ब्रह्मज्ञान में उपयोगी मौन, तप आदि के लक्षण तथा गुण-दोष
का निरूपण
सनत्सुजात ने कहा---तपस्या
के क्रोध आदि बारह दोष हैं तथा तेरह प्रकार के क्रूर मनुष्य होते हैं। काम, क्रोध,
लोभ, मोह, असंतोष, निर्दयता, असूया, अभिमान, शोक स्पृहा और निंदा---मनुष्य में रहनेवाले
ये बारह दोष सदा ही त्याग देेने योग्य हैं। अपनी बहुत बड़ाई करनेवाले, लोलुप, अहंकारी,
निरंतर क्रोधी, चंचल और आश्रितों की रक्षा नहीं करनेवाले---ये छः प्रकार के मनुष्य
पापी हैं। महान् संकट में पड़ने पर भी ये निडर होकर इन पापकर्मो का आचरण करते हैं। संभोग
में ही मन लगानेवाले, विषमता रखनेवाले, अत्यन्त मानी, दान देकर पश्चाताप करनेवाले,
अत्यन्त कृपण, अर्थ और काम की प्रशंसा करनेवाले तथा स्त्रियों के दोषी---ये सात और
पहले के छः, कुल तेरह प्रकार के मनुष्य नृशंस-वर्ग धर्म, सत्य, इन्द्रिय-निग्रह, तप,
मत्सरता का अभाव, लज्जा, सहनशीलता, किसी का दोष न देखना, यज्ञ करना, दान देना, धैर्य
और शास्त्रज्ञान---ये बारह व्रत हैं। धर्म, सत्य, इन्द्रिय-निग्रह, तप, मत्सरता
का अभाव, लज्जा, सहनशीलता, किसी का दोष न देखना, यज्ञ करना, दान देना, धैर्य और शास्त्रज्ञान---ये
बारह व्रत हैं।
जो इन बारह गुणों पर अपना प्रभुत्व रखता है, वह इस संपूर्ण
पृथ्वी के मनुष्यों को अपने अधीन कर सकता है। इनमें
से तीन, दो या एक गुण से जो भी युक्त है, उसके पास सभी तरह का धन है---ऐसा समझना चाहिये।
दम, त्याग और आत्मकल्याण में प्रमाद न करना---इन तीन गुणों में अमृत का वास है। दम
अठ्ठारह गुणोंवाला है। अठ्ठारह दोषों को त्याग देना ही अठ्ठारह गुण समझना चाहिये।कर्तव्य-अकर्तव्य
के बिषय में विपरीत धारणा, असत्यभाषण, गुणों में दोषदृष्टि, स्त्रीविषयक कामना, सदा
धनोत्पा्जन में ही लगे रहना, भोगेच्छा, क्रोध, शोक, तृष्णा, लोभ, चुगली करने की आदत,
डाह, हिंसा, संताप, चिंता, कर्तव्य की विस्मृति, अधिक बकवाद और अपने को बड़ा समझना---इन
दोषों से मुक्त है, उसी को सत्पुरुष कहते हैं। त्याग छः प्रकार के हैं---लक्ष्मी को
देखकर हर्षित न होना, यज्ञ-होमादि में तथा कुएँ, तालाब और बगीचे बनाने में पैसे खर्च
करना, सदा वैराग्य से युक्त रहकर काम का त्याग करना, किये
हुए कर्म सिद्ध न हो तो उसके लिये दुःख न करना, स्त्री-पुत्रादि से कभी याचना न करना
और सुयोग्य याचक के आ जाने परउसे दान करना। इन त्यागमय गुणों से मनुष्य अप्रमादी होता
है। उस अप्रमाद के भी आठ गुण बताये गये हैं---सत्य, ध्यान, समाधि, तर्क, वैराग्य, चोरी
न करना, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। ये आठ गुण त्याग और अप्रमाद दोनो के ही समझने चाहिये।पाँच
इन्द्रियाँ और छठा मन---इनकी अपने-अपने विषयों में जो भोगबुद्धि से प्रवृति होती है---छः
तो ये ही प्रमादविषयक दोष हैं और भूतकाल की चिंता तथा भविष्य की आशा---दो दोष ये हैं।
इन आठ दोषोंसे मुक्त पुरुष सुखी होता है। सत्य ही संपूर्ण लोक प्रतिष्ठित है। वे दम,
त्याग और अप्रमाद आदि गुण भी सत्यस्वरूप परमात्मा की प्राप्ति करानेवाले हैं, सत्य
में ही अमृत की प्रतिष्ठा है। दोषों को निवृत करके ही यहाँ तप और व्रत का आचरण करना
चाहिये---यह विधाता का बनाया हुआ नियम है। सत्य ही श्रेष्ठ पुरुषों का व्रत है। मनुष्य
को उपर्युक्त दोषों से रहित और गुणों से युक्त होना है। ऐसे पुरुष का विशुद्ध तप अत्यन्त
समृद्ध होता है। ज्ञान के तत्व को न जानकर भी कुछ लोग 'मैं विद्वान हूँ' ऐसा मानने
लगते हैं; फिर उनकी दान, अध्ययन और यज्ञादि कर्मों में लौकिक और परलौकिक फल के लोभ
से प्रवृति होती है। वास्तव में जो सत्यस्वरूप परमात्मा से च्युत हो ये हैं उन्हीं
वैसा संकल्प होता है। फिर सत्यरूप वेद से प्रामाण्य निश्चय करके ही उनके द्वारा यज्ञों
का विस्तार ( अनुष्ठान ) किया जाता है। किसी का यज्ञ मन से, किसी का वाणी से तथा किसी
का क्रिया के द्वारा संपादित होता है।
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