Wednesday 14 September 2016

उद्योग-पर्व---योगप्रधान ब्रह्मविद्या का प्रतिपादन

योगप्रधान ब्रह्मविद्या का प्रतिपादन
 सनत्सुजातीय---- ( पाँचवाँ अध्याय )
शोक, क्रोध, लोभ, काम, मान, अत्यन्त निद्रा, इर्ष्या, मोह, तृष्णा, कायरता, गुणों में दोष देखना और निन्दा करना---ये बारह महान् दोष मनुष्यों के प्राणनाशक हैं। एक-एक करके ये सभी दोष मनुष्यों को प्राप्त होते हैं, जिनसे आवेश में आकर मूढ़बुद्धि मानव पापकर्म करने लगता हैं। लोलुप, क्रूर, कठोरभाषी, कृपण, मन-ही-मन क्रोध करनेवाले और अधिक आत्मप्रशंसा करनेवाले---ये छः प्रकार के मनुष्य नश्चय ही क्रूर कर्म करनेवाले होते हैं। ये धन पाकर भी अच्छा वर्ताव नहीं करते हैं। सम्भोग में मन लगानेवाले, विषमता रखनेवाले, अत्यन्त अभिमानी, थोड़ा देकर बहुत डींग हाँकनेवाले, कृपण, दुर्बल होकर भी बहुत बड़ाई करनेवाले और स्त्रियों से सदा द्वेष रखनेवाले---ये सात प्रकार के मनुष्य ही पापी और क्रूर कहे गये हैं। धर्म, सत्य, तप, इन्द्रिय-संयम, डाह न करना, लज्जा, सहनशीलता, किसी के दोष न देखना, दान, शास्त्रज्ञान, धैर्य और क्षमा---ये बारह महान् व्रत हैं। जो इन बारह व्रतों से कभी च्युत नहीं होता, वह इस सम्पूर्ण पृथ्वी पर शासन कर सकता है। इसमें से तीन, दो या एक गुण से भी युक्त, वह संपूर्ण पृथ्वी पर शासन कर सकता है। इसमें से तीन, दो या एक गुण से युक्त है, उसका अपना कुछ भी नहीं होता---ऐसा समझना चाहिये ( अर्थात् उसकी किसी भी वस्तु में ममता नहीं होती )। इन्द्रियनिग्रह, त्याग और अप्रमाद---इसमें अमृत की स्थिति है। विद्वान पुरुषों को मद के वशीभूत नहीं होना चाहिये। सौहार्द के छः गुण है। सुहृद का प्रिय होने पर हर्षित होना और अप्रिय होने पर मन में कष्ट का अनुभव करना---वे दो गुण है। तीसरा गुण यह है कि अपना जो कुछ चिरसंचित धन है, उसे मित्र के माँगने पर दे डाले। मित्र के लिये अपाच्य वस्तु भी अवश्य देने योग्य हो जाती है। मित्र को धन देकर उसके यहाँ प्रत्युपकार पाने की कामना से निवास न करे।

No comments:

Post a Comment