Tuesday 9 August 2016

उद्योगपर्व---विदुरनीति ( तीसरा अध्याय )

विदुरनीति ( तीसरा अध्याय )
धृतराष्ट्र ने कहा---महाबुद्धे ! तुम पुनः धर्म और अर्थ से युक्त बातें कहो, इन्हें सुनकर मुझे तृप्ति नहीं होती। इस विषय में तुम अद्भुत भाषण कर रहे हो। विदुरजी बोले---सब तीर्थों में स्नान तथा सब प्राणियों में कोमलता का वर्ताव---ये दोनो एक समान हैं; अथवा कोमलता के वर्ताव का विशेष महत्व है। आप अपने पुत्र कौरव, पाण्डव दोनो के साथ समान रूप से कोमलता का वर्ताव कीजिये। ऐसा करने से इस लोक में महान् सुयश प्राप्त करके मरने के पश्चात् आप स्वर्गलोक में जायेंगे। इस लोक में जबतक मनुष्य की पावन कीर्ति का गान किया जाता है, तबतक वह स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित होता है। इस विषय में उस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं, जसमें 'केशिनी' केलिये सुधन्वा के साथ विरोचन नाम के विवाद का वर्णन है। राजन् ! एक समय की बात है, केशिनी नामवाली एक अत्यन्त सुन्दरी कन्या सर्वश्रेष्ठ पति को वरण करने की इच्छा से स्वयंवर सभा में उपस्थित हुई। उसी समय दैत्यकुमार विरोचन उसे प्राप्त करने की इच्छा से वहाँ आया। तब केशिनी ने वहाँ दैत्यराज से इस प्रकार बातचीत की---केशिनी बोली---विरोचन ! ब्राह्मण श्रेष्ठ होते हैं या दैत्य ? मैं सुधन्वा से विवाह क्यों न करूँ ? विरोचन ने कहा---केशिनी ! हम प्रजापति की श्रेष्ठ संतानें हैं, अतः सबसे उत्तम हैं। यह सारा संसार हमलोगों का ही है। हमारे सामने देवता और ब्राह्मण कौन सी चीज हैं ? केशिनी बोली---विरोचन ! इसी जगह हम दोनो प्रतीक्षा करें, कल प्रातःकाल सुधन्वा यहाँ आवेगा, फिर मैं तुम दोनो को एकत्र उपस्थित देखूँगी। विरोचन बोला---कल्याणी ! तुम जैसा कहती हो, वही करूँगा।प्रातःकाल तुम मुझे और सुधन्वा को एक साथ उपस्थित देखोगी। विदुरजी कहते हैं---राजन् ! इसके बाद जब रात बीती और सूर्यमण्डल का उदय हुआ, उस समय सुधन्वा उस स्थान पर आया जहाँ विरोचन केशिनी के साथ मौजूद था। भरतश्रेष्ठ ! सुधन्वा प्रह्लादकुमार विरोचन और केशिन के पास आया। ब्राह्मण को आया देख केशिनी उठ खड़ी हुई और उसने उसे आसन, पाद्य और अर्ध्य निवेदन किया। सुधन्वा बोला---प्रह्लादनन्दन ! मैं तुम्हारे इस सुवर्णमय सुन्दर सिंहासन को छू लेता हूँ, तुम्हारे साथ इसपर बैठ नहीं सकता; क्योंकि ऐसा होने से हम दोनो एक समान हो जायेंगे। विरोचन ने कहा---सुधन्वन् ! तुम्हारे लिये तो पीढ़ा, चटाई और कुश का आसन उचित है; तुम मेरेसाथ बराबर के आसन पर बैठने योग्य हो ही नहीं। सुधन्वा ने कहा---पिता और पुत्र एक साथ एक आसन पर बैठ सकते हैं। तुम्हारे पिता प्रह्लाद नीचे बैठकर ही मेरी सेवा किया करते हैं। तुम अभी बालक हो, घर में सुख से पले हो; अतः तुम्हे इन बातों का कुछ भी ज्ञान नहीं है।विरोचन बोला---सुधन्वन् ! हम असुों के पा जो कुछ भी सोना, गौ, घोड़ा आदि धन है, उसकी मैं बाजी लगाता हूँ; हम तुम दोनो चलकर जो इस विषय के जानकार हों, उनसे पूछें कि हम दोनो में कौन श्रेष्ठ है। सुधन्वा बोला---विरोचन ! सुवर्ण, घोड़ा और गाय तुम्हारे ही पास रहे। हम दोनों प्राणों की बाजी लगाकर जानकार हों, उनसे पूछें।