सनत्सुजात ऋषि का आगमन
सनत्सुजातीय ( पहला अध्याय )
धृतराष्ट्र बोले---विदुर ! यदि तुम्हारी वाणी से कुछ और
कहना शेष रह गया हो तो कहो; मुझे उसे सुनने की बड़ी इच्छा है। विदुर ने कहा---भरतवंशी
धृतराष्ट्र ! 'सनत्सुजात' नाम से विख्यात जो ब्रह्माजी के पुत्र परम प्राचीन सनातन
ऋषि हैं, उन्होंने एक बार कहा था---'मृत्यु है ही नहीं'। महाराज ! वे समस्त बुद्धिमानों
में श्रेष्ठ हैं, वे ही आपके हृदय में स्थित व्यक्त और अव्यक्त---सभी प्रकार के प्रश्नों
का उत्तर देंगे। धृतराष्ट्र ने कहा---विदुर ! क्या तुम उस तत्व को नहीं जानते, जिसे
अब पुनः सनातन ऋषि मुझे बतावेंगे ? धृतराष्ट्र
ने कहा---विदुर ! क्या तुम उस तत्व कोनहीं जानते, जिसे अब पुनः सनातन ऋषि मुझे बतावेंगे
? यदि तुम्हारी बुद्धि कुछ भी काम देती हो तो तुम्हीं मुझे उपदेश करो। विदुर बोले---राजन्
! मेरा जन्म शूद्रा स्त्री के गर्भ से हुआ है; अतः इसके अतिरिक्त कोई उपदेश देने का
मेरा अधिकार नहीं है। किन्तु कुमार सनत्सुजात की बुद्धि सनातन ब्रह्म को विषय करनेवाली
है, मैं उसे जानता हूँ। धृतराष्ट्र ने कहा---विदुर ! उस परम प्राचीन सनातन ऋषि का पता
मुझे बताओ। भला, इसी देह से यहाँ ही उनका समागम कैसे हो सकता है ? तदनन्तर विदुरजी
ने उत्तम व्रतवाले उन सनातन ऋषि का स्मरण किया। उन्होने भी यह जानकर कि विदुर मेरा
चिन्तन कर रहे हैं, प्रत्यक्ष दर्शन दिया। धृतराष्ट्र ने भी शास्त्रोक्त विधि से उनका
स्वागत किया। इसके बाद जब वे सुखपूर्वक बैठकर विश्राम करने लगे तो विदुर ने उनसे कहा---'भगवन्
! धृतराष्ट्र के हृदय में कुछ संशय खड़ा हुआ है, जिसका समाधान मेरे द्वारा कराना उचित
नहीं है। आप ही इस विषय का निरुपण करने के योग्य हैं। जिसे सुनकर ये नरेश सब दुःखों
से पार हो जायँ और लाभ-हानि, प्रिय-अप्रिय, लाभ-हानि, भय-अमर्ष, भूख-प्यास, चिंता-आलस्य,
काम-क्रोध तथा उन्नति-अवनति---ये सब इन्हें कष्ट न पहुँचा सके।
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