Tuesday 16 August 2016

उद्योग-पर्व---विदुरनीति ( चौथा अध्याय )

विदुरनीति ( चौथा अध्याय )
विदुरजी कहते हैं---इस विषय में दत्तात्रेय और साध्य देवताओं के संवादरूप इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं; यह मेरा सुना हुआ है। प्राचीन काल की बात है, उत्तम व्रतवाले महाबुद्धिमान महर्षि द्तात्रेयजी हंस (परमहंस ) रूप से विचर रहे थे; उस समय साध्य देवताओं ने उनसे पूछा---साध्य बोले---महर्षि ! हम सब लोग साध्य देवता हैं, आपको केवल देखकर हम आपके विषय में कुछ अनुमान नहीं कर सकते। हमें तो आप शास्त्रज्ञान से युक्त, धीर एवं बुद्धिमान जान पड़ते हैं; अतः हमलोगों को विद्वत्तापूर्ण अपनी उदार वाणी सुनाने की कृपा करें। हंस ने कहा---देवताओं ! मैने सुना है कि धैर्य-धारण, मनोनिग्रह तथा सत्य-धर्मों का पालन ही कर्तव्य है; इसके द्वारा मनुष्य को चािए कि हृदय की सारी गाँठ खोलकर प्रिय और अप्रिय को अपने आत्मा के समान समझे। दूसरों से गाली सुनकर भी स्वयं उन्हें गाली न दें। क्षमा करनेवाले का रोका हुआ क्रोध ही गाली देनेवाले को जला डालता है और उसके पुण्य को भी ले लेता है। दूसरों को न तो गाली दें और न उसका अपमान करें, मित्रों से द्रोह तथा नीच पुरुषों की सेवा न करें, सदाचार से हीन एवं अभिमानी न हों, रूखी तथा रोषभरी वाणी का परित्याग करें। जिसकी वाणी रूखी और स्वभाव कठोर है, जो मर्म पर आघात करता और वाग्वाणों से मनुष्यों को पीड़ा पहुँचाता है, उसे ऐसा समझना चाहिये कि वह मनुष्यों में महादरिद्र है और अपनी वाणी में दरिद्रता को बाँधे हुए ढ़ो रहा है।यदि दूसरा कोई इस मनुष्य को अग्नि और सूर्य के समान दग्ध करनेवालेीखे वाग्वाणों से बहुत चोट पहुँचावे तो वह विद्वान पुरुष चोट खाकर अत्यन्त वेदना सहते हुए भी ऐसा समझे कि वह मेरे पुण्यों को पुष्ट कर रहा है। जैसे वस्त्र जिस रंग में रंगा जाय वैसा ही हो जाता है, उसी प्रकार यदि कोई सज्जन, असज्जन, तपस्वी अथवा चोर की सेवा करता है तो उसपर उसी का रंग चढ़ जाता है। जो स्वयं किसी के प्रति बुरी बात नहीं कहता, दूसरों से भी नहीं कहलाता, मार खाकर बदले में न तो स्वयं मारता है और न दूसरों से मरवाता है, अपराधी को भी जो मारना नहीं चाहता, देवता भी उसके आगमन की बाट जोहते रहते हैं। बोलने से न बोलना अच्छा बताया गया है; किन्तु सत्य बोलना बाणी की दूसरी विशेषता है, यानि मन की अपेक्षा भी दूना लाभप्रद है। सत्य भी यदि प्रिय बोला जाय तो तीसरी विशेषता है और वह भी यदि धर्मसम्मत कहा जाय तो वह वचन की चौथी विशेषता है। मनुष्य जैसे लोगों के साथ रहता है, जैसे लोगों की सेवा करता है और जैसा होना चाहता है वैसा ही हो जाता है। जिन-जिन विषयों को मन से हटाया जाता है, उन-उन से मुक्ति होती जाती है; इस प्रकार यदि सब ओर से निवृति हो जाय तो मनुष्य को लेशमात्र का भी कभी अनुभव न हो। जो न तो स्वयं किसी से जी ता जाता, न दूसरों को जीतने की इच्छा करता है, न किसी के साथ बैर करता और न दूसरों को चोट पहुँचाना चाहता है, जो निंदा और प्रशंसा में समान भाव रखता है, वह हर्ष-शोक से परे हो जाता है। जो सबका कल्याण चाहता है, किसी के अकल्याण की बात मन में नहीं लाता, जो सत्यवादी, कोमल और जितेन्द्रिय है, वह उत्तम मनुष्य माना गया है। जो झूठी शान्त्वना नहीं देता, देने की प्रतीज्ञा करके दे ही डालता है, दूसरों के दोषों को जानता है, वह