Sunday 11 September 2016

उद्योग-पर्व---सनत्सुजातजी के द्वारा धृतराष्ट्र के प्रश्नों के उत्तर सनत्सुजातीय ( दूसरा अध्याय )

सनत्सुजातजी के द्वारा धृतराष्ट्र के प्रश्नों के उत्तर

सनत्सुजातीय ( दूसरा अध्याय )
तदनन्तर  बुद्धिमान धृतराष्ट्र ने पूछा---सनत्सुजातजी ! मैं यह सुना करता हूँ कि 'मृत्यु है ही नहीं' ऐसा आपका सिद्धान्त है। सुना है कि देवता और असुरों ने मृत्यु से बचने के लिये ब्रह्मचर्य का पालन किया था। इन दोनो में कौन सी बात ठीक है ? सनत्सुजात ने कहा---राजन् ! तुमने जो प्रश्न किया है, उसमें दो पक्ष है। मृत्यु है और वह कर्म से दूर होती है---एक पक्ष; और 'मृत्यु है ही नहीं'---यह दूसरा पक्ष। परन्तु वस्तव में यह बात जैसी है, वह मैं तुम्हें बताता हूँ; ध्यान से सुनो और मेरे कथन में संदेह न करना। कुछ विद्वानों ने मोहवश इस मृत्यु की सत्ता स्वीकार की है। किन्तु मेरा कहना तो यह है कि प्रमाद ही मृत्यु है और अप्रमाद अमृत है। प्रमाद के ही कारण आसुरी सम्पतिवाले मनुष्य मृत्यु से पराजित हुए और अप्रमाद से ही दैवी सम्पत्तिवाले महात्मा पुरुष दैवी सम्पत्तिवाले महात्मा पुरुष ब्रह्म्वरूप हो जाते हैं। यह निश्चय है कि मृत्यु व्याघ्र के समान प्राणियों का भक्षण नहीं करती; क्योंकि उसका कोई रूप देखने में नहीं आता। यमदेवता पुण्यकर्म करनेवाले के लिये सुखदायक और पापियों के लिये भयंकर हैं। इन यम की आज्ञा से ही क्रोध, प्रमाद और लोभरूपी मृत्यु मनुष्यों के विनाश में प्रवृत होती है। अहंकार के वशीभूत होकर विपरीत मार्ग चलता हुआ कोई भी मनुष्य आत्मा का साक्षात्कार नहीं कर पाता। मनुष्य मोहवश अहंकार के अधीन हो इस लोक से जाकर पुनः-पुनः जन्म-मरण के चक्कर में पड़ते हैं। मरने के बाद उनके मन, इन्द्रिय और प्राण भी साथ जाते हैं। शरीर से प्राणरूपी इन्द्रियों का वियोग होने के कारण मृत्यु 'मरण' संज्ञा को प्राप्त होती है। प्रारब्ध कर्म का उदय होने पर कर्म के फल में आसक्ति रखनेवाले लोग स्वर्गादि लोकों का अनुगमन करते हैं, इसलिये वे मृत्यु को पार नहीं कर पाते। देहाभिमानी जीव परमात्म साक्षात्कार के उपाय को न जानने के कारण भोग की वासना से सब ओर नाना प्रकार की योनियों में भटकता रहता है। इस प्रकार जो विषयों की ओर झुकाव है, वह अवश्य ही इन्द्रियों को महान् मोह में डालनेवाला है; और इन झूठे विषयों में राग रखनेवाले मनुष्य को उनकी ओर प्रवृति होनी स्वाभाविक है। मिथ्या भोगों में आसक्ति होने से जिसके अन्तःकरण की ज्ञानशक्ति नष्ट हो गयी है, वह सब ओर विषयों का ही करता हुआ मन-ही-मन उनका आस्वादन करता है। पहले तो विषयों का चिंतन ही लोगों को मारे डालता है, इसके बाद वह काम और क्रोध को साथ लेकर पुनः जल्दी ही प्रहार करता है। इस प्रकार ये विषय चिंतन, काम और क्रोध ही विवेकहीन मनुष्यों को मृत्यु के निकट पहुँचाते हैं। परन्तु जो स्थिरबुद्धिवाले पुरुष हैं, वे धैर्य से मृत्यु के पार हो जाते हैं। अतः जो मृत्यु को जीतने की इच्छा रखता है, उसे चाहिये कि विषयों के स्वरूप का विचार करके उन्हें कुछ मानकर कुछ भी न गिनते हुए उनकी कामनाओं को उत्पन्न होते ही नष्ट कर डाले। इस