Tuesday 4 October 2016

उद्योग-पर्व--संजय से पाण्डवपक्ष के वीरों का विवरण सुनकर धृतराष्ट्र का युद्ध न करने की सम्मति देना, दुर्योधन का उससे असहमत होना तथा संजय का राजा धृतराष्ट्र को श्रीकृष्ण का संदेश सुनाना-

संजय से पाण्डवपक्ष के वीरों का विवरण सुनकर धृतराष्ट्र का युद्ध न करने की सम्मति देना, दुर्योधन का उससे असहमत होना तथा संजय का राजा धृतराष्ट्र को श्रीकृष्ण का संदेश सुनाना
धृतराष्ट्र ने पूछा---संजय ! जो पाण्डवों के लिये मेरे पुत्र की सेना से युद्ध करेंगे, ऐसे किन-किन वीरों को तुमने युधिष्ठिर की प्रसन्नता के लिये वहाँ आये हुये देखा था ?  संजय ने कहा--- मैने अंधक और वृष्णिवंशीय यादवों में प्रधान श्रीकृष्ण को तथा चेकितान के सात्यकि को वहाँ मौजूद देखा था। ये दोनो सुप्रसिद्ध महारथी अलग-अलग एक-एक अक्षौहिणी सेना लेकर और पांचालनरेश द्रुपद अपने दस पुत्र सत्यजित और धृष्टधुम्नादि के सहित एक अक्षौहिणी सेना लेकर आये हैं। महाराज विराट भी शंख और उत्तर नामक अपने पुत्र तथा सूर्यदत्त और मदिराक्ष इत्यादि वीरों के साथ एक अक्षौहिणी सेना लेकर युधिष्ठिर से मिले हैं।  इसके सिवा केकय देश के पाँच सहोदर राजा भी एक अक्षौहिणी सेना के साथ पाण्डवों के पास आये हैं। मैने यहाँ आये हुए केवल इतने ही राजा देखे हैं, जो पाण्डवों के लिये दुर्योधन का सामना करेंगे। राजन् ! संग्राम के लिये भीष्म शिखण्डी के हिस्से में रखे गये हैं। उसके पृष्ठपोषक रूप से मत्स्यदेशीय वीरों के साथ राजा विराट रहेंगे। मद्रराज शल्य युधिष्ठिर के जिम्मे हैं। अपने सौ भाई और पुत्रों के सहित दुर्योधन तथा पूर्व और दक्षिण दिशाओं के राजा भीमसेन के भाग हैं। कर्ण, अश्त्थामा, विकर्ण और सिन्धुराज जयद्रथ से लड़ने का काम अर्जुन को सौंपा गया है। इनके सिवा और भी जिन राजाओं के साथ दूसरों का युद्ध करना संभव नहीं है, उन्हे भी अर्जुन ने अपने ही हिस्से में रखा है। केकय देश के महान् धनुर्धर पाँच सहोदर राजपुत्र हैं, वे हमारे पक्ष के केकयवीरों के साथ ही युद्ध करेंगे। दुर्योधन और दुःशासन के सब पुत्र और राजा बृहद्वल सुभद्रानन्दन अभिमन्यु के भाग में रखे गये हैं। धृष्टधुम्न के नेतृत्व में द्रौपदी  के पुत्र आचार्य द्रोण का सामना करेंगे। सोमदत्त के साथ चेकितान का रथयुद्ध होगा और भोजवंशीय कृतवर्मा के साथ सात्यकि लड़ना चाहता है। माद्री के पुत्र महावीर सहदेव ने स्वयं ही आपके साले शकुनि को अपने हिस्से में रखा है तथा माद्रीनन्दन नकुल ने उलूक, कैतव्य और सारस्वतों के साथ युद्ध करने का निश्चय किया है। इनके सिवा इस महायुद्ध में और भी जो-जो राजा आपकी ओर से युद्ध करेंगे, उनके नाम ले-लेकर युद्ध करने के लिये पाण्डवों ने योद्धाओं को