विदुर नीति ( आठवाँ अध्याय )
विदुरजी कहते हैं---जो
सज्जन पुरुषों से आदर पाकर आसक्तिरहित हो अपनी शक्ति के अनुसार अर्थ-साधन करता रहता
है, उस श्रेष्ठ व्यक्ति को शीघ्र ही सुयश की प्राप्ति होती है; क्यंकि संत जिसपर प्रसन्न
होते हैं, वह सदा सुखी रहता है।पुरुषों से आदर पाकर आसक्तिरहित हो अपनी शक्ति के अनुसार
अर्थ-साधन करता रहता है, उस श्रेष्ठ व्यक्ति को शीघ्र ही सुयश की प्राप्ति होती है;
क्यंकि संत जिसपर प्रसन्न होते हैं, वह सदा सुखी रहता है। पुरुषों से आदर पाकर आसक्तिरहित
हो अपनी शक्ति के अनुसार अर्थ-साधन करता रहता है, उस श्रेष्ठ व्यक्ति को शीघ्र ही सुयश
की प्राप्ति होती है; क्यंकि संत जिसपर प्रसन्न होते हैं, वह सदा सुखी रहता है। झूठ
बोलकर उन्नति करना, राजा के पास तक चुगली करना, गुरु से भी मिथ्या आग्रह करना---ये
तीन कार्य ब्रह्महत्या के समान है। गुणों में दोष देखना एकदम मृत्यु के समान है, कठोर
बोलना या निंदा करना लक्ष्मी का वध है। सुनने की इच्छा का अभाव या सेवा का अभाव, उतावलापन
या आत्मप्रशंसा---ये तीन विद्या के शत्रु हैं। आलस्य, मद, मोह, चंचलता, गोष्ठी, उद्दण्डता,
अभिमान और लोभ---ये सात विद्यार्थियों के लिये सदा ही दोष माने गये हैं। सुख चाहनेवाले को विद्या
कहाँ से मिले ? विद्या चाहनेवाले के लिये सुख नहीं है। सुख की चाह हो तो विद्या छोड़े
और विद्या चाहे तो सुख का त्याग करे। ईंधन से आग की, नदी से समुद्र की, समस्त प्राणियों
से मृत्यु की और पुरुषों से कुलटा स्त्रियों की कभी तृप्ति नहीं होती। आशा धैर्य को,
यमराज समृद्धि को क्ोध लक्ष्मी को, कृपणता यश को और सार-संभाल का अभाव पशुओं को नष्ट
कर देता है। कामना से, भय से, लोभ से तथा इस जीवन के लिये कभी धर्म का त्याग न करें।
धर्म नित्य है, किन्तु दुःख-सुख अनित्य है; जीव नित्य है, पर इसका कारण ( अविद्या
) अनित्य है। संतोष ही सबसे बड़ा लाभ है। धन-धान्यादि से परिपूर्ण पृथ्वी का शासन करके
अन्त में समस्त राज्यों और विपुल भोगों को यहीं छोड़कर यमराज के वश में गये हुये बड़े-बड़े
बलवान् एवं महानुभाव राजाओं की ओर दृष्टि डालिये। राजन् ! जिसको बड़े कष्ट से पाला-पोसा
था, वही पुत्र जब मर जाता है तो मनुष्य उठाकर तुरत घर से बाहर कर देते हैं। पहले तो
उसके लिये बाल छितराये करुण स्वर में विलाप करते हैं, फिर साधारण काठ की भाँति उसे
जलती चिता मे झोंक देते हैं, फिर उसके शरीर की धातुओं को पक्षी खाते हैं या आग जलाती
है। यह मनुष्य पुण्य-पाप से बँधा हुआ इन्हीं दोनो के साथ परलोक में गमन करता है। तात
! बिना फल-फूल के वृक्ष को जैसे पक्षी छोड़ देते हैं, उस प्रकार उस प्रेत को उसके जातिवाले,