विरोचन ने कहा---अच्छा, प्राणों की बाजी लगाने के पश्चात् हम दोनों कहाँ चलेंगे ? मैं न देवताओं के पास जा सकता हूँ और न कभी मनुष्यों से ही निर्णय करा सकता हूँ। सुधन्वा बोला---प्राणों की बाजी लग जाने पर हम दोनों तुम्हारे पिता के पास चलेंगे। ( मुझे विश्वास है कि ) प्रह्लाद अपने बेटे के लिये भी झूठ नहीं बोल सकते। विदुरजी कहते हैं---इस तरह बाजी लगाकर परस्पर क्रुद्ध हो विरोचन और सुधन्वा दोनों उस समय वहाँ गये, जहाँ प्रह्लादजी थे। प्रह्लाद ने ( मन-ही-मन ) कहा---जो कभी भी एक साथ नहीं चले थे, वे ही दोनो ये सुधन्वा और विरोचन आज साँप की तरह क्रुद्ध होकर एक ही रास्ते आते दिखायी देते हैं। ( फिर विरोचन से कहा--- ) विरोचन ! मैं तुमसे पूछता हूँ, क्या सुधन्वा के साथ तुम्हारी मित्रता हो गयी है ? फिर कैसे एक साथ आ रहे हो ? पहले तो तुम दोनो एक साथ नहीं चलते थे। विरोचन बोला---पिताजी ! सुधन्वा के साथ मेरी मित्रता नहीं हुई है। हम दोनों प्राणों की बाजी लगाये आ रहे हैं। मैं आपसे यथार्थ बात पूछता हूँ। मेरे प्रश्न का झूठा उत्तर न दीजियेगा। प्रह्लाद ने कहा---सेवकों ! सुधन्वा के लिये जल और मधुपर्क लाओ। ( फिर सुधन्वा से कहा।) ब्रह्मण् ! तुम मेरे पूजनीय अतिथि हो, मैने तुम्हारे लिये सफेद गौ खूब मोटी ताजी कर रखी है। सुधन्वा बोला--- जल और मधुपर्क तो मुझे मार्ग में ही मिल गया है। तुम तो जो मैं पूछ रहा हूँ, उस प्रश्न का ठीक-ठीक उत्तर दो---क्या ब्राह्मण श्रेष्ठ है या विरोचन ? प्रह्लाद बोले---ब्रह्मण् ! मेरे एक ही पुत्र है और इधर तुम स्वयं उपस्थित हो; भला तुम दोनो के विवाद में मेरे-जैसा मनुष्य कैसे निर्णय ले सकता है ? सुधन्वा बोला---मतिमन् ! तुम्हारे पास गौ तथा दूसरा जो कुछ भी प्रिय धन हो, वह सब अपने औरस पुत्र विरोचन को दे दो; परन्तु हम दोनो के विवाद में जो तुम्हें ठीक-ठीक उत्तर देना ही चाहिेये। प्रह्लाद ने कहा---सुधन्वन् ! अब मैं तुमसे यह बात पूछता हूँ---जो सत्य न बोले अथवा असत्य निर्णय करे, ऐसे दुष्ट वक्ता की क्या स्थिति होती है ? सुधन्वा बोला---सौतवाली स्त्री, जूए में हारे हुए जुआरी और भार ढ़ोने से व्यथित शरीरवाले मनुष्य की रात में जो स्थिति होती है, वही स्थिति उल्टा न्याय देनेवाले वक्ता की भी होती है। जो झूठा निर्णय देता है, वह राजा नगर में कैद होकर बाहरी दरवजे पर भूख का कष्ट उठाता हुआ बहुत-से शत्रुओं को देखता है। झूठ बोलने से यदि पशु मरता हो तो पाँच पीढ़ियाँ, गौ मरती हो तो दस पीढ़ियाँ, घोड़ा मरता हो तो सौ पीढ़ियाँ और मनुष्य मरता हो तो एक हजार पीढ़ियाँ नरक में पड़ती हैं। सोने के लिये झूठ बोलनेवाला भूत और भविष्य सभी पीढ़ियों को नरक में गिराता है। पृथ्वी तथा स्त्री के लिये झूठ कहनेवाला तो अपना सर्वनाश ही कर लेता है, इसलिये तुम स्त्री के लिये कभी झूठ न बोलना। प्रह्लाद ने कहा---विरोचन ! सुधन्वा के पिता अंगिरा मुझसे श्रेष्ठ हैं, इसकी माता भी तुम्हारी माता से श्रेष्ठ है; अतः आज तुम सुधन्वा से हार गये। विरोचन ! अब सुधन्वा तुम्हारे प्राणों का मालिक है। सुधन्वन् ! अब यदि तुम दे दो तो मैं विरोचन को पाना चाहता हूँ। सुधन्वा बोला---प्रह्लाद ! तुमने धर्म को ही स्वीकार किया है, स्वार्थवश झूठ नहीं कहा है; इसलिये अब इस दुर्लभ पुत्र को फिर तुम्हे दे रहा हूँ। प्रह्लाद ! तुम्हारे इस पुत्र विरोचन को मन पुनः तुम्हे दे दिया। किन्तु अब यह कुमारी केशिनी