Wednesday 26 October 2016

उद्योग-पर्व---श्रीकृष्ण के साथ भीमसेन, अर्जुन, नकुल, सात्यकि की बातचीत

श्रीकृष्ण के साथ भीमसेन, अर्जुन, नकुल, सात्यकि की बातचीत
भीमसेन ने कहा---मधुसूदन ! आप कौरवों से ऐसी ही बातें कहें, जिससे वे सन्धि करने के लिये तैयार हो जायँ; उन्हें युद्ध की बात सुनाकर भयभीत न करें। दुर्योधन बड़ा ही असहनशील, क्रोधी, अदूरदर्शी, निठुर, दूसरों की निंदा करनेवाला और हिंसाप्रिय है।वह मर जायगा परन्तु अपनी टेक नहीं छोड़ेगा। जिस प्रकार शरद् ऋतु के बाद ग्रीष्मकाल आने पर वन दावाग्नि से जल जाते है, वैसे ही दुर्योधन के क्रोध से एक दिन सभी भरतवंशी भष्म हो जायेंगे। केशव ! कलि, मुदावर्त, जन्मेजय, वसु, अजबिन्धु, रुषर्धिक, अर्कज, धौतमूलक, हयग्रीव, वरयु, बाहु, पुरूरवा, सहज, वृषध्वज, धारणम, विगाहन और शम---ये अठ्ठारह राजा ऐसे हुए हैं, जिन्होंने अपने ही सजातीय, सुहृद और बन्धु-बान्धवों का संहार कर डाला था। इस समय हम कुरुवंशियों के संहार का समय आया है, इसी से कालगति से यह कुलांगार पापात्मा दुर्योधन उत्पन्न हुआ है। अतः आप जो कुछ कहें, मधुर और कोमल वाणी में धर्म और अधर्म से युक्त उनके हित की ही बात कहें। साथ ही यह भी ध्यान रखें कि वह बात अधिकतर उसके मन के अनुकूल ही हो। हम सब तो दुर्योधन के नीचे रहकर बड़ी नम्रतापूर्वक उसका अनुसरण करने को भी तैयार हैं, हमारे कारण से भरतवंश का नाश न हो। आप कौरवों की सभा में जाकर हमारे वृद्ध पितामह और अन्याय सभासदों से ऐसा करने के लिये ही कहे, जिससे भाई-भाइयों में मेल बना रहे और दुर्योधन भी शान्त हो जाय। भीमसेन के मुख से कभी किसीने नम्रता की बातें नहीं सुनी थीं। अतः उनके ये वचन सुनकर श्रीकृष्ण हँस पड़े और फिर भीमसेन को उत्तेजित करते हुए इस प्रकार कहने लगे, 'भीमसेन ! तुम अन्यान्य समय तो इन क्रूर धृतराष्ट्रपुत्रों को कुचलने की इच्छा से युद्ध की ही प्रशंसा किया करते थे। तथा तुमने अपने भाइयों के बीच में गदा उठाकर यह प्रतिज्ञा भी की थी कि 'मैं यह बात सच-सच कह रहा हूँ, इसमें तनिक भी अन्तर नहीं आ सकता कि संग्रामभूमि में सामने आने पर इस गदा से ही मैं द्वेषदूषित दुर्योधन का वध कर डालूँगा।' किन्तु इस समय देखते हैं कि जिस समय युद्धकाल उपस्थित होने पर युद्ध के लिये उतावले अनेकों अन्य वीरों का उत्साह ढ़ीला पड़ जाता है, उसी प्रकार तुम भी युद्ध से भय मानने लगे हो। यह तो बड़े ही दुःख की बात है। इस समय तो नपुंसकों के समान तुम्हें तुम्हें भी अपने में कोई पुरुषार्थ दिखायी नहीं देता। यह तो बड़े ही दुःख की बात है। इस समय तो नपुंसकों के समान तुम्हें तुम्हें भी अपने में कोई पुरुषार्थ दिखायी नहीं देता।सो हे भरतनन्दन ! तुम अपने कुल, जन्म और कर्मों पर दृष्टि डालकर खड़े हो जाओ। व्यर्थ ही किसी प्रकार का विषाद मत करो और अपने क्षत्रियोचित कर्म पर डटे रहो। तुम्हारे चित्त में जो इस समय बन्धुवध के कारण युद्ध से ग्लानि का भाव उत्पन्न हुआ है, वह तुम्हारे योग्य नहीं है; क्योंकि क्षत्रिय जिसे पुरुषार्थ द्वारा प्राप्त नहीं करता, उस चीज को वह अपने काम में भी नहीं लाता। भीमसेन ने कहा---वासुदेव ! मैं तो कुछ और ही करना चाहता हूँ, किन्तु आप दूसरी ही बात समझ गये। मेरा बल और पुरुषार्थ अन्य पुरुषों के पराक्रम से कुछ भी समता नहीं रखता। अपने मुँह अपनी बड़ाई करना---यह सत्पुरुषों की दृष्टि में अच्छी बात नहीं है। परन्तु आपने मेरे पुरुषार्थ की निंदा की है, इसलिये मुझे अपने बल का वर्णन करना ही पड़ेगा।  