सुहृद और पुत्र चिता में छोड़कर लौट आते हैं। अग्नि में डाले हुए उस पुरुष के पीछे तो
केवल उसके द्वारा अपना किया हुआ भला या बुरा कर्म ही जाता है। इसलिये मनुष्य को चाहिये
कि वह धीरे-धीरे प्रयत्नपूर्वक धर्म का ही संग्रह करे। इसलोक और परलोक से ऊपर और नीचे
तक सर्वत्र अज्ञानरूप महान् अंधकार फैला हुआ है; वह इन्द्रियों को महान् मोह में डालनेवाला
है। राजन् ! आप इसको जान लीजिये, जिससे वह आपका स्पर्श न कर सके। मेरी यह बात को सुनकर
यदि आप सब ठीक-ठीक समझ सकेंगे तो इस मनुष्यलोक में आपको महान् यश प्राप्त होगा और इहलोक
तथा परलोक में आपके लिये भय नहीं रहेगा। यह जीवात्मा एक नदी है। इसमें पुण्य ही तीर्थ
है, सत्यस्वरूप परमात्मा से इसका उद्यम हुआ है, धैर्य ही इसके किनारे है, इसमें दया
की लहरें उठती हैं, पुण्यकर्म करनेवाला मनुष्य इसमें स्नान करके पवित्र होता है, क्योंकि
लोभरहित आत्मा सदा पवित्र ही है। काम-क्रोधादिरूप ग्राह से भरी, पाँच इन्द्रियों के
जल से पूर्ण इस संसार नदी के जन्म-मरण रूप दुर्गम प्रवाह को धैर्य की नौका बनाकर पार
कीजिये। जो बुद्धि, धर्म, विद्या और अवस्था में बड़े अपने बन्धु को आदर सत्कार
से प्रसन्न करके उससे कर्तव्य-अकर्तव्य के विषय में प्रश्न करता है, वह कभी मोह में
नहीं पड़ता। शिश्र और उदर की धैर्य से रक्षा करें, अर्थात् कामवेग और भूख की ज्वाला
को धैर्यपूर्वक सहें। इसी प्रकार हाथ-पैर की नेत्रों से, नेत्र और कानों की मन से तथा
मन और वाणी की सत्कर्मों से रक्षा करें। जो प्रतिदिन जल से स्नान, संध्या-तर्पण आदि
करता है, नित्य स्वाध्याय करता है, पतितों का अन्न त्याग देता है, सत्य बोलता और गुरु
की सेवा करता है, वह कभी ब्रह्मलोक से भ्रष्ट नहीं होता। शास्त्रों का अध्ययन करके,
आश्रितजनों को समय-समय पर धन देकर उनकी सहायता करे और यज्ञों द्वारा तीनों अग्नियों
की पवित्र धूम का सुगन्ध लेता रहे तो वह मरने के पश्चात् स्वर्गलोक में दिव्य सुख भोगता
है। महाराज ! इन बातों के बताने का कारण सुनिये। आपके कारण पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर क्षत्रियधर्म
से च्युत हो रहे हैं, अतः आप उन्हें पुनः राजधर्म में नियुक्त कीजिये। धृतराष्ट्र ने
कहा---विदुर ! तुम प्रतिदिन मुझे जिस प्रकार उपदेश दिया करते हो, वह बहुत ठीक है। सौम्य
! तुम मुझसे जो कुछ भी कहते हो, ऐसा ही मेरा भी विचार है। यद्यपि मैं पाण्डवों के प्रति
सदा ऐसी ही बुद्धि रखता हूँ, तथापि दुर्योधन से मिलने पर फिर बुद्धि पलट जाती है। प्रारब्ध
का उल्लंघन करने की शक्ति किसी भी प्राणी में नहीं है।मैं तो प्रारब्ध को ही अचल मानता
हूँ, उसके सामने पुरुषार्थ तो व्यर्थ है।
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