Monday 5 September 2016

उद्योग-पर्व---विदुरनीति ( सातवाँ अध्याय )

विदुरनीति ( सातवाँ अध्याय )
धृतराष्ट्र ने कहा---विदुर ! यह पुरुष ऐश्वर्य की प्राप्ति और नाश से स्वतंत्र नहीं है। ब्रह्मा के धागे से बँधी हुई कठपुतली की भाँति इसे प्रारब्ध के अधीन कर रखा है; इसलिये तुम कहते चलो, मैं सुनने के लिये धैर्य धारण किये बैठा हूँ। विदुरजी बोले---भारत ! समय के विपरीत यदि वृहस्पति भी कुछ बोले तो उनका अपमान ही होगा और उनके बुद्धि की भी अवज्ञा ही होगी। संसार में कोई भी मनुष्य दान देने से प्रिय होता है, दूसरा प्रिय वचन बोलने से प्रिय होता है और तीसरा मंत्र तथा औषध के बल से प्रिय होता है, किन्तु जो वास्तव में प्रिय है, वह तो सदा ही प्रिय ही है। जिससे द्वेष हो जाता है वह न तो साधु, न विद्वान्, न बुद्धिमान् ही जान पड़ता है। प्रियतम के तो सभी कर्म शुभ ही होते हैं और दुश्मन के सभी काम पापमय। राजन् ! दुर्योधन के जन्म लेते ही मैने कहा था 'केवल इसी एक पुत्र को तुम त्याग दो। इसके त्याग से सौ पुत्रों की वृद्धि होगी और न त्याग करने से सौ पुत्रों का नाश होगा।' जो वृद्धि भविष्य में नाश का कारण बने, उस अधिक महत्व नहीं देना चाहिये। और उस क्षय का भी बहुत आदर करना चाहिये, जो आगे चलकर अभ्युदय का कारण हो। महाराज ! वास्तव में जो क्षय बृद्धि का कारण होता है, वह क्षय ही नहीं है। परन्तु उस लाभ को भी क्षय ही मानना चाहिये, जिसे पाने से बहुतों का नाश हो जाय। धृतराष्ट्र ! कुछ लोग गुण के धनी होते हैं और कुछ लोग धन के धनी। जो धन के धनी होते हुए भी गुणों के कंगाल हैं, उन्हें सर्वथा त्याग दीजिये। धृतराष्ट्र ने कहा---विदुर ! तुम जो कुछ कह रहे हो, परिणाम में हितकर है; बुद्धिमान लोग उसका अनुमोदन करते हैं। यह भी ठीक है कि जिस ओर धर्म होता है, उसी पक्ष की जीत होती है तो भी मैं अपने बेटे का त्याग नहीं कर सकता। विदुरजी बोले---जो अधिक गुणों से सम्पन्न और विनयी है, वह प्राणियों का तनिक भी संहार होते देख उसकी कभी उपेक्षा नहीं कर सकता। जो दूसरों की निन्दा में ही लगे रहते हैं, दूसरों को दुःख देने और आपस में फूट डालने के लिये सदा उत्साह के साथ प्रयत्न करते हैं, जिनका दर्शन दोष से भरा ( अशुभ ) है और जिनके साथ रहे में भी बहुत बड़ा खतरा है, ऐसे लोगों से धन लेने में महान् दोष है और उन्हें देने में बहुत बड़ा भय है। दूसरों में फूट डालने का जिनका स्वभाव है, जो कामी, निर्लज्ज, शठ और प्रसिद्ध पापी है, वे साथ रखने के अयोग्य ( निन्दित ) माने गये हैं। उपर्युक्त दोषों के अतिरिक्त और भी जो महान् दोष हैं, उनसे युक्त मनुष्यों का त्याग कर देना चाहिये। सौहार्दभाव निवृत हो जाने पर नीच व्यक्तियों का प्रेम नष्ट हो जाता है, उस सौहार्द से होनेवाले फल की सिद्धि और सुख का भी नाश हो जाता है। फिर वह नीच पुरुष निंदा करने के यत्न करता है, थोड़ा भी अपराध हो जाने पर मोहवश विनाश के लिये उद्योग आरम्भ कर देता है। उसे तनिक भी शान्ति नहीं मिलती। उस प्रकार के नीच, क्रूर तथा अजितेन्द्रिय व्यक्तियों से होनेवाले संग पर अपनी बुद्धि से पूर्ण विचार करके विद्वान व्यक्ति उसे दूर से ही त्याग दे। जो अपने कुटुम्बी, दरिद्र, दीन तथा रोगी पर अनुग्रह करता है, वह पुत्र और धन-धान्य से सम्पन्न होता और अत्यन्त कल्याण का अनुभव करता है। राजेन्द्र ! जो लोग अपने भले  की इच्छा करते हैं, उन्हें अपने जाति भाइों को उन्नतिशील बनाना चाहिये; इसलिये आप भली-भाँति अपने कुल की वृद्धि करें। राजन् ! जो अपने कुटुम्बीजनों का सत्कार करता है, वह कल्याण का भागी होता है। भरतश्रेष्ठ ! अपने कुटुम्ब के लोग गुणहीन हों, तो भी उनकी रक्षा करनी चाहिये। फिर जो आपके कृपाभिलाषी एवं गुणवान् हैं, उनकी तो बात ही क्या है?