मध्यम श्रेणी का मनुष्य है। देखिये, दुःशासन गन्धर्वों द्वारा पीटा गया, अस्त्र-शस्त्रों से विदीर्ण किया गया, ( उस समय पाण्डवों ने उनकी रक्षा की; ) तो भी वह कृतघ्न क्रोध के वशीभूत हो पाण्डवों की बुराई से मुँह नहीं मोड़ता। वह दुरात्मा किसी का भी मित्र नहीं है। ऐसी चित्तवृत्ति अधम पुरुषों की ही हुआ करती है। जो अपने विषय में संदेह होने के कारण दूसरों से भी कल्याण होने का विश्वास नहीं करता, मित्रों को भी दूर रखता है, अवश्य ही वह अधम पुरुष है। जो अपने विषय में संदेह होने के कारण दूसरों से भी कल्याण होने का विश्वास नहीं करता, मित्रों को भी दूर रखता है, अवश्य ही वह अधम पुरुष है। जो अपनी उन्नति चाहता है, वह उत्तम पुरुषों की ही सेवा कर ले, परन्तु अधम पुरुषों की सेवा कदापि न करें। मनुष्य दुष्ट पुरुषों के बल से, निरन्तर के उद्योग से, बुद्धि से तथा पुरुषार्थ से धन भले ही प्राप्त कर ले; परन्तु इससे उत्तम कुलीन पुरुषों के सम्मान और सदाचार को वह कदपि नहीं प्राप्त कर सकता। धृतराष्ट्र ने पूछा---विदुर ! धर्म और अर्थ के नित्य ज्ञाता एवं बहुश्रुत देवता भी उत्तम कुल में उत्पन्न पुरुषों की इच्छा करते हैं। इसलिये मैं तुमसे यह प्रश्न करता हूँ कि उत्तम कुल कौन है ? विदुरजी बोले---जिनमें तप, इन्द्रियसंयम, वेदों का स्वाध्याय, यज्ञ, पवित्र विवाह, सदा अन्नदान और सदाचार---ये सात गुण वर्तमान हैं, उन्हें उत्तम कुल कहते हैं। जिनका सदाचार शिथिल नहीं होता, जो अपने दोषों से माता-पिता को कष्ट नहीं पहुँचाते, प्रसन्नचित्त से धर्म का आचरण करते हैं तथा असत् का परित्याग करके अपने कुल की विशेष कीर्ति चाहते हैं उन्हीं का कुल उत्तम है। यज्ञ न होने से, निन्दित कुल में विवाह करने से, वेद का त्याग और धर्म का उल्लंघन करने से उत्तम कुल अधम हो जाते हैं। देवताओं के धन का नाश, ब्राह्मण के धन का अपहरण और ब्राह्मणों की मर्यादा का उल्लंघन करने से उत्तम कुल भी अधम हो जाते हैं। गौओं, मनुष्यों और धन से सम्पन्न होकर भी जो कुल सदाचार से हीन है, वे अच्छे कुलों की गणना में नहीं आ सकते। थोड़े धनवाले कुल भी यदि सदाचार से सम्पन्न हैं, तो वे अच्छे कुलों की गणना में आ जाते हैं और महान् यश प्राप्त करते हैं। सदाचार की रक्षा यत्नपूर्वक करनी चाहिये; धन तो आता-जाता रहता है। धन क्षीण हो जाने पर भी सदाचारी मनुष्य क्षीण नहीं माना जाता; किन्तु जो सदाचार से भ्रष्ट हो गया, उसे तो नष्ट ही समझना चाहिये। जो कुल सदाचार से हीन ही हैं, वे गौओं, पशुओं, घोड़ों तथा हरी-भरी खेती से सम्पन्न होने पर भी उन्नति नहीं कर पाते। हमारे कुल में कोई वैर करनेवाला न हो, दूसरों के धन का अपहरण करनेवाला राजा अथवा मंत्री न हो और मित्रद्रोही, कपटी तथा असत्यवादी न हो। इसी प्रकार माता-पिता, देवता एवं अतिथियों को भोजन कराने से पहले भोजन करनेवाला भी न हो। तृण का आसन, पृथ्वी, जल और चौथी मीठी वाणी---सज्जनों के घर में इन चार चीजों की कभी कमी नहीं होती। राजन् ! पुण्यकर्म करनेवाले धर्मात्मा पुरुषों के यहाँ ये तृण आदि वस्तुएँ बड़ी श्रद्धा के साथ सत्कार के लिये उपस्थित की जाती है। नृपवर ! छोटा-सा भी रथ भार ढ़ो सकता है, किन्तु दूसरे काठ बड़े-बड़े होने पर भी ऐसा नहीं कर सकते। इसी प्रकार उत्म कुल में उत्पन्न उत्साही पुरुष भार सकते हैं, दूसरे मनुष्य वैसे नहीं होते। जिसके कोप से भयभीत