Tuesday 13 September 2016

उद्योग-पर्व---ब्रह्मचर्य तथा ब्रह्म का निरुपण

ब्रह्मचर्य तथा ब्रह्म का निरुपण
 सनत्सुजातीय ( चौथा अध्याय )
धृतराष्ट्र ने कहा---आप जिस सर्वोत्तम और सर्वरूपा ब्रह्मसम्बन्धिनी विद्या का उपदेश कर रहे हैं, उसमें विषय भोगों की चर्चा बिलकुल नहीं है। सनतसुजात ने कहा---राजन् ! तुम जो मुझसे प्रश्न करते समय अत्यन्त हर्ष से फूल उठते हो, सो इस प्रकार जल्दबाजी करने से ब्रह्म की उपलब्धि नहीं होती।  इस संसार में रहकर जो संपू्र्ण कामनाओं को जीत लेते हैं और नाना प्रकार के द्वन्दों को सहन करते हैं, वे सत्वगुण में स्थित हो इस देह से आत्मा को पृथक् कर लेते हैं। यद्यपि माता-पिता---ये दोनो ही इस शरीर को जन्म देते हैं, तथापि गुरु के उपदेश से जो जन्म प्राप्त होता है, व परम पवित्र और अजर-अमर है। गुरु को माता-पिता ही समझना चाहिये तथा उनके किये हुये उपकार का स्मरण करके कभी उने द्रोह नहीं करना चाहिये। शिष्य को चाहिये कि वह गुरु को प्रणाम करे। बाहर-भीतर से पवित्र हो और प्रमाद छोड़कर स्वाधयाय में मन लगावे, अभिमान न करे, मन में क्रोध को स्थान न दे। अपने प्राण और धन लगाकर भी मन, वाणी तथा कर्म से आचार्य का प्रिय करे। गुरु के प्रति  शिष्य का जैसा श्रद्धा और सम्मानपूर्ण वर्ताव हो, वैसा ही गुरु की पत्नी और पुत्र के साथ भी होना चाहिये। आचार्य ने जो अपना उपकार किया, उसे ध्यान में रखकर तथा उससे जो प्रयोजन सिद्ध हुआ, उसका भी विार करके मन-ही-मन प्रसन्न होकर शिष्य आचार्य के प्रति जो ऐसा भाव रखता है कि ---'इन्होंने मुझे बड़ी उन्नत अवस्था में पहुँचा दिया' यह भी ब्रह्मचर्य का पाद है। आचार्य के उपकार का बदला चुकाये बिना अर्थात् गुरुदक्षिणा आदि के द्वारा उन्हें संतुष्ट किये बिना विद्वान शिष्य वहाँ से न जाय।  ऐेसे शिष्य को संपू्र्ण-दिशा विदिशाएँ उसके लिये सुख की वर्षा करती है।

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