के निकट चलकर मेरा पैर धोवे। विदुरजी कहते हैं--- इसलिये राजेन्द्र ! आप पृथ्वी के लिये झूठ न बोलें। बेटे के स्वार्थवश सच्ची बातन कहकर पुत्र और मंत्रियों के साथ विनाश के मुख में न जायँ। देवतालोग चरवाहों की तरह डंडा लेकर पहरा नहीं देते। वे जिसकी रक्षा करना चाहते हैं, उसे उत्तम बुद्धि से युक्त कर देते हैं। मनुष्य जैसे-जैसे कल्याण में मन लगाता है, वैसे-ही-वैसे उसके सारे अभीष्ट सिद्ध होते हैं---इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। कपटपूर्ण व्यवहार करनेवाले मायावी को वेद पापों से मुक्त नहीं करते। किन्तु जैसे पंख निकल आने पर चिड़ियों के बच्चे घोंसला छोड़ देते हैं, उसी प्रकार वेद भी अन्तकाल में उसे त्याग देते हैं। शराब पीना, कलह, समूह के साथ बैर, पति-पत्नी में भेद पैदा करना, कुटुम्बवालों में भेदबुद्धि उत्पन्न करना, राजा के साथ द्वेष, स्त्री और पुरुष में विवाद और बुरे रास्ते---ये सब त्याग देने योग्य बताये गये हैं। हस्तरेखा देखनेवाला, चोरी करके व्यापार करनेवाला, जुआरी, वैद्य, शत्रु, मित्र और चारण---इन सातों को कभी गवाह न बनावे। आदर के साथ अग्निहोत्र, आदरपूर्वक मौन का पालन, आदरपूर्वक स्वाध्याय और आदर के साथ यज्ञ का अनुष्ठान---ये चार कर्म भय को दूर करनेवाले हैं; किन्तु वे ही यदि ठीक तरह से सम्पादित न हों तो भय प्रदान करनेवाले होते हैं। घर में आग लगानेवाला, विष देनेवाला, जारज संतान की कमाई खानेवाला, सोमरस बेचनेवाला, शस्त्र बनानेवाला, चुगली करनेवाला, मित्रद्रोही परस्त्रीलंपट, गर्भ की हत्या करनेवाला, गुरुस्त्रीगामी, ब्राह्मण होकर शराब पीनेवाला, अधिक तीखे स्वभाववाला, कौए की तरह काँय काँय करनेवाला, नास्तिक, वेद की निंदा करनेवाला, घूसखोर, पतित, क्रूर तथा शक्ति रहते हुए रक्षा की प्रार्थना करने पर भी जो हिंसा करता है--- ये सब-के-सब ब्रह्महत्यारे के समान हैं। जलती हुई आग से सोने की पहचान होती है, सदाचार से सत्पुरुष की, व्यवहार से साधु की, भय आने पर शूर की, आर्थिक कठिनाई में धीर की और कठिन आपत्ति  में शत्रु और मित्र की परीक्षा होती है। बुढ़ापा सुन्दर रूप को, आशा धीरता को, मृत्यु प्राणों को, दोष देखने की आदत धर्माचरण को, क्रोध लक्ष्मी को, नीच पुरुषों की सेवा सत्स्वभाव को, काम लज्जा को और अभिमान सर्वस्व को नष्ट कर देता है। शुभ कर्मों से लक्ष्मी की उन्नति होती है, प्रगल्भता से बढ़ती है, चतुरता से जड़ जमा लेती है और संयम से सुरक्षित रहती है। आठ गुण मनुष्य की शोभा बढ़ाते हैं---बुद्धि, कुलीनता, दम, शास्त्रज्ञान, पराक्रम, बहुत न बोलना, यथाशक्ति दान और कृतज्ञता। तात ! एक गुण ऐसा है, जो इन सभी महत्वपूर्ण गुणों पर हठात् अधिकार जमा लेता है। जिस समय राजा किसी मनुष्य का सत्कार करता है, उस समय वह एक गुण (राजसम्मान ) सभी गुणों से बढ़कर शोभा पाता है। राजन् !  