Sunday 28 August 2016

उद्योग-पर्व---विदुरनीति ( छठा अध्याय )

विदुरनीति ( छठा अध्याय )
विदुरजी कहते हैं---जब कोई माननीय वृद्ध पुरुष निकट आता है, उस समय नवयुवक व्यक्ति के प्राण ऊपर को उठने लगते हैं; फिर जब वह वृद्ध के स्वागत में उठकर खड़ा होता और प्रणाम करता है, तो पुनः प्राणों को वास्तविक स्थिति में प्राप्त करता है। धीर पुरुष को चाहिये, जब कोई साधु पुरुष अतिथि के रूप में घर पर आवे तो पहले आसन देकर, जल लाकर उसके चरण पखारे, फिर उसकी कुशल पूछकर अपनी स्थिति बतावे,  तदनन्तर आवश्यकता समझकर अन्न भोजन करावे। वेदवेत्ता जिसके घर दाता के लोभ, भय या कंजूसी के कारण जल, मधुपर्क और गौ को नहीं स्वीकार करता, श्रेष्ठ पुरुषों ने उस गृहस्थ का जीवन व्यर्थ बताया है। वैद्य, ब्रह्मचर्य से भ्रष्ट, चोर, क्रूर, शराबी, गर्भहत्यारा, सेनाजीवी और वेदविक्रेता---ये यद्यपि पैर धोने के योग्य नहीं हैं, तथापि यदि अतिथि होकर आवें तो विशेष प्रिय यानि आदर के योग्य होते हैं। नमक, पका हुआ अन्न, दही, दूध, मधु, तेल, घी, तिल, माँस, फल, मूल, साग, लाल कपड़ा, सब प्रकार की गंध और गुड़---इतनी वस्तुएँ बेचने योग्य नहीं हैं। जो क्रोध न करनेवाला, ढ़ेला, पत्थर और सुवर्ण को एक सा समझनेवाला, शोकहीन, सन्धि-विग्रह से रहित, निन्दा-प्रशंसा से शून्य, प्रिय-अप्रिय का त्याग करनेवाला तथा उदासीन है, वही सन्यासी है। जो नीवार ( जंगली चावल ),  कन्द-मूल, इंगुद ( लिसौड़ा ) और साग खाकर निर्वाह करता है, मन को वश में रखता है, अग्निहोत्र करता है, वन में रहकर भी अतिथिसेवा में सदा सावधान रहता  है, वही पुण्यात्मा तपस्वी ( वानप्रस्थी ) श्रेष्ठ माना गया है। बुद्धिमान व्यक्ति की बुराई करके इस बात पर निश्चित न रहें कि 'मैं दूर हूँ'। बुद्धिमान की बाँहें बड़ी लम्बी होती हैं, सताया जाने पर वह उन्हीं बाँहों से बदला लेता है। जो विश्वास का पात्र नहीं है, उसका तो विश्वास करे ही नहीं; किन्तु जो विश्वासपात्र है, उसपर भी अधिक विश्वास न करें। विश्वासी व्यक्ति से उत्पन्न हुआ भय मूलोच्छेद कर डालता है। मनुष्य को चाहिये कि वह इर्ष्यारहित, स्त्रियों का रक्षक, सम्पत्ति का न्यायपूर्वक विभाग करनेवाला,प्रियवादी, स्वच्छ तथा स्त्रियों के निकट मीठे वचन बोलनेवाला हो, परन्तु उनके वश में कभी न हो। स्त्रियाँ घर की लक्ष्मी कही गयी हैं; ये अत्न्त सौभाग्यशालिनी, पूजा के योग्य, पवित्र तथा घर की शोभा हैं। अतः इनकी विशेषरूप से रक्षा करनी चाहिये। अन्तःपुर की रक्षा का कार्य पिता को सौंप दें, रसोईघर का प्रबन्ध माता के हाथ में दे दे, गौओं की सेवा में अपने समान व्यक्ति को नियुक्त करे और कृषि का कार्य स्वयं करे। सेवकों द्वारा वाणिज्य-व्यापार करे और पुत्रों के द्वारा विद्वानों की सेवा करे। जल से अग्नि, ब्राह्मण से क्षत्रिय और पत्थर से लोहा पैदा हुआ है। इनका तेज सर्वत्र व्याप्त होने पर भी अपने उत्पत्ति स्थान में शान्त हो जाता है। अच्छे कुल में उत्पन्न, अग्नि के समान तेजस्वी, क्षमाशील और विकारशून्य संत व्यक्ति सदा काष्ठ में अग्नि की भाँति शान्तभाव से स्थित रहते हैं। जिस राजा की मंत्रणा को उसके बहिरंग एवं अंतरंग सभासद् तक नहीं जानते, सब ओर दृष्टि रखनेवाला वह राजा चिरकाल तक ऐश्वर्य का उपभोग करता है। धर्म, काम और अर्थ सम्बन्धी कार्यों को करने से पहले न बताये, करके ही दिखाये। पर्वत की चोटी पर चढ़कर अथवा राजमहल के एकान्त स्थान में जाकर या जंगल में निर्जन स्थान पर मंत्रणा करनी चाहिये। हे भारत ! जो मित्र न हो, मित्र होने पर भी पण्डित न हो, पण्डित होने पर भी जिसका मन वश में न हो, वह अपना गुप्त मंत्र जानने के योग्य नहीं है। राजा अच्छी तरह परीक्षा किये बिना किसी को अपना मंत्री न बनावे। क्योंकि धन की प्राप्ति और मंत्र की रक्षा का भार मंत्री पर ही रहता है। जिसके धर्म, अर्थ और काम विषयक सभी कार्यों के पूर्ण होने के बाद ही सभासद्गण जान पाते हैं, वही राजा समस्त राजाओं में श्रेष्ठ है। अपने मंत्र