राजन् ! आप समर्थ हैं, वीर पाण्डवों पर कृपा कीजिये और उनकी जीविका के लिये कुछ गाँव दे दीजिये। ऐसा करने से इस संसार में यश प्राप्त होगा। तात ! आप बृद्ध हैं, इसलिये आपको अपने पुत्रों पर शासन करना चाहिये। भरतश्रेष्ठ ! मुझे भी आपके हित की ही बात कहनी चाहिये। आप मुझे अपना हितैषी समझें। तात ! शुभ चाहनेवालों को अपने जातिभाइयों के साथ कलह नहीं करना चाहिये; बल्कि उनके साथ मिलकर सुख का उपभोग करना चाहिये। जातिभाइयों के साथ परस्पर भोजन, बातचीत एवं प्रेम करना ही कर्तव्य है; उन साथ कभी विरोध नहीं करना चाहिये। इस जगत् में जातिभाई तारते और डुबाते भी हैं। इस जगत् में जातिभाई तारते और डुबाते भी हैं। उनमें जो सदाचारी हैं, वे तो ताड़ते हैं और दुराचारी डुबो देते हैं। राजेन्द्र ! आप पाण्डवों के प्रति सद्व्वहार करें। उनसे सुरक्षित होकर आप शत्रुओं के आक्रमण से बचे रहेंगे। विषैले बाण हाथ में लिये हुए व्याध के पास पहुँचकर जैसे मृग को कष्ट भोगना पड़ता है, उसी प्रकार जो जातीय बन्धु अपने धनी बन्धु के पास पहुँचकर दुःख पाता है, उसके पाप का भागी वह धनी होता है। नरश्रेष्ठ ! आप पाण्डवों को अथवा उनके पुत्रों को मारे गये सुनकर पीछे संताप करेंगे; अतः इस बात का पहले ही विचारकर लीजिये। ( इस जीवन का कोई ठिकाना नहीं है।) जिस कर्म के करने से अन्त में खाट पर बैठकर पछताना पड़े, उसको पहले से ही नहीं करना चाहिये। शुक्राचार्य के सिवा दूसरा कोई भी मनुष्य ऐसा नहीं है, जो नीति का उल्लंघन नहीं करता; अतः जो बीत गया सो बीत गया, अब शेष कर्तव्य का विचार आप जैसे बुद्धिमान पुरुषों पर ही निर्भर है। नरेश्वर ! दुर्योधन ने पहले यदि पाण्डवों के प्रति यह अपाध किया है, तो आप इस कुल में बड़े-बूढ़े हैं; आपके द्वारा उसका मार्जन हो जाना चाहिये। नरश्रेष्ठ ! यदि आप उनको राजपद पर स्थापित कर देंगे तो संसार में आपका कलंक धुल जायगा और आप बुद्धिमान पुरुषों में माननीय हो जायेंगे। जो धीर पुरुषों के वचनों क परिणाम पर विचार करके उन्हें कार्यरूप में परिणत करता है, वह चिरकाल तक यश का भागी बना रहता है। कुशल विद्वानों के द्वारा भी उपदेश किया हुआ ज्ञान व्यर्थ ही है, यदि उससे कर्तव्य का ज्ञान न हुआ अथवा ज्ञान होने पर भी उसका अनुष्ठान न हुआ। जो विद्वान पापकरूप फल देनेवाले कर्मों का आरम्भ नहीं करता, वह बढ़ता है। किन्तु जो पूर्व में किये हुए पापों का विचार न करके उन्हीं का अनुसरण करता है, वह बुद्धिहीन मनुष् अगाध कीचड़ से भरे हुए नरक में गिराया जाता है। बुद्धिमान पुरुष मंत्रभेद के इन छः द्वारों को जाने, और धन को रक्षित करने की इच्छा से इन्हें सदा बन्द रखे---नशे का सेवन, निद्रा, आवश्यक