नियुक्त कर दिया है। राजन् ! मैं निश्चिन्त बैठा हुआ था। उस समय धृष्टधुम्न ने मुझसे कहा कि 'तुम शीघ्र ही यहाँ से जाओ और तनिक भी के पक्ष के वीर हैं उनसे, बाह्लिक, कुरु और प्रतीप के वंशधरों से तथा कृपाचार्य, कर्ण, द्रोण, अश्त्थामा, जयद्रथ, विकर्ण, राजा दुर्योधन और भीष्म से जाकर कहो कि तुम्हे महाराज युधिष्ठिर के साथ भलेपन से ही व्यवहार करना चाहिये। ऐसा न हो कि देवताओं से सुरक्षित अर्जुन तुम्हे मार डाले। तुम जल्दी ही धर्मराज को उनका राज्य सौंप दो; वे लोक में सुप्रसिद्ध वीर हैं, तुम उनसे क्षमा प्रार्थना करो। सव्यसाची अर्जुन जैसे पराक्रमी हैं, वैसा योद्धा इस पृथ्वीतल पर दूसरा नहीं है। गाण्डीवधारी अर्जुन के रथ की रक्षा देवतालोग करते हैं, कोई भी मनुष्य उन्हें नहीं जीत सकता; इसलिये तुम युद्ध के लिये मन मत चलाओ।
यह सुनकर राजा धृतराष्ट्र ने कहा---दुर्योधन ! तुम युद्ध का विचार छोड़ दो। महापुरुष युद्ध को तो किसी भी अवस्था में अच्छा नहीं बताते। इसलिये बेटा ! तुम पाण्डवो को उनका यथोचित भाग दे दो, तुम्हारे और तुम्हारे मंत्रियों के निर्वाह के लिये तो आधा राज्य ही बहुत है।  देखो, न तो मैं युद्ध करना चाहता हूँ, न बाह्लीक उसके पक्ष में है और न भीष्म, द्रोण, अश्त्थामा, संजय, सोमदत्त, शल या कृपाचार्य ही युद्ध करना चाहते हैं।  इनके सिवा सत्यव्रत, पुरुमित्र, जय और भूरिश्रवा भी युद्ध के पक्ष में नहीं हैं। मैं समझता हूँ तुम भी अपनी इच्छा से यह युद्ध नहीं कर रहे हो; बल्कि पापात्मा दुःशासन, कर्ण और शकुनि ही तुमसे यह काम करा रहे हैं।  इसपर दुर्योधन ने कहा---पिताजी ! मैने आप,द्रोण, अश्त्थामा, संजय, भीष्म, काम्बोजनरेश, कृप, सत्यव्रत पुरुमित्र, भूरिश्रवा अथवा आपके अनान्य योद्धाओं के भरोसे पाण्डवों को युद्ध के लिये आमंत्रित नहीं किया है। इस युद्ध में पाण्डवों का संहार तो मैं, कर्ण और भाई दुःशासन---हम तीन ही कर लेंगे। या तो पाण्डवों को मारकर मैं ही इस पृथ्वी का शासन करूँगा या पाण्डवलोग ही मुझे मारकर इसे भोगेंगे। मैं जीवन, राज्य और धन---ये सब तो छोड़ सकता हूँ; किन्तु पाण्डवों के साथ रहना मेरे वश की बात नहीं है। सूई के बारीक नोक से जितनी जमीन छिद सकती है, उतनी भी मैं पाण्डवों को नहीं दे सकता।धृतराष्ट्र ने कहा---बन्धुओं ! मुझे तुम सभी कौरवों के लिये बड़ा शोक है। दुर्योधन को तो मैने त्याग दिया; किन्तु जो लोग इस मूर्ख का अनुसरण करेंगे, वे भी अवश्य यमलोक में जायेंगे। जब पाण्डवों की मार से कौरवसेना व्याकुल हो जायगी, तब तुम्हें मेरी बात का स्मरण होगा। फिर संजय से कहा, संजय ! महात्मा श्रीकृष्ण और अर्जुन ने तुमसे जो-जो बातें कही हैं, वे सब मुझे सुनाओ; उन्हें सुनने की मेरी बड़ी इच्छा है।'