परमात्मा का स्वरूप और
उनका योगीजनों के द्वारा साक्षात्कार
परमात्मा से प्रकृति उत्पन्न
हुई, प्रकृति से सलिल यानि महतत्व उत्पन्न हुआ, उसके भीतर आकाश में सूर्य और चन्द्रमा---ये
दो देवता आश्रित हैं।
जगत् को उत्पन्न करनेवाले
ब्रह्म का जो स्वयं
प्रकाश स्वरूप है, वही सदा सावधान रहकर इन दोनो देवताओं और पृथ्वी और आकाश को धारण
करता है। उन सनातन भगवान् का योगीजन साक्षात्कार करते हैं। दोनों देवताओं को, पृथ्वी
और आकाश को, संपूर्ण दिशाओं को तथा इस विश्व को वह शुद्ध ब्रह्म ही धारण करता है। उसी
से दिशाएँ प्रकट हुई हैं। उसी से सरिताएँ प्रवाहित होती हैं और उसी से बड़े-बड़े समुद्र
प्रकट हुए हैं।
स्वयं विनाशशील होने पर भी जिसका कर्म नष्ट नहीं होता, उस
देहरुपी रथ के मनरुपी चक्र में जुते हुए इन्द्रियरुपी घोड़े बुद्धिमान्, दिव्य एवं अजर
जीवात्मा को जिस परमात्मा की ओर ले जाते हैं, उन सनातन भगवान् का योगीजन
साक्षात्कार करते हैं। दस इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि---इन बारह का समुदाय जिनके भीतर
मौजूद है तथा जो परमात्मा से सुरक्षित है, उस अविद्या नामक नदी के विषयरूप मधुर जल
को देखने और पीनेवाले लोग इस संसार में भयंकर दुर्गति को प्राप्त होते हैं; उससे मुक्त
करनेवाले उस परमात्मा का योगीजन
साक्षात्कार करते हैं। परमात्मा ने समस्त प्राणियों के लिये उनके कर्मानुसार अन्न की
व्यवस्था कर रखी है। पूर्ण परमेश्वर से चराचर प्राणी उत्पन्न होते हैं, पूर्ण से ही
वे पूर्ण प्राणी चेष्टा करते हैं, फिर पूर्ण से ही पूर्ण ब्रह्म में उनका उपसंहार होता
है तथा अन्त में एकमात्र पूर्ण ब्रह्म ही शेष रहता है। उस पूर्ण ब्रह्म से वायु का
अविर्भाव हुआ है और उसी से उसकी स्थिति है। उसी से अग्नि और सोम की उत्पत्ति हुई है,
और उसी में इस प्राण का विस्तार हुआ है। जैसे साँप बिलों का आश्रय ले अपने को छिपाये
रखते हैं, उसी प्रकार कुछ दम्भी मनुष्य अपनी शिक्षा और व्यवहार की आड़ में गूढ़ पापों
को छिपाये रखते हैं। जैसे सब ओर जल से लबालब भरे बड़े जलाशय के प्राप्त होने पर जल के
लिये अन्यत्र जाने की आवश्यकता नहीं होती उसी प्रकार आत्मज्ञानी के लिये सम्पूर्ण वेदों
की जरुरत नहीं रह जाती।
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