बातों की जानकारी न रखना, अपने नेत्र, मुख आदि का विकार, दुष्ट मंत्रियों में विश्वास और मूर्ख दूत पर भी भरोसा रखना। राजन् ! जो इन द्वारों को जानकर सदा बन्द किये रखता है, वह अर्थ, धर्म और काम के सेवन में लगा रहकर शत्रुओं को भी वश में कर लेता है। बृहस्पति के समान मनुष्य भी शास्त्रज्ञान अथवा बृद्धों की सेवा बिना धर्म और अर्थ का ज्ञान नहीं प्राप्त कर सकते। समुद्र मे गिरी हुई वस्तु नष्ट हो जाती है;  सुनता नहीं उससे कही हुई बात नष्ट हो जाती है; अजितेन्द्रिय पुरुष का शास्त्रज्ञान औरराख में किया हुआ हवन भी नष्ट ही है। बुद्धिमान पुरुष बुद्धि से जाँचकर अपने अनुभव से  बारम्बार उनकी योग्यता का निश्चय करे; फिर दूसरों से सुनकर और एवं देखकर भलीभाँति विचारकर विद्वानों से मित्रता करे। विनयभाव अपयश का नाश करता है, पराक्रम अनर्थ को दूर करता है, क्षमा सदा ही क्रोध का नाश करती है और सदाचार कुलक्षण का अन्त करता है। राजन् ! नाना प्रकार की भोगसामग्री, माता, घर, स्वागत-सत्कार के ढ़ंग और भोजन तथा वस्त्र के द्वारा कुल की परीक्षा करें। देहाभिमान से रहित पुरुष के पास भी यदि न्याययुक्त पदार्थ स्वतः उपस्थित हो तो वह उसका विरोध नहीं करता, फिर कामासक्त मनुष्य के लिये कहना ही क्या है ? जो विद्वानों की सेवा करनेवाला, वैद्य, धार्मिक, देखने में सुन्दर, मित्रों से युक्त तथा मधुरभाषी हो, ऐसे सुहृद की सर्वथा रक्षा करनी चाहिये। अधम कुल में उत्पन्न हुआ हो या उत्तम कुल में---जो मर्यादा का उल्लंघन नहीं करता, धर्म की अपेक्षा रखता है, कोमल स्वभाववाला तथा सलज्ज है, वह सैकड़ों कुलीनों से बढ़कर है। जिन दो मनुष्यों का चित्त से चित्त, गुप्त रहस्य से गुप्त रहस्य और बुद्धि से बुद्धि मिल जाती है, उनकी मित्रता कभी नष्ट नहीं होती। मेधावी पुरुष को चाहिये कि दुर्बुद्धि एवं विचार शक्ति से हीन पुरुष का तृण से ढ़के हुए कुएँ की भाँति परित्याग कर दे; क्योंकि उसके साथ की हुई मित्रता नष्ट हो जाती है। विद्वान पुरुष को उचित है कि अभिमानी, मूर्ख, क्रोधी, साहसिक और धर्महीन पुरुषों के साथ मित्रता न करे। मित्र तो ऐसा होना चाहिये जो कृतज्ञ, उदार, दृढ़ अनुराग रखनेवाला, जितेन्द्रिय, मर्यादा के भीतर रहनेवाला और मैत्री का त्याग न करनेवाला हो। इन्द्रियों को सर्वथा रोक रखना तो मृत्यु से भी बढ़कर कठिन है; और उन्हें बिलकुल खुली छोड़ देने से देवताओं का भी नाश हो जाता है। सम्पूर्ण प्राणियों के प्रति कोमलता का भाव, गुणों में दोष न देखना, क्षमा, धैर्य और मित्रों का अपमान न करना---ये सब गुण आयु को बढ़ानेवाले हैं---ऐसा विद्वानलोग कहते हैं। जो अन्याय से नष्ट हुए धन को स्थिरबुद्धि का आश्रय