संजय ने कहा---राजन् ! श्रीकृष्ण और अर्जुन को मैने जिस स्थिति में देखा था, वह सुनिये तथा उन वीरों ने जो कुछ कहा है, वह भी मैं आपको सुनाता हूँ। महाराज ! आपका संदेश सुनाने के लिये मैं अपने पैरों की अंगुलियों की ओर दृष्टि रखकर बड़ी सावधानी से हाथ जोड़े उनके अंतःपुर में गया। उस स्थान में अभिमन्यु और नकुल-सहदेव भी नहीं जा सकते थे। वहाँ पहुँचने पर मैने देखा कि श्रीकृष्ण अपने दोनो चरण अर्जुन की गोद में रखे हुए बैठे हैं तथा अर्जुन के चरण द्रौपदी और सत्यभामा की गोद में है। अर्जुन ने बैठने के लिये मुझे एक सोने का पादपीठ ( पैर रखने की चौकी ) दिया। मैं उसे हाथ से स्पर्श करके पृथ्वी पर बैठ गया।उन दोनो महापुरुषों को एक आसन पर बैठे देखकर मुझे बड़ा भय मालूम हुआ और मैं सचने लगा कि मन्दबुद्धि दुर्योधन कर्ण की बकवाद में आकर इन विष्णु और इन्द्र के समान वीरों के स्वरूप को कुछ नहीं समझता। उस समय मुझे तो यही निश्चय हुआ कि ये दोनो जिनकी आज्ञा में रहते हैं, उन धर्मराज युधिष्ठिर के मन का संकल्प ही पूरा होगा। वहाँ अन्न-पानादि से मेरा सत्कार किया गया। फिर आराम से बैठ जाने पर मैने हथ जोड़कर उन्हें आपका संदेश सुनाया। इसपर अर्जुन ने श्रीकृष्ण के चरणों में प्रणाम करके उसका उत्तर देने के लिये प्रार्थना की। तब भगवान् बैठ गये और आरम्भ में मधुर किन्तु परिणाम में कठोर शब्दों में मुझसे कहने लगे---"संजय ! बुद्धिमान धृतराष्ट्र भीष्म और आचार्य द्रोण से तुम हमारी ओर से यह संदेश कहना। तुम बड़ों को प्रणाम कहना तथा छोटों से कुशल पूछकर उन्हें कहना कि 'तुम्हारे सिर पर बड़ा संकट आ गया है; इसलिये तुम अनेक प्रकार के यज्ञों का अनुष्ठान करो, दान दो तथा स्त्री और पुरुषों के साथ कुछ दिन आनन्द भोग लो।'  देखो, अपना चीर खींचे जाते समय द्रौपदी ने जो 'हे गोविन्द' ऐसा कहकर कुछ द्वारकावासी को पुकारा था, उसका ऋण मेरे ऊपर बहुत बढ़ गया है; वह एक क्षण को भी मेरे हृदय से दूर नहीं होता। भला, जिसके साथ मैं हूँ उस अर्जुन से युद्ध करने की प्रार्थना ऐसा कौन मनुष्य कर सकता है, जिसे सिर पर काल न नाच रहा हो ? मुझे तो देवता, असुर, मनुष्य, यक्ष गन्धर्व और नागों में ऐसा कोई भी दिखायी नहीं देता जो रणभूमि में अर्जुन का सामना कर सके। विराटनगर में तो उसने अकेले ही सारे कौरवों में भगदड़ मा दी थी और इधर-उधर चंपत हो गये थे---यही इसका पर्याप्त प्रमाण है। बल, वीर्य, तेज, फुर्ती, काम की सफाई, अविवाद और धैर्य---ये सारे गुण अर्जुन के सिवा किसी एक व्यक्ति में नहीं मिलते।" इस प्रकार अर्जुन को उत्साहित करते हुए श्रीकृष्ण ने मेघ के समान गरजकर ये शब्द कहे थे।

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