प्रकार जो विद्वान विषयों की इच्छा मिटा देता है, वह जन्म मरण से मुक्त हो जाता है। कामनाओं के पीछे चलनेवाला मनुष्य कामनाओं के साथ नष्ट हो जाता है और कामनाओं का त्याग कर देने पर जो कुछ भी दुःखरूप रजोगुण है, उस सबको वह नष्ट कर देता है। यह काम ही समस्त प्राणियों के लिये मोहक होने के कारण तमोगुण और अज्ञानरूप है तथा नरक के समान दुःखदायी देखा जाता है। जिसके चित्त की वृत्तियाँ कामनाओं से मोहित नहीं हुई हैं, उस ज्ञानी पुरुष का इस लोक में मृत्यु कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती। इसलिये राजन् ! इस काम की आयु ( सत्ता ) नष्ट करने की इच्छा दूसरे किसी भी विषयभोग को कुछ भी न गिनकर उसका चिन्तन त्याग देना चाहिये। राजन् ! यह जो तुम्हारे भीतर की अन्तरात्मा है, मोह के वशीभूत होकर यही क्रोध, लोभ और मृत्युरूप हो जाता है। इस प्रकार मोह से होनेवाले मृत्यु को जानकर जो ज्ञाननिष्ठ हो जाता है, वह इस लोक में मृत्यु से कभी नहीं डरता। धृतराष्ट्र बोले---इस जगत् में कुछ लोग ऐसे हैं, जो धर्म का आचरण नहीं करते तथा कुछ लोग उसका आचरण करते हैं। अतः मैं पूछता हूँ कि धर्म पाप के द्वारा नष्ट होता है या धर्म ही पाप को नष्ट कर देता है ? सनत्सुजात ने कहा---राजन् ! धर्म और पाप दोनो के दो प्रकार के फल होते हैं और उन दोनो का ही उपभोग करना पड़ता है। परमात्मा में स्थित होने पर विद्वान पुरुष उस नित्य मनुष्य के ज्ञान द्वारा अपने पूर्वकृत पाप और पुण्य दोनो का सदा के लिये नाश कर देता है। यदि ऐसी स्थिति नहीं हुई तो देहाभिमानी पुरुष कभी कभी पुणयफल को प्राप्त करता है और कभी क्रमशः प्राप्त हुए पूर्वोपार्जित पाप के फल का अनुभव करता है। इस प्रकार पुण्य और पाप के जो स्वर्ग-नरक रूप दो अस्थिर फल हैं, उनका भोग करके वह इस जगत् में जन्म ले पुनः तदनुसार कर्मों में लग जाता है। किन्तु कर्मों के तत्व को जाननेवाला निष्काम मनुष्य धर्मरूप कर्म के द्वारा अपने पूर्व पाप का यहाँ ही नाश कर देता है। इस प्रकार धर्म ही अत्यन्त बलवान् है; इसलिये धर्माचरण करनेवालों को समयानुसार अवश्य सि्धि प्राप्त होती है। धृतराष्ट्र बोले--पुण्यकर्म करनेवाले को अपने-अपने धर्म के फलस्वरूप जिन सनातन लोकों की प्राप्ति बतायी गयी है, उनका क्रम बताइये। सनत्सुजात ने कहा---जैसे बलवान् पहलवानों में अपना बल बढ़ाने के निमित्त एक-दूसरे से लाग-डाँट रहती है, उसी प्रकार जो निष्कामभाव से यम-नियमादि के पालन में दूसरों से बढ़ने का प्रयास करते हैं, वे यहाँ से मरने के बाद ब्रह्मलोक में अपने तेज का प्रकाश फैलाते हैं। जो दूसरों का सम्मान पाकर भी अभिमान न करे और सम्माननीय पुरुष को देखकर जले नहीं, तथा प्रयत्न न करने पर भी विद्वानलोग जिसे आदर दें, वही वास्तव में सम्मानित है। इस संसार में जो अधर्म में निपुण, छल-कपट में चतुर और माननीय पुरुषों का अपमान करनेवाले मूढ़ मनुष्य हैं, वे आदरणीय व्यक्तियों का कभी आदर नहीं करेंगे। ये निश्चित है कि मान और मौन सदा एक साथ नहीं रहते; क्योंकि मान से इस लोक में सुख मिलता है और मौन से परलोक में।

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