Tuesday 2 August 2016

उद्योगपर्व---विदुरनीति ( दूसरा अध्याय )

विदुरनीति ( दूसरा अध्याय )
धृतराष्ट्र बोले---तात ! मैं चिन्ता से जलता हुआ अभीतक जाग रहा हूँ, तुम मेरे बतानेयोग्य जो कार्य समझो, उसे बताओ; क्योंकि तुम धर्म और अर्थ के ज्ञान में निपुण हो। उदारित्त विदुर ! तुम अपनी बुद्धि से विचारकर मुझे ठीक-ठीक उपदेश करो। जो बात युधिष्ठिर के लिये हितकर और कौरवों के लिये कल्याणकारी समझो, वह सब अवशय बताओ। विद्वन् ! मेरे मन में अनिष्ट की आशंका बनी रहती है, इसलिये मैं सर्वत्र अनिष्ट ही देखता हूँ; अतः व्याकुल हृदय से मैं पूछ रहा हूँ---अजातशत्रु युधिष्ठिर क्या चाहते हैं, सो सब ठीक-ठीक बताओ। विदुरजी ने कहा---मनुष्य को चाहिये कि वह जिसकी पराजय नहीं चाहता, उसको बिना पूछे भी कल्याण करनेवाली या अनिष्ट करनेवाली, अच्छी अथवा बुरी---जो भी बात हो, बता दे। इसलिये राजन् ! जिससे समस्त कौरवों का हित हो, वही बात कहूँगा। मैं जो कल्याणकारी एवं धर्मयुक्त वचन कह रहा हूँ, उन्हें आप ध्यान देकर सुनें---भारत ! असत् उपायों ( जूआ आदि का प्रयोग करके जो कपटपूर्ण कार्य सिद्ध होते हैं, उनमें आप मन मत लगाइये। इसी प्रकार अच्छे उपायों का उपयोग करके सावधानी के साथ किया गया कोई कार्य यदि सफल न हो तो बुद्धिमान मनुष्य को उसके लिये मन में ग्लानि नहीं करनी चाहिये। किसी प्रयोजन के लिये किये गये कर्मों में पहले प्रयोजन को समझ लेना चाहिये। खूब सोच विचारकर काम करना चाहिये। धीर मनुष्य को उचित है कि पहले कर्मों के प्रयोजन, परिणाम तथा अपनी उन्नति का विचार करके फिर काम आरम्भ करे या न करे। जो राजा स्थिति, लाभ, हानि, खजाना, देश तथा दण्ड आदि की मात्रा को नहीं जानता, वह राज्य पर स्थिर नहीं रह सकता। जो इनके प्रमाणों को ठीक-ठीक जानता है और धर्म और अर्थ के ज्ञान में दत्तचित्त रहता है, वह राज्य को प्राप्त करता है। 'अब तो राज्य प्राप्त हो ही गया'---ऐसा समझकर अनुचित वर्ताव नहीं करना चाहिये।  उद्दण्डता सम्पत्ति को उसी प्रकार नष्ट कर देती है, जैसे सुन्दर रूप को बुढ़ापा। मछली बढ़िया चारे से ढ़की हुई लोहे की काँटी को लोभ में पड़कर निगल जाती है, उससे होनेवाले परिणाम पर विचार नहीं करती। अतः अपनी उन्नति चाहनेवाले व्यक्ति को वही वस्तु खानी ( या ग्रहण करनी ) चाहिये जो खाने योग्य हो तथा खायी जा सके, खाने ( या ग्रहण करने ) पच सके और पच जाने पर हितकारी हो। जो पेड़ से कच्चे फलों को तोड़ता है, वह उन फलों के रस तो पाता नहीं, उलटे उस वृक्ष के बीज का नाश होता है। परन्तु जो पके हुए फल को समय पर ग्रहण करता है, वह फल से रस पाता है और वह उस बीज से पुनः फल प्राप्त करता है। जैसे भौंरा फूलों की रक्षा करता हुआ उनके मधु का आस्वादन करता है, उसी प्रकार राजा भी प्रजाजनों को कष्ट दिये