को गुप्त रखनेवाले उस राजा को निःसंदेह सिद्धि प्राप्त होती है। जो मोहवश बुरे कर्म करता है, वह उन कार्यों का विपरीत परिणाम होने से अपने जीवन से भी हाथ धो बैठता है। उत्तम कर्मों का अनुष्ठान तो सुख देनेवाला होता है, किन्तु उनका न किया जाना पश्चाताप का कारण माना गया है। जिसके क्रोध और हर्ष व्यर्थ नहीं जाते, जो आवश्यक कार्यों की स्वयं देखभाल करता है और खजाने की स्वयं जानकारी रखता है, उसकी पृथ्वी पर्याप्त धन देनेवाली ही होती है। भूपति को चाहिये कि अपने 'राजा' नाम से और राजोचित 'छत्र' धारण से संतुष्ट रहे। सेवकों को पर्याप्त धन दें, सब अकेले ही न हड़प ले। ब्राह्मण को ब्राह्मण जानता है, स्त्री को उसका पति जानता है। मंत्री को राजा जानता है और राजा को राजा को भी राजा ही जानता है। वश में आये हुए अयोग्य शत्रु को कभी छोड़ना नहीं चाहिये। यदि अपना बल अधिक न हो तो नम्र होकर उसके पास समय बिताना चाहिेये, और बल होने पर उसे मार ही डालना चाहिये; क्योंकि यदि शत्रु मारा न गया तो उससे शीघ्र ही भय उपस्थित होता है। देवता, ब्राह्मण, राजा, बृद्ध, बालक और रोगी पर होनेवाले क्रोध को प्रयत्नपूर्वक रोकना चाहिये। निरर्थक कलह करना मू्र्खों का काम है, बुद्धिमान मनुष्य को इसका त्याग करना चाहिये। ऐसा करने से उसे लोक में यश मिलता है और अनर्थ का सामना नहीं करना पड़ता। जिसे प्रसन्न होने का कोई फल नहीं तथा जिसका क्रोध भी व्यर्थ होता है, ऐसे राजा को प्रजा उसी प्रजा उसी भाँति नहीं चाहती जैसे स्त्री नपुंसक पति को। बुद्धि से धन प्राप्त होता है, और मूर्खता दरिद्रता का कारण है---ऐसा कोई नियम नहीं है। संसारचक्र के वृतांत को केवल विद्वान ही जानते हैं, दूसरे लोग नहीं। भारत ! मूर्ख मनुष्य विद्या, शील, अवस्था, बुद्धि, धन और कुल में बड़े माननीय पुरुषों का अनादर किया जाता है। जिसका चरित्र निंदनीय है, जो मूर्ख, गुणों में दोष देखनेवाला, अधार्मिक, बुरे वचन बोलनेवाला और क्रोधी है, उसके ऊपर शीघ्र ही अनर्थ टूट पड़ते हैं। ठगई न करना, दान देना, बात पर कायम रहना और अच्छी तरह कही हुई हित की बात---ये सब संपूर्ण भूतों को अपना बना लेते हैं। किसी को भी धोखा न देनेवाला, चतुर, कृतज्ञ, बुद्धिमान और सरल राजा खजाना खतम हो जाने पर भी सहायकों को पा जाता है, अर्थात् उसे सहायक मिल जाते हैं।धैर्य, मनोविग्रह, इंद्रियसंयम, पवित्रता, दया, कोमल वाणी और मित्र से द्रोह न करना---ये सात बातें लक्ष्मी को बढ़ानेवाली हैं। राजन् ! जो अपने आश्रितों में धन का ठीक-ठीक बँटवारा नहीं करता तथा जो दुष्ट, कृतघ्न और निर्लज्ज है, ऐसा राजा इस लोक में त्याग देने योग्य है। जो स्वयं दोषी होकर भी निर्दोष आत्मीय व्यक्ति को कुपित करता है, वह सर्पयुक्त घर में रहनेवाले मनुष्य की भाँति रात में सुख से नहीं सो सकता। भारत ! जिनके ऊपर दोषारोपण करने से योग और क्षेत्र में बाधा आती हो, उन लोगों को देवता की भाँति सदा प्रसन्न रखना चाहिये। जो धन आदि पदार्थ, स्त्री, प्रमादी, पतित और नीच पुरुषों के हाथ में सौंप दिये जाते हैं, वे संशय में पड़ जाते हैं। राजन् ! जहाँ का शासन स्त्री, जुआरी और बालक के हाथ में है, वहाँ के लोग नदी में पत्थर की नाव पर बैठनेवालों की तरह विपत्ति के समुद्र में डूब जाते हैं। जो लोग जितना आवश्यक है, उतने ही काम में लगे रहते हैं, अधिक में हाथ नहीं डालते, उन्हें मैं पण्डित मानता हूँ; क्योंकि अधिक में हाथ डालना संघर्ष का कारण होता है। जुआरी जिसकी तारीफ करते हैं, चारण जिसकी प्रशंसा का गान करते हैं और वेश्याएँ जिसकी बड़ाई किया करती हैं, वह मनुष्य जीता ही मुर्दे के समान है। भारत ! आपने उन महान् धनुर्धर और अत्न्त तेजस्वी पाण्डवों को छोड़कर यह महान् ऐश्वर्य का भार दुर्योधन के ऊपर रख दिया है; इसलिये आप शीघ्र ही उस ऐश्वर्य से मूढ़ दुर्योधन को त्रिभुवन के साम्राज्य से गिरे हुए बलि की भाँति इस राज्य से भ्रष्ट होते देखियेगा।

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