर वे सरस्वती के दक्षिणभाग में थोड़ी ही दूर पर स्थित नागधन्वा तीर्थ में गये जहां नित्य चौदह हजार ऋषि मौजूद रहते हैं। उसी स्थान पर देवताओं ने वासुकि को सर्पों का राजा बनाकर अभिषेक किया था। वहां किसी को भी सांपों के डसने का भय नहीं रहता। बलदेवजी वहां भी ब्राह्मणों को ढ़ेर_के_ढ़ेर रत्न दान किये। फिर वे पूर्व दिशा की ओर चल दिये, जहां पग_पग पर लाखों तीर्थ प्रकट हुए हैं। उन सब तीर्थों में उन्होंने गोते लगाये और ऋषियों के बताये अनुसार व्रत_नियमादि का पालन किया। फिर सब प्रकार के दिन करके वे अपने अभीष्ट मार्ग की ओर चल दिये। जाते_जाते वहां पहुंचे, जहां पश्चिम की ओर बहनेवाली सरस्वती नदी नैमिषीय मुनियों के दर्शन की इच्छा से पुनः पूर्व दिशा की ओर लौट पड़ी है। उसे पीछे की ओर लौटी देख बलदेवजी को बड़ा आश्चर्य हुआ।जनमेजय ने पूछा _ब्रह्मण् ! सरस्वती नदी पूर्व की ओर क्यों लौटी ? बलभद्रजी के आश्चर्य का भी कोई कारण होना चाहिये। उस नदी के पीछे लौटने में क्या हेतु है ? वैशम्पायनजी ने कहा _राजन् ! सतयुग की बात है। नैमिषीय तपस्वी ऋषियों ने मिलकर बारह वर्षों में समाप्त होने वाला एक महान् सत्र आरम्भ किया, उसमें सम्मिलित होने के लिये बहुत _से ऋषि पधारे थे। जब सत्र समाप्त हुआ, उस समय भी तीर्थ के कारण वहां बहुत _से ऋषि महर्षियों का शुभागमन हुआ।उनकी संख्या इतनी अधिक हो गयी कि सरस्वती के दक्षिण किनारे के तीर्थ नगरों के समान मनुष्यों से भर गये। नदी के तीर पर नैमिषारण्य से लेकर समन्तपंचक तक ऋषि_मुनि ठहरे हुए थे। वे वहां यज्ञ_होमादि करने लगे, उनके द्वारा उच्चारित वेद_मंत्रों के गम्भीर घोष से संपूर्ण दिशाएं गूंज उठीं। महाराज! उन ऋषियों में सुप्रसिद्ध बालखिल्य, अश्मकउट्ट ( पत्थर से फोड़े हुए फल का भोजन करने वाले ) , दन्तोलूखली (दांत से ही ओखली का काम लेनेवाले अर्थात्  ओखली में कूटकर नहीं दांतों से ही चबाकर खाने वाले ) का पेड़ और प्रसंख्यान ( गिने हुए फल खानेवाले  ) भी थे। कोई हवा पीकर रहता था कोई पानी। बहुतेरे तपस्वी पत्ते चबाकर रहते थे। सब लोग मिट्टी की वेदी पर सोते और नाना प्रकार के नियमों में लगे रहते थे। वे सब ऋषि सरस्वती के निकट आकर उसकी शोभा बढ़ाने लगे, किन्तु वहां तीर्थ भूमि में उन्हें रहने की जगह नहीं दिखाई दी। इससे वे निराश एवं चिंतित हो गये। उनकी यह अवस्था देख सरस्वती ने दयावश उन्हें दर्शन दिया। वह अनेकों कुंजों का निर्माण करती हुई पीछे लौट पड़ी और ऋषियों के लिये तीर्थभूमि बनाकर फिर पश्चिम की ओर मुड़ गयी। इस महानदी ने ऋषियों के आगमन को सफल बनाने का निश्चय कर लिया था, इसीलिए यह अत्यंत अद्भुत कार्य कर दिखाया। सरस्वती का बनाया हुआ वह निकुंजों का समुदाय ही 'नैमिषिय'नाम से विख्यात हुआ। वहां के अनेकों कुंजों तथा पीछे लौटी हुई सरस्वती नदी को देखकर बलदेवजी को बड़ा विस्मय हुआ। वहां भी उन्होंने विधिवत् आचमन एवं स्नान किया और ब्राह्मणों को भांति _भांति के भोज्यपदार्थ तथा बर्तन दान करके वे सप्तसारस्वत नाम के तीर्थ में चले गये; जहां वायु, जल, फल अथवा पत्ता खाकर रहनेवाले बहुत_से महात्मा थे। उनके स्वाध्याय का गंभीर घोष सब ओर गूंज रहा था। वहां अहिंसक एवं धर्मपरायण मनुष्य निवास करते थे।