बिना ही उनसे धन ले। जैसे माली बगीचे में एक-एक फूल तोड़ता है, उसकी जड़ नहीं काटता, उसी प्रकार राजा प्रजा की रक्षापूर्वक उनसे कर ले। कोयला बनानेवाले की तरह जड़ नहीं काटनी चाहिये। इसे करने से मेरा क्या लाभ होगा और न करने से क्या हानि होगी---इस प्रकार कर्मों के विषय में भली-भाँति विचार करके फिर मनुष्य करे या न करे। कुछ ऐसे व्यर्थ कार्य हैं, जो नित्य अप्राप्त होने के कारण आरम्भ करने योग्य नहीं होते; क्योंकि उनके लिये किया हुआ पुरुषार्थ भी व्यर्थ हो जाता है। जिसकी प्रसन्नता का कोई फल नहीं और क्रोध भी व्यर्थ है, उसको प्रजा स्वामी बनाना नहीं चाहती---जैसे स्त्री नपुंसक को पति बनाना नहीं चाहती। जिसका मूल ( साधन ) छोटा और फल महान् हो, बुद्धिमान पुरुष उसको शीघ्र ही आरम्भ कर देता है; वैसे कामों में वह विघ्न नहीं आने देता। जो राजा, मानो आँखों से पी जायगा---इस प्रकार प्रेम के साथ कोमल दृष्टि से देखता है, वह चुपचाप बैठा भी रहे तो प्रजा उससे अनुराग रखती है। राजा वृक्ष की भाँति अच्छी तरह से फूलने ( प्रसन्न रहने ) पर भी फल से खाली रहे ( अधिक देनेवाला न हो )। यदि फल से युक्त ( देनेवाला ) हो तो भी जिसपर चढ़ा न जा सके, ऐसा ( पहुँच से बाहर ) होकर रहे। कच्चा ( कम शक्तिवाला ) होने पर पके ( शक्तिसम्पन्न ) की भाँति अपने को प्रकट करे। ऐसा करने में वह नष्ट नहीं होता। जो राजा नेत्र, मन वाणी और कर्म---इन चारों से प्रजा को प्रसन्न करता है, उसी से प्रजा प्रसन्न रहती है। जैसे व्याघ्र से हरिण भयभीत होता है उसी प्रकार जिससे समस्त प्राणी डरते हैं, वह समुद्रपर्यन्त पृथ्वी का राज्य पाकर भी प्रजाजनों के द्वारा त्याग दिया जाता है। अन्याय में स्थित हुआ राजा बाप-दादों का राज्य पाकर भी अपने ही कर्मों से उसे इस तरह भ्रष्ट कर देता है, जैसे हवा बादल को छिन्न-भिन्न कर देती है। परम्परा से सज्जन पुरुषों द्वारा किये हुए धर्म का आचरण करनेवाले राजा के राज्य से पृथ्वी धन-धान्य से पूर्ण होकर उन्नति को प्राप्त होती है और उसके ऐश्वर्य को बढ़ाती है। जो राजा धर्म छोड़कर अधर्म का अनुष्ठान करता है, उसकी राज्यभूमि आग पर रखे हुए चमड़े की भाँति संकुचित हो जाती है।जो यत्न दूसरे राष्ट्र का नाश करने के लिये किया जाता है, वही अपने राज्य के रक्षा करने के लिये उचित है। धर्म से राज्य प्राप्त करें और धर्म से ही उसकी रक्षा करें; क्योंकि धर्ममूलक राज्यलक्ष्मी को पाकर न तो राजा उसे छोड़ता है और न तो वही राजा को छोड़ती है। निरर्थक बोलनेवाले, पागल तथा बकवाद करनेवाले बच्चे से भी सब ओर सेउसी भाँति तत्व की बात ग्रहण करनी चाहिये, जैसे पत्थरों में से सोना ले लिया जाता है। जैसे उच्छवृति से जीविका चलानेवाला एक-एक दाना चुगता रहता है, उसी प्रकार धीर मनुष्यों को जहाँ-तहाँ से भावपू्र्ण वचनों, सूक्तियों और सत्कर्मों का संग्रह करते रहना चाहिये। गौएँ गन्ध से, विद्वान लोग ज्ञान से, राजा जासूसों से तथा सर्वसाधारण आँखों से देखा करते हैं। राजन् ! जो गाय बड़ी कठिनाइयों से दुहने देती है, वह बहुत क्लेश उठाती है; किन्तु जो आसानी से दूध देती है, उसे लोग कष्ट नहीं देते। जो धातु बिना गरम किये मुड़ जाते हैं, उन्हें आग से नहीं तपाते। इस दृष्टांत के अनुसार बुद्धिमान व्यक्ति को अधिक बलवान् के सामने झुक जाना चाहिये; जो अधिक बलवान् के सामने झुकता है, वह मानो इन्द्रदेवता को प्रणाम करता है। पशुओं के रक्षक या स्वामी हैं बादल, राजाओं के सहायक हैं मंत्री, स्त्रियों के बन्धु ( रक्षक ) पति ।सत्य से धर्म की रक्षा होती है, योग से विद्या सुरक्षित होती है, सफाई से सुन्दर रूप की रक्षा होती है और सदाचार से कुल की रक्षा होती है। तोलने से नाज की रक्षा होती है, फेरने से घोड़े सुरक्षित रहते हैं, बारम्बार देखभाल करने से गौओं की तथा मैले वस्त्र से स्त्रियों की रक्षा होती है। मेरा ऐसा विचार है कि सदाचार से हीन मनुष्य का केवल ऊँचा कुल मान्य नहीं हो सकता; क्योंकि नीच कुल में उत्पन्न मनुष्यों का भी सदाचार श्रेष्ठ माना जाता है। जो दूसरों के धन, रूप, पराक्रम, कुलीनता, सुख सौभाग्य और सम्मान पर डाह करता है, उसका यह रोग असाध्य है। न करने योग्य काम करने से, करने योग्य काम में प्रमाद करने से तथा कार्य सिद्ध होने के पहले ही मंत्र प्रकट हो जाने से डरना चाहिये और जिससे नशा चढ़े, ऐसा पेय नहीं पीना चाहिये। विद्या का मद, धन का मद और तीसरा ऊँचे कुल का मद है। ये घमण्डी मनुष्यों के लिये तो मद है, परन्तु सज्जन व्यक्तियों के लिये दम के साधन हैं। कभी किसी कार्य में सज्जनों के द्वारा प्रार्थित होने पर दुष्टलोग अपने को प्रसिद्ध दुष्ट जानते हुए भी सज्जन मानने लगते हैं। मनस्वी पुरुषों को सहारा देनेवाले संत हैं, पर दुष्टलोग संतों को सहारा नहीं देते। अच्छे वस्त्रोंवाला सभा को जीतता ( अपना प्रभाव जमा लेता ) है; जि नके पास गौ है, वह मीठे स्वाद की आकांक्षा को जीत लेता है; सवारी से चलनेवाला मार्ग को जीत लेता ( तय कर लेता ) है और शीलवान् व्यक्ति सबपर विजय पा लेता है। पुरुष में शील ही प्रधान है; जिसका वही नष्ट हो जाता है, इस संसार में उसका जीवन, धन और बन्धुओं से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। भरतश्रेष्ठ ! धनोन्त्त पुरुषों के भोजन में माँस की, मध्यम श्रेणीवालों के भोजन में गोरस की, तथा दरिद्रों के भोजन में तेल की प्रधानता होती है। दरिद्र पुरुष सदा ही स्वादिष्ट भोजन करते हैं; क्योंकि भूख ही स्वाद की जननी है और यह धनियों के लिये सर्वथा दुर्लभ है। राजन् ! संसार में धनियों को प्रायः भोजन करने की शक्ति नहीं