दुर्योधन का वक्तव्य और संजय द्वारा अर्जुन के रथ का वर्णन
यह सब सुनकर दुर्योधन ने
कहा---महाराज ! आप डरें नहीं। हमारे विषय में कोई चिन्ता करने की भी आवश्यकता नहीं
है। हम काफी शक्तिमान हैं और शत्रुओं को संग्राम में परास्त कर सकते हैं। जिस समय इन्द्रप्रस्थ
से थोड़ी ही दूरी पर वनवासी पाण्डवों के पास बड़ी भारी सेना के साथ श्रीकृष्ण आये थे
तथा केकयराज, धृष्टकेतू, धृष्टधुम्न और पाण्डवों के साथी अन्यान्य महारथी एकत्रित हुए
थे तो इन सभी ने आपकी और सब कौरवों की बड़ी निंदा की थी। वे
लोग कुटुम्ब-सहित आपका नाश करने पर तुले हुए थे तथा पाण्डवों को अपना राज्य लौटा लेने
की ही सम्मति देते थे। जब यह बात मेरे कानों में पड़ी तो बन्धुओं के विनाश की आशंका
से मैने भीष्म,
द्रोण और कृप को भी इसकी सूचना दी। उस समय मुझे यही दीखता था कि अब पाण्डवलोग ही राजसिंहासन पर बैठेंगे। मैने उनसे कहा कि 'श्रीकृष्ण तो हम सबका सर्वथा उच्छेद करके युधिष्ठिर को ही कौरवों का एकच्छत्र राजा बनाना चाहते हैं। ऐसी
स्थिति में बतलाइये, हम क्या करें---उनके आगे सिर झुका दें ? डरकर भाग जायें ? अथवा
प्राणों का मोह छोड़कर युद्ध में जूझें ? युधिष्ठिर के साथ युद्ध करने में तो निश्चित
रूप से हमारी ही पराजय होगी; क्योंकि सब राजा उन्हीं के पक्ष में हैं। हमलोगों से तो
देश भी प्रसन्न नहीं है, मित्रलोग भी रूठे हुए हैं तथा सब राजा और घर के लोग भी खरी-खोटी
सुनाते हैं।' मेरी
यह बात सुनकर द्रोणाचार्य, भीष्म, कृपाचार्य और अश्त्थामा ने कहा था---'राजन् ! तुम
डरो मत। जिस समय हमलोग युद्ध में खड़े होंगे, शत्रु हमें जीत नहीं सकेंगे। हममें से
प्रत्येक अकेला ही सारे राजाओं कोजीत सकता है। आवें तो सही हम अपने पैने बाणों से उनका
गर्व ठण्डा कर देंगे।' उस समय महातेजस्वी द्रोणाचार्य आदि का ऐसा
ही निश्चय हुआ था। पहले तो सारी पृथ्वी हमारे शत्रुओं के ही अधीन थी, परन्तु अब वह
सब-की-सब हमारे हाथ में है। इसके सिवा यहाँ जो राजालोग
इकट्ठे हुए हैं, वे भी हमारे सुख-दुःख को अपना ही समझते हैं। समय पड़ने पर ये मेरे लिये
आग में भी प्रवेश कर सकते हैं और समुद्र में भी कूद सकते हैं---यह आप निश्चय मानें।
आप
शत्रुओं के विषय में बढ़-बढ़कर बातें सुनने से विलाप करने लगे और
दुःखी होकर पागल से हो गये---यह सब देखकर ये सब राजा आपकी हँसी कर रहे हैं।
इनमें
से प्रत्येक राजा अपने को पाण्डवों का सामना करने में समर्थ समझता है। इसलिे आपको जिस
भय ने दबा लिया है, उसे दूर कीजिये। महाराज ! अब युधिष्ठिर भी मेरे प्रभाव से ऐसे डर
गये हैं कि नगर न माँगकर केवल पाँच गाँव माँगने लगे हैं।आप जो कुन्तीपुत्र भीम को बड़ा
बली समझते हैं, यह भी आपका भ्रम ही है। आपको अभी मेरे प्रभाव का पूरा-पूरा पता नहीं
है।इस पृथ्वी पर गदायुद्ध में कोई भी नहीं है, न कोई पहले था और न आगे ही होगा। जिस
समय रणभूमि में भीम के ऊपर मेरी गदा गिरेगी, उस समय उसके सारे अंग चूर-चूर हो जायेंगे