जनमेजय ने पूछा _मुनिवर ! सप्तसारस्वत तीर्थ कैसे प्रकट हुआ ?  मैं इसका वृतांत विधिपूर्वक सुनना चाहता हूं। वैशम्पायनजी कहते हैं _ राजन्! सरस्वती नाम से प्रसिद्ध सात नदियां हैं, ये सारे जगत् में फैली हुई हैं। इनके विशेष नाम हैं_सुप्रभा,कांचनाक्षी, विशाला, मनोरमा, ओघवती, सुरेणु तथा विमलोदका। शक्तिशाली महात्माओं ने भिन्न-भिन्न देशों में एक_एक सरस्वती का आवाहन किया है। एक समय की बात है, पुष्कर तीर्थ में ब्रह्माजी का एक महान् यज्ञ हो रहा था, यज्ञशाला में सिद्ध ब्राह्मण विराजमान थे। पुण्याहघोष हो रहा था, सब ओर वेद_मंत्रों की ध्वनि फैल रही थी, समस्त देवता यज्ञकार्य में लगे हुए थे, स्वयं ब्रह्माजी ने यज्ञ की दीक्षा ली थी। उनके यज्ञ करते समय सबकी समस्त इच्छाएं पूर्ण हो रही थीं। धर्म और अर्थ में कुशल मनुष्य मन में जिस वस्तु का चिंतन करते थे, वहीं उन्हें प्राप्त हो जाती थी। उस समय ऋषियों ने पितामह से कहा _'यह यज्ञ अधिक गुणों से सम्पन्न नहीं दिखाई देता; क्योंकि अभी तक सरिताओं में श्रेष्ठ सरस्वती का ही प्रादुर्भूत नहीं हुआ।' यह सुनकर ब्रह्माजी ने सरस्वती का स्मरण किया। उनके आवाहन करते ही 'सुप्रभा'  नामधारी सरस्वती पुष्कर तीर्थ में प्रकट हो गयी। पितामह के सम्मानार्थ वहां सरस्वती नदी को प्रकट देख मुनियों ने उस यज्ञ की बड़ी प्रशंसा की। इसी तरह नैमिषारण्य में भी वेद के स्वाध्याय में लगे रहनेवाले मुनियों ने सरस्वती का आवाहन किया, उनके चिंतन करते ही वहां 'कांचनाक्षी'  नामवाली सरस्वती नदी प्रकट हो गयी। ऐसे ही जब राजा गय यज्ञ कर रहे थे, उस समय उनके यहां भी सरस्वती का आवाहन किया गया था।  वहां 'विशाला' नामवाली सरस्वती का आविर्भाव हुआ। उसकी गति बड़ी तेज है। वह हिमालय की घाटी से निकली हुई है। एक समय की बात है, उत्तर कोसल प्रान्त में उद्दालक मुनि यज्ञ कर रहे थे, उन्होंने भी सरस्वती का स्मरण किया। ऋषि के कारण वह नदी उस देश में भी प्रकट हुई, जिसका मुनियों ने पूजन किया। वह 'मनोरमा' नाम से विख्यात हुई; क्योंकि ऋषियों ने पहले उसका अपने मन में ही स्मरण किया था।
'सुरेणु' नामवाली सरस्वती नदी का प्रादुर्भाव ऋषभ द्वीप में हुआ। जिस समय राजा कुरु कुरुक्षेत्र में यज्ञ कर रहे थे, उसी समय वहां सरस्वती प्रकट हुई। गंगाद्वार में यज्ञ करते समय दक्ष प्रजापति ने जब सरस्वती का स्मरण किया था तो वहां भी सुरेणु ही प्रकट हुई। इसी प्रकार महात्मा वशिष्ठ भी एक बार कुरुक्षेत्र में यज्ञ कर रहे थे, वहां पर उन्होंने सरस्वती का आवाहन किया; उनके आवाहन से 'ओघवती' का प्रादुर्भाव हुआ। ब्रह्माजी ने एक बार हिमालय पर्वत पर भी यज्ञ किया था, वहां जब उन्होंने सरस्वती का स्मरण किया तो 'विमलोदका' प्रकट हुई। इन सातों सरस्वती योग का जल जहां एकत्र हुआ है, उसे सप्तसारस्वत कहते हैं। इस प्रकार मैंने तुम्हें सात सरस्वती योग के नाम और वृतांत बताये। इन्हीं से परम पवित्र सप्तसारस्वत तीर्थ की प्रसिद्धि हुई है।







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