होती, किन्तु दरिद्रों के पेट में काठ भी पच जाते हैं। अधम व्यक्तियों को जीविका न होने से भय लगता है, मध्यम श्रेणी के व्यक्तियों को मृत्युसे भय होता है। यों तो पीने का नशा आदि भी नशा ही है, किन्तु ऐश्वर्य की नशा तो बहुत ही बुरा है; क्योंकि ऐश्वर्य के मद से मतवाला पुरुष भ्रष्ट हुए बिना होश में नहीं आता। वश में न होने के कारण विषयों में रसनेवाली इन्द्रियों से यह संसार उसी भाँति कष्ट पाता है जैसे सूर्य आदि ग्रहों से नक्षत्र तिरस्कृत हो जाते हैं। जो जीवों को वश में करनेवाली पाँच इन्द्रियों से जीत लिया गया, उसकी आपत्तियाँ शुक्लपक्ष के चन्द्रमा की भाँति बढ़ती हैं। इन्द्रियों सहित मन को जीते बिना ही जो मंत्रियों को जीतने की इच्छा करा है या मंत्रियों को अपने अधीन किये बिना शत्रु को जीतना चाहता है, उस अजितेन्द्रिय पुरुष को सब लोग त्याग देते हैं। जो पहले इन्द्रियों सहित मन को ही शत्रु समझकर जीत लेता है, उसके बाद यदि मंत्रियों तथा शत्रुओं को जीतने की इच्छा करे तो उसे सफलता मिलती है। इन्द्रियों तथा मन को जीतनेवाले, अपराधियों को दण्ड देनेवाले और जाँच-परखकर काम करनेवाले धीर पुरुष की लक्ष्मी अत्यन्त सेवा करती है। राजन् ! मनुष्य का शरीर रथ है, बुद्धि सारथि है और इन्द्रियाँ इसके घोड़े हैं। इनको वश में करके सावधान रहनेवाला चतुर एवं बुद्धिमान पुरुष काबू में किये हुए घोड़ों से रथी की भाँति सुखपूर्वक यात्रा करता है। शिक्षा न पाये हुए तथा काबू में न आनेवाले घोड़े जैसे मूर्ख सारथि को मार्ग में गिराते हैं, वैसे ही ये इन्द्रियाँ वश में न रहने पर पुरुष को मार गिराने में भी समर्थ होती हैं। इन्द्रयाँ वश में होने के कारण अर्थ को अनर्थ और अनर्थ को अर्थ समझकर अज्ञानी पुरुष बहुत बड़े दुःख को भी सुख मान बैठता है। जो धर्म और अर्थ का परित्याग करके इन्द्रियों के वश में हो जाता है वह शीघ्र ही ऐश्वर्य, प्राण, धन तथा स्त्री से भी हाथ धो बैठता है। जो अधिक धन का स्वामी होकर भी इन्द्रियों पर अधिकार नहीं रखता, वह इन्द्रियों को वश में न रखने के कारण ही ऐश्वर्य से भ्रष्ट हो जाता है। मन, बुद्धि और इन्द्रियों को अपने अधीन कर अपने से ही अपने आत्मा को जानने की इच्छा करें; क्योंकि आत्मा ही अपना बन्धु और आत्मा ही अपना शत्रु है। जिसने स्वयं अपने आत्मा को ही जीत लिया है, उसका आत्मा ही उसका बन्धु है। वही सच्चा बन्धु और वही नियत शत्रु है। राजन् ! जिस प्रकार सूक्ष्म छेदवाले जाल में फँसी हुई दो बड़ी-बड़ी मछलियाँ मिलकर जाल को काट देती हैं, इसी प्रकार ये काम और क्रोध--दोनो विशिष्ट ज्ञान को लुप्त कर देते हैं। जो इस जगत् में धर्म और अर्थ का विचार कर विजय-साधन-सामग्री का संग्रह करता है वही इस सामग्री से युक्त होने के कारण सर्वदा सुखपूर्वक समृद्धिशाली होता