और वह धरती पर जा पड़ेगा। इसलिये इस महान् युद्ध में आप भीमसेन का भय न करें।
आप
उदास न हों, उसे तो मैं अवश्य मार डालूँगा। इसके सिवा भीष्म, द्रोण,
कृप, अश्त्थामा, कर्ण, भूरिश्रवा, शल्य और जयद्रथ---इनमें से प्रत्येक वीर पाण्डवों
को मारने में समर्थ हैं। फिर जिस समय ये सब मिलकर उनपर आक्रमण करेंगे,
तब तो एक क्षण में ही उन्हें यमराज के घर भेज देंगे। गंगादेवी के गर्भ से उत्पन्न
हुए ब्रह्मर्षिकल्प पितामह भीष्म के पराक्रम को तो देवता भी नहीं सह सकते। इसके सिवा उन्हें मारनेवाला
भी संसार में कोई नहीं है; क्योंकि उनके पिता शान्तनु ने उन्हें प्रसन्न होकर यह वर
दिया था, 'अपनी इच्छा बिना तुम नहीं मरोगे।' दूसरे वीर भरद्वाजपुत्र
द्रोण हैं। उनके पुत्र अश्त्थामा भी शस्त्रास्त्र में पारंगत हैं। आचार्य कृप को भी
कोई मार नहीं सकता। ये सब महारथी देवताओं के समान बलवान् हैं।
अर्जुन तो इनमें से किसी
की ओर आँख भी नहीं उठा सकता। मैं तो कर्ण को भी भीष्म, द्रोण और कृपाचार् के समान ही
समझता हूँ। संशप्तक क्षत्रियों का दल ऐसा ही पराक्रमी है। अतः
उसके वध के लिये मैने ही उन्हें नियुक्त कर दिया है। राजन् ! आप व्यर्थ ही पाण्डवों
से इतना क्यों डरते हैं ? बताइये तो, भीमसेन के मारे जाने पर फिर हमसे युद्ध करनेवाला
उनमें कौन है ?
यदि आपको कोई दीखता हो तो मुझे बताइये। शत्रुओं की सेना
के तो पाँचों भाई पाण्डव तथा धृष्टधुम्न और सात्यकि---ये सात ही वीर प्रधान बल हैं। किन्तु
हमारी ओर भीष्म, द्रोण, कृप, अश्त्थामा, कर्ण, सोमदत्त, बाह्लिक, प्राग्ज्योतिषप्रदेश
के राजा शल्य, अवन्तिराज विन्द और अनुविन्द, जयद्रथ, दुःशासन, दुःसह, श्रुतायु, चित्रसेन,
पुरुमित्र,विविंशति, शल, भूरिश्रवा और विकर्ण---ये बड़े-बड़े वीर हैं तथा ग्यारह
अक्षौहिणी सेना है। फिर हमारी हार कैसे होगी ? अतः इन सब बातों से आप मेरी सेना की सबलता और पाण्डवों की सेना की दुर्बलता समझकर घबरायें नहीं। ऐसा
कहकर राजा दुर्योधन ने समय पर प्राप्त हुए कार्य को जानने की इच्छा से संजय से फिर
पूछा---संजय ! तुम पाण्डवों की बड़ी प्रशंसा कर रहे हो। भला यह बताओ कि अर्जुन के रथ
में कैसे घोड़े और कैसी ध्वाजाएँ हैं ? संजय ने कहा---राजन् !
उस रथ की ध्वजा में देवताओं ने माया से अनेक प्रकार की छोटी-बड़ी दिव्य और बहुमूल्य
मूर्तियाँ बनायी हैं। पवननन्दन हनुमानजी ने उसपर अपनी मूर्ति स्थापित की है और वह ध्वजा
सब ओर एक योजन तक फैली हुई है। विधाता की ऐसी माया है कि वृक्षादि के कारण इसकी गति
में कोई बाधा नहीं आती। अर्जुन के रथ में चित्ररथ गन्धर्व के दिये हुये वायु के समान
वेगवाले सफेद रंग के उत्तम जाति के घोड़े जुते हुए हैं। उनकी गति पृथ्वी, आकाश और स्वर्गादि
किसी भी स्थान में नहीं रुकती तथा उनमें से यदि कोई मर जाता है तो वर के प्रभाव से
उसकी जगह नया घोड़ा उत्पन्न होकर उनकी सौ संख्या में कभी कमी नहीं आती।
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