ले अच्छी नीति से पुनः लौटा लाने की इच्छा रखता है, वह वीर पुरुषों का-सा आचरण करता है। जो आनेवाले दुःख को रोकने का उपाय जानता है, वर्तमानकालिक कर्तव्य के पालन में दृढ़-निश्चय रखनेवाला है और अतीतकाल में जो कर्तव्य शेष रह गया है, उसे भी जानता है, वह मनुष्य कभी अर्थ से हीन नहीं होता। मनुष्य मन, वाणी और कर्म से जिसका निरंतर सेवन करता है, वह कार्य उस मनुष्य को अपनी ओर खींच लेता है। इसलिये सदा कल्याणकारी कार्यों को ही करें। मांगलिक पदार्थों का स्पर्श, चित्तवृत्तियों का निरोध, शास्त्र का अभ्यास, उद्योगशीलता, सरलता और महापुरुषों के दर्शन---ये सब कल्याणकारी हैं। उद्योग में लगे रहना धन, लाभ और कल्याण का मूल है। इसलिये उद्योग न छोड़नेवाला मनुष्य महान् हो जाता है और अनन्त सुख का उपभोग करता है। तात ! समर्थ पुरुष के लिये सब जगह और सब समय में क्षमा के समान हितकारक और अत्यन्त श्रीसम्पन्न बनानेवाला उपाय दूसरा नहीं माना गया है। जो शक्तिहीन है, वह तो सब पर क्षमा करे ही; जो शक्तिमान है, वह भी धर्म के लिये क्षमा करे। तथा जिसकी दृष्टि में अर्थ और अनर्थ दोनो समान हैं, उसके लिये तो क्षमा सदा ही हितकारिणी होती है। जिस सुख का सेवन करते रहने पर भी मनुष्य धर्म और अर्थ से भ्रष्ट नहीं होता, उसका यथेष्ट सेवन करे; किन्तु मूढ़व्रत ( आसक्ति एवं अन्यायपूर्वक विषय सेवन ) न करें। जो दुःख से पीड़ित, प्रमादी, नास्तिक, आलसी, अजितेन्द्रिय हैं उनके यहाँ लक्ष्मी का वास नहीं होता। दुष्ट बुद्धिवाले लोग सरलता से युक्त और सरलता के ही कारण लज्जाशील मनुष्य को अशक्त बनाकर उसका तिरस्कार करते हैं। अत्यन्त श्रेष्ठ, अतिशय दानी, अति ही शूरवीर, अधिक व्रत नियमों का पालन करनेवाले और बुद्धि के घमण्ड में चूर रहनेवाले मनुष्य के पास लक्ष्मी भय के मारे नहीं जाती। राजलक्ष्मी न तो अत्यन्त गुणवानों के पास रहती है और न बहुत निर्गुणों के पास। यह न तो बहुत से गुणों को चाहती है और न गुणहीन के प्रति ही अनुराग रखती है। उन्मत्त गौ की भाँति यह लक्ष्मी कहीं-कहीं ही ठहरती है। वेदों का फल है अग्निहोत्र करना, शास्त्राध्ययन का फल है सुशीलता और सदाचार, स्त्री का फल है रतिसुख और संतान की प्राप्ति तथा धन का फल है दान और उपभोग। जो अधर्म के द्वारा कमाये हुए धन से परलोक-साधक यज्ञादि कर्म करता है, वह मरने के पश्चात् उसके फल को नहीं पाता; क्योंकि उसका धन बुरे रास्ते से आया होता है। घोर जंगल में, दुर्गम मार्ग में, कठिन आपत्ति के समय, घबराहट में और प्रहार के लिये शस्त्र उठे रहने पर भी मनोबल सम्पन्न पुरुष को भय नहीं होता। उद्योग, संयम, दक्षता, सावधानी, धैर्य, स्मृति और सोच-विचारकर कार्यारम्भ करना---  इन्हे उन्नति का मूल-मंत्र समझिये। तपस्वियों का बल है तप, वेदवेत्ताओं का बल है वेद, असाधुओं का बल है हिंसा और गुणवानों का बल है क्षमा। जल, मूल, दूध, घी, ब्राह्मण की इच्छापूर्ति, गुरु का वचन और औषध--- ये आठ व्रत के नाशक नहीं होते। जो अपने प्रतिकूल जान पड़े , उसे दूसरों के प्रति भी न करें। थोड़े में धर्म का यही स्वरूप है। इसके विपरीत जिसमें कामना से प्रवृति होती है---वह तो अधर्म है। अक्रोध से क्रोध को जीते, असाधु को सद्व्यवहार से वश में करे। धूर्त, आलसी, डरपोक, क्रोधी, पुरुषत्व के अभिमानी, चोर, कृतध्न और नास्तिक का विश्वास नहीं करना चाहिये। जो नित्य गुरुजनों को प्णाम करता है और वृद्ध पुरुषों की सेवा में लगा रहता है, उसकी कीर्ति, आयु, यश और बल---ये चारों बढ़ते हैं। जो धन अत्यन्त क्लेश उठाने से, धर्म का उ्लंघन करने से अथवा शत्रु के सामने सिर झुकाने से प्राप्त होता हो, उसमें आप मन न लगाइये। विद्याहीन मनुष्य, संतानोत्पत्ति रहित स्त्रीप्रसंग, आहार न पानेवाले प्रजा और बिना राजा के राज्यके लिये शोक करना चाहिये। अधिक राह चलना देहधारियों के लिये दुःखरूप बुढ़ापा है, बराबर पानी बहना पर्वतों का बुढ़ापा है, सम्भोग से वंचित रहना स्त्रियों के लिये बुढ़ापा है और वचन रूपी बाणों का आघात मन के लिये बुढ़ापा है। अभ्यास न करना वेदों का मल है, ब्राह्मणोचित नियमों का पालन न करना ब्राह्मण का मल है, बाह्लीक ( बलख बुखारा ) पृथ्वी का मल है तथा झूठ बोलना पुरुष का मल है, क्रीड़ा एवं हास-परिहास की उत्सुकता पतिव्रता स्त्री का मल है और पति के बिना परदेश में रहना स्त्रीमात्र का मल है। सोने का मल है चाँदी, चाँदी का मल है राँगा, राँगे का मल है सीसा और सीसे का मल है मल। सोकर नींद को जीतने का प्रयास न करें। कामोपभोग के द्वारा स्त्री को जीतने की इच्छा न रखें और अधिक पीकर मदिरा पीने की आदत को जीतन का प्रयास न करें। जिसका मित्र धन-दान के द्वारा वश में आ चुका है, शत्रु युद्ध में जीत लिये गये हैं और स्त्रियाँ खान-पान के द्वारा वशीभूत हो चुकी हैं, उसका जीवन सफल है। जिने पास हजार है, वे भी जीवित हैं, तथा जिनके पास सौ है वे भी जीवित है; अतः महाराज धृतराष्ट्र ! आप अधिक का लोभ छोड़ दीजिये, इससे भी किसी तरह जीवन रहेगा ही। इस पृथ्वी पर जो भी अन्न, सोना, पशु और स्त्रियाँ हैं, वे सब-के-सब एक पुुष के लिये भी पूरे नहीं हैं---ऐसा विचार करनेवाला मनुष्य मोह में नहीं पड़ता। राजन् ! मैं फिर कहता हूँ, यदि आपका अपने पुत्रों और पाण्डवों में समान भाव है तो उन सभी पुत्रों के साथ एक-सा वर्ताव कीजिये।

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