रहता है। जो चित्त के विकारभूत पाँच इन्द्रियरूपी भीतरी शत्रु को जीते बिना ही दूसरे शत्रुओं को जीतना चाता है, उसे शत्रु पराजित कर देते हैं। इन्द्रियों पर अधिकार न होने के कारण बड़े-बड़े साधु भी कर्मों से तथा राजा लोग भोग-विलासों में बँधे रहते हैं। दुष्टों का त्याग न करके उनके साथ मिले रहने से निरपराध सज्जन भी समान ही दण्ड पाते हैं, जैसे सूखी लकड़ी में मिल जाने से गीली भी जल जाती है; इसलिये दुष्ट व्यक्तियों के साथ कभी मेल न करें। जो पाँच विषयों की ओर दौड़नेवाले अपने पाँच इन्द्रियरूपी शत्रुओं को मोह के कारण वश में नहीं करता, उस मनुष्य को विपत्ति ग्रस लेती है। गुणों में दोष न देखना, सरलता, पवित्रता, संतोष, प्रिय वचन बोलना, इन्द्रियमन, सत्यभाषण तथा अचंचलता---ये गुण दुरात्मा मनुष्यों में नहीं होते। आत्मज्ञान, खिन्नता का अभाव, सहनशीलता, धर्मपरायण, वचन  की रक्षा तथा दान---ये गुण अधम पुरुषों में नहीं होते। मूर्ख मनुष्य विद्वानों को गाली और निंदा से कष्ट पहुँचाते हैं। गाली देनेवाला पाप का भागी होता है और क्षमा करनेवाला पाप से मुक्त हो जाता है। दुष्ट पुरुषों का बल है हिंसा, राजाओं का बल है दण्ड देना, स्त्रियों का बल है सेवा और गुणवानों का बल है क्षमा। राजन् ! वाणी का सं यम तो बहुत कठिन ही माना गया है; परन्तु विशेष अर्थयुक्त और चमत्कारपूर्ण वाणी भी अधिक बोली नहीं जा सकती। राजन् ! मधुर शब्दों में कही हुई बात अनेक प्रकार से कल्याण करती है; किन्तु वही यदि कटु शब्दों में कही जाय तो महान् अनर्थ का कारण बन जाती है। बाणों से बिंधा हुआ तथा फरसे से काटा हुआ वन भी पनप जाता है; किन्तु कटु वचन कहकर बाणों से किया हुआ भयानक घाव नहीं भरता। वचनरूपी बाण मुख से निकलकर दूसरों के मर्म पर चोट करते हैं; उससे आहत मनुष्य रात-दिन घुलता रहता है। अतः विद्वान पुरुष दूसरे पर उनका प्रयोग न करे। देवतालोग जिसे पराजय देते हैं; उसी बुद्धि को पहले ही हर लेेते हैं; इससे वह नीच कर्मों पर ही अधिक दृष्टि रखता है। विनाशकाल उपस्थित होने पर बुद्धि मलीन हो जाती है; फिर तो न्याय के समान प्रतीत होनेवाला अन्याय हृदय से बहर नहीं निकलता। भरतश्रेष्ठ ! आपकेपुत्रों की वह बुद्धि नष्ट हो गयी है; आप पाण्डवों के साथ विरोध के कारण इन अपने पुत्रों को पहचान नहीं रहे हैं। महाराज धृतराष्ट्र ! जो राजलक्षणों से सम्पन्न होने के कारण त्रिभुवन का भी राजा हो सकता है, वह आपका आज्ञाकारी युधिष्ठिर ही इस पृथ्वी का शासक होने योग्य है। वह धर्म तथा अर्थ के तत्व को जाननेवाला, तेज और बुद्धि से युक्त, पूर्ण सौभाग्यशाली तथा आपके सभी पुत्रों से बढ़-चढ़कर है। धर्मधारियों में श्रेष्ठ युधिष्ठिर दया, सौम्यभाव तथा आपके लिहाज के कारण अनकों कष्ट सह रहा है।

No comments:

Post a Comment