मनुष्यलोक में ये आठ गुण स्वर्गलोक का दर्शन करनेवाले हैं; इनमें चार सज्जनों का अनुसरण करते हैं और चार का स्वयं सज्जन ही अनुसरण करते हैं। यज्ञ, दान, अध्ययन और तप---ये चार सज्जनों के पीछे चलते हैं; और इन्द्रिय-निग्रह, सत्य, सरलता तथा कोमलता---इन चारों का संतलोग स्वयं अनुकरण करते हैं। यज्ञ, अध्ययन, दान, तप, सत्य, क्षमा, दया और अलोभ---ये धर्म के आठ प्रकार के मार्ग  बताये गये हैं। इनमें से पहले चारों को तो दम्भ के लिये भी सेवन किया जा सकता है; परन्तु अन्तिम चार तो जो महात्मा नहीं हैं, उनमें रह ही नहीं सकते। जिस सभा में बड़े-बूढ़े नहीं, वह सभा नहीं; जो धर्म की बात न कहें , वे बूढ़े नहीं; जिसमें सत्य नहीं वह धर्म नहीं और जो कपट से पू्र्ण हो वह सत्य नहीं है। सत्य, विनय का भाव, शा्त्रज्ञान, विद्या, कुलीनता, शील, बल, धन, शूरता और चमत्कारपूर्ण बात कहना---ये दस स्वर्ग के साधन हैं। पापकीर्तिवाला मनुष्य पापाचरण करता हुआ पापरूप फल को ही प्राप्त करता है और पुण्यकर्मा मनुष्य पुण्य करता हुआ अत्यन्त पुण्यफल का ही उपभोग करता है। इसलिये प्रशंसित व्रत का आचरण करनेवाले मनुष्य को पाप नहीं करना चाहिये; क्योंकि बारंबार किया हुआ पाप बुद्धि को नष्ट कर देता है। जिसकी बुद्धि नष्ट हो जाती है, वह मनुष्य सदा पाप करता ही रहता है। इसी प्रकार बारंबार किया हुआ पुण्य बुद्धि को बढ़ाता है। जिसकी बुद्धि बढ़ जाती है, वह मनुष्य सदा पुण्य ही करता है। इसी प्रकार पुण्यकर्मा मनुष्य पुण्य करता हुआ पुण्यलोक को ही जाता है। इसलिये मनुष्य को चाहिये कि वह सदा एकाग्रित्त होकर पुण्य का ही सेवन करे। गुणों में दोष देखनेवाला, मर्म पर आघात करनेवाला, निर्दयी, शत्रुता करनेवाला और शठ मनुष्य पाप का आचरण करता हुआ शीघ्र ही महान् कष्ट को प्राप्त होता है। दोषदृष्टि से रहित शुद्ध बुद्धिवाला मनुष्य सदा शुभ कर्मों का अनुष्ठान करता हुआ महान सुख को प्राप्त होता है और सर्वत्र उसका सम्मान होता है। जो बुद्धिमान पुरुषों से सद्बुद्धि प्राप्त करता है, वही पण्डित है; क्योंकि बुद्धिमान मनुष्य ही धर्म और अर्थ को प्राप्त कर अनायास ही अपनी उन्नति करने में समर्थ होता है। दिनभर में वह कार्य करे, जिससे रात में सुख से रहे और आठ महीने वह कार्य करे, जिससे वर्षा के चार महीने सुख से व्यतीत कर सके। पहली अवस्था में वह काम करे, जिससे वृद्धावस्था में सुखपूर्वक रह सके और जीवनभर वह कार्य करे, जिससे मरने के बाद भी सुख से रह सके। सज्जन पुरुष पच जाने पर अन्न की, निष्कलंक जवानी बीत जाने पर स्त्री की, संग्राम जीत लेने पर शूर की और तत्वज्ञान प्राप्त हो जाने पर तपस्वी की प्रशंसा करते हैं। अधर्म से प्राप्त हुए धन के द्वारा जो दोष छिपाया जाता है, वह तो छिपता नहीं; उससे भिन्न और नया दोष प्रकट हो जाता है। अपने मन और इन्द्रियों को वश में करनेवाले शिष्यों के शासक गुरु हैं, दुष्टों के शासक राजा हैं और छिपे छिपे पाप करनेवालों के शासक सूर्यपुत्र यमराज हैं। ऋषि, नदी, महात्माओं के कुल तथा स्त्रियों के दुश्चरित्र का मूल नहीं जाना जा सकता। शूर, विद्वान और सेवाधर्म को जाननेवाले---ये तीन प्रकार के मनुष्य पृथ्वी से सुवर्णरूपी पुष्प का संचय करते हैं। बुद्धि से विचारकर किये हुए कर्म श्रेष्ठ होते हैं, बाहुबल से किये जानेवाले कर्म मध्यम श्रेणी के हैं, जंघा से होनेवाल कार्य अधम हैं और भार ढ़ोने का काम महा अधम है। राजन् ! अब आप दुर्योधन, शकुनि, मूर्ख दुःशासन तथा कर्ण पर राज्य का भार रखकर उन्नति कैसे चाहते हैं ? पाण्डव तो सभी उत्तम गुणों से सम्पन्न हैं और आपमें पिता का-सा भाव रखकर बर्ताव करते हैं; आप भी उनपर पुत्रभाव रखकर उचित बर्ताव कीजिये।

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