होना पड़े तथा शंकित होकर जिसकी सेवा की जाय, वह मित्र नहीं है। मित्र तो वही है, जिसपर पिता की भाँति विश्वास किया जा सके; दूसरे तो संगीमात्र हैं। पहले से कोई संबंध न होने पर भी जो मित्रता का वर्ताव करे वही बन्धु, वही सहारा, वही मित्र और वही आश्रय है। जिसका चितत चंचल है, जो वृद्धों की सेवा नहीं करता, उस अनिश्चितमति पुरुष के लिये मित्रों का संगत स्थाई नहीं होता। जैसे हं सूखे सरोवर के आसपास ही मँडराकर रह जाते हैं, भीतर नहीं प्रवेश करते, उसी प्रकार जिसका चित्त चंचल है, जो अज्ञानी और इन्द्रियों का गुलाम है, उसे अर्थ की प्राप्ति नहीं होती। दुष्ट पुरुषों का स्वभाव मेघ के समान चंचल होता है, वे सहसा क्रोध करते हैं और अकारण ही प्रसन्न हो जाते हैं। जो मित्रों से सत्कार पाकर और उनकी सहायता से कृतकार्य होकर भी उनके नहीं होते, ऐसे कृतध्ऩों के मरने पर उनका माँस माँसभोजी जन्तु भी नहीं खाते। धन हो या न हो, मित्रों का सत्कार तो करें ही। मित्रों से कुछ भी न माँगते हुए उनके सार-आसार की परीक्षा न करें। संताप से रूप नष्ट होता है, संताप से बल नष्ट होता है, संताप से ज्ञान नष्ट होता है और संताप से मनुष्य रोग को प्राप्त होता है। अभीष्ट वस्तु शोक करने से नहीं मिलती; उससे तो शरीर को कष्ट होता है, और शत्रु प्रसन्न होते हैं। इसलिये आप मन में शोक न करें। मनुष्य बार-बार मरता और जन्म लेता है, बार-बार हानि उठाता और बढ़ता है, बार-बार स्वयं दूसरे से याचना करता है और दूसरे उससे याचना करते हैं, तथा बारंबार वह दूसरों के लिये शोक करता है और दूसरे उसके लिये शोक करते हैं। सुख-दुःख, उत्पत्ति-विनाश, लाभ-हानि और जीवन मरण---ये बारी-बारी से प्राप्त होते रहते हैं; इसलिये धीर पुरुष को इनके लिये हर्ष और शोक नहीं करना चाहिये। ये छः इन्द्रियाँ बहुत ही चंचल हैं; इनमें से जो-जो इन्द्रिय जिस-जिस विषय की ओर बढ़ती है, उससे बुद्धि उसी प्रकार क्षीण होती है जिस प्रकार टूटे घड़े से पानी सर्वदा चू जाता है। धृतराष्ट्र ने कहा---काठ में छिपी हुई आग के समान सूक्ष्म धर्म से बँधे हुए राजा युधिष्ठिर के साथ मैने मिथ्या व्यवहार किया है; अतः वे युद्ध करके मेरे पुत्रों का नाश कर डालेंगे। महामते ! यह सब कुछ सदा ही भय से उद्विग्न हैं; इसलिये जो उद्वेगशून्य और शान्तप्रद हो वही मुझे बताओ। विदुरजी बोले---पापशून्य नरेश ! विद्या, तप, इन्द्रियनिग्रह और लोभत्याग के सिवा और कोई आपके लिये शान्ति का उपाय मैं नहीं देखता। बुद्धि से मनुष्य अपने भय को दूर करता है, तपस्या से महान् पद को प्राप्त होता है, गुरुसुश्रुषा से ज्ञान और योग से शान्ति पाता है। मोक्ष की इच्छा रखनेवाले मनुष्य दान के पुण्य का आश्रय नहीं लेते, वेद के पुण्य का भी आश्रय नहीं लेते; किन्तु निष्कामभाव से राग-द्वेष से रहित हो इस लोक में विचरते रहते हैं। सभ्यक अध्ययन, न्यायोचित युद्ध, पुण्यकर्म और अच्छी तरह की हुई तपस्या के अन्त में सुख की वृद्धि होती है। राजन् ! आपस में फूट रखनेवाले लोग अच्छे बिछौनों से युक्त पलंग पाकर भी कभी सुख की नींद नहीं सोने पाते; उन्हें स्त्रियों के पास रहकर तथा बंदीजनों द्वारा की हुई स्तुति सुनकर भी प्रसन्नता नहीं होती। जो परस्पर भेद-भाव रखते हैं, वे कभी धर्म का आचरण नहीं करते। सुख भी नहीं पाते। उन्हें गौरव नहीं प्राप्त होता तथा शान्ति की भाषा भी नहीं सुहाती। हित की बात भी कही जाय तो उन्हें अच्छी नहीं लगती, उनके योग-क्षेम की सिद्धि नहीं हो पाती; राजन् ! भेदभाव वाले पुरुषों की विनाश के सिवा और कोई गति नहीं है। जैसे गौओं में दूध, ब्राह्मणों में तप और युवती स्त्रियों में चंचलता का होना अधिक सम्भव है, उसी प्रकार अपने जाति बन्धुओं से भय होना भी सम्भव ही है। नित्य सींचकर चढ़ाई हुई पतली लताएँ बहुत होने से बहुत वर्षों तक नाना प्रकार के झोंके सहती है; यही बात सत्पुरुषों के विषय में भी समझनी चाहिये। वे दुर्बल होने पर भी सामूहिक शक्ति से बलवान हो जाते हैं। भरतश्रेष्ठ ! जलती हुई लकड़ियाँ अलग-अलग होने पर धुआँ फेंकती हैं और एक साथ होने पर प्रज्जवलित हो उठती हैं। इसी प्रकार जातिबंधु भी फूट होने पर दुःख उठाते हैं और एकता होने पर सुखी रहते हैं। धृतराष्ट्र ! जो लोग ब्राह्मणों, स्त्रियों और गौओं पर ही शूरता प्रकट करते हैं, वे डंठल से पके हुए फलों की भाँति नीचे गिरते हैं। यदि वृक्ष अकेला है तो वह बलवान्, दृढ़मूल और बहुत बहुत बड़ा होने पर एक ही क्षण में आँधी के द्वारा बलपूर्वक शाखाओं सहित धराशायी किया जा सकता है। किन्तु जो बहुत से वृक्ष एक साथ रहकर समूह के रूप में खड़े हैं, वे एक-दूसरे के सहारे बड़ी-से-बड़ी आँधी को सह सकते हैं। इसी प्रकार समस्त गुणों से सम्पन्न मनुष्य को भी अकेले होने पर शत्रु अपनी ताकत के अन्दर समझते हैं, जैसे अकेले वृक्ष को वायु। किन्तु परस्पर मेल होने से और एक-दूसरे का सहारा मिलने से लोग इस प्रकार वृद्धि को प्राप्त होते हैं जैसे तालाब में कमल। ब्राह्मण, गौ, कुटुम्बी, बालक, स्त्री, अन्नदाता और शरणागत---ये अवध्य होते हैं। राजन् ! आपका कल्याण हो, मनुष्य में धन और आरोग्य को छोड़कर दूसरा कोई गुण नहीं है; क्योंकि रोगी तो मुर्दे के समान है। महाराज ! जो बिना रोग के उत्पन्न, कड़वा, सिर में दर्द पैदा करनेवाला,पाप से सम्ब्ध, कठोर, तीखा और गरम है, जो सज्जनों द्वारा पान करने योग्य है और जिसे दुर्जन नहीं पी सकते---उस क्रोध को आप पी जाइये और शान्त होइये। रोग से पीड़ित मनुष्य मधुर फलों का आदर नहीं करते, विषयों में भी उन्हें कुछ सुख या सार नहीं मिलता। रोगी सदा ही दुःखी रहते हैं; वे तो धन सम्बन्धी भोगों का और सुख का ही अनुभव करते हैं। राजन् ! पहले जूए में जीती गयी द्रौपदी को देखकर मैने कहा था, 'आप ध्यूतक्रीड़ा में आसक्त दुर्योधन को रोकिये, विद्वान लोग इस प्रवंचना को मना करते हैं;' किन्तु आपने मेरा कहना नहीं माना। वह बल नहीं, जिसका मृदुल स्वभाव के साथ विरोध हो; सूक्ष्म धर्म का शीघ्र ही सेवन करना चाहिेये।क्रूरतापूर्ण उपार्जन की हुई लक्ष्मी नश्चर होती है; यदि वह मृदुलतापूर्वक बढ़ायी गयी हो तो पुत्र पौत्रों तक स्थिर रहती है। राजन् ! आपके पुत्र पाण्डवों की रक्षा करें और पाण्डु के पुत्र आपके पुत्रों की रक्षा करें। सभी कौरव एक दूसरे के शत्रु को शत्रु और मित्र को मित्र समझें। सबका एक ही कर्तव्य हो, सभी सुखी और समृद्धिशाली होकर जीवन व्यतीत करें। इस समय आपही कौरवों के आधार स्तंभ हैं, कुरुवंश आपके ही अधीन है। तात ! कुन्ती के पुत्र अभी बालक हैं और वनवास से बहुत कष्ट पा चुके हैं; इस समय अपने यश की रक्षा करते हुए पाण्डवों का पालन कीजिये। समस्त पाण्डव सत्य पर डटे हुए हैं; अब आप अपने पुत्र दुर्योधन को रोकिये।

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