पाण्डवों पर अत्याचार करने को उद्यत इन समस्त युद्धोत्सुक क्षत्रियों को मैं पृथ्वी पर गिराकर उनपर लात जमाकर जम जाऊँगा। मैने जिस प्रकार राजाओं को जीत-जीतकर अपने अधीन किया था, वह क्या आप भूल गये हैं ? यदि सारा संसार मुझपर कुपित होकर टूट पड़े तो भी मुझे भय नहीं होगा। मैने जो शान्ति की बातें कही हैं, वे तो केवल मेरा सौहार्द ही है; मैं दावश ही सब प्रकार के कष्ट सह लेता हूँ और इसी से चाहता हूँ कि भरतवंशियों का नाश न हो। श्रीकृष्ण ने कहा---भीमसेन ! मैने भी तुम्हारा भाव जानने के लिये प्रेम से ही ये बातें कही हैं, अपनी बुद्धिमानी दिखाने या क्रोध के कारण ऐसा नहीं कहा। मैं तुम्हारे प्रभाव और पराक्रम को अच्छी तरह जानता हूँ, इसलिये तुम्हारा तिरस्कार नहीं कर सकता। अब कल मैं धृतराष्ट्र के पास जाकर आपलोगों के स्वार्थ  की रक्षा करते हुए सन्धि का प्रयत्न करूँगा। यदि उन्होंने सन्धि कर ली तो मुझे तो चिरस्थायी सुयश मिलेगा, आपलोगों का काम हो जायगा और उनका बड़ा भारी उपकार होगा। और यदि उन्होंने अभिमानवश मेरी बात न मानी तो फिर युद्ध जैसा भयंकर कर्म करना ही होगा। भीमसेन ! इस युद्ध का सारा भार तुम्हारे ही ऊपर रहेगा या अर्जुन को इसकी धुरी धारण करनी पड़ेगी तथा और सब लोग तुम्हारी आज्ञा में रहेंगे।युद्ध हुआ तो मैं अर्जुन का सारथि बनूँगा। अर्जुन की भी ऐसी ही इच्छा है। इससे तुम यह न समझना कि मैं युद्ध करना नहीं चाहता। इसी से जब तुमने कायरता की-सी बात की तो मुझे तुम्हारे विचार पर संदेह हो गया और मैने ऐसी बातें कहकर तुम्हारे तेज को उभाड़ दिया।
प्रारब्ध को बदलना तो मेरे वश की बात भी नहीं है। दुरात्मा दुर्योधन तो धर्म और लोक दोनो को ही तिलांजलि देकर स्वेच्छाचारी हो गया है। ऐसे कर्मों से उस पश्चाताप भी नहीं होता। बल्कि उसके सलाहकार शकुनि, कर्ण और दुःशासन भी उसकी उस पापमयी कुमति को ही बढ़ावा देते रहते हैं। इसलिये आधा राज्य देकर उसे चैन नहीं पड़ेगा। उसका तो परिवारसहित नाश होने पर ही शान्ति होगी। और अर्जुन ! तुम्हें तो दुर्योधन  के मन और ममेरे विचार का भी पता है ही। फिर अनजान की तरह मुझसे शंका क्यों कर रहे हो ? पृथ्वी का भार उतारने के लिये देवतालोग पृथ्वी पर अवतीर्ण हुए हैं---इस दिव्य विधान को भी तुम जानते ही हो। फिर बताओ तो उनसे सन्धि कैसे हो सकती है ? फिर भी मुझे सब प्रकार धर्मराज की आज्ञा का पालन तो करना है ही।  अब नकुल ने कहा---माधव ! धर्मराज ने आपसे कई प्रकार की बातें कही हैं; वे सब आपने सुन ही ली हैं। भीमसेन ने भी सन्धि के लिये ही कहकर फिर आपको अपना बाहुबल भी सुना दिया है। इसी प्रकार अर्जुन ने जो कुछ कहा है, वह भी आप सुन ही चुके हैं तथा अपना विचार भी कई बार सुना चुके हैं। सो पुरुषोत्तम ! इन सब बातों को छोड़कर आप शत्रु का विचार जानकर जैसा करना उचित समझें, वही करें। श्रीकृष्ण ! हम देखते हैं कि वनवास और अज्ञातवास के समय हमारा विचार दूसरा था और अब दूसरा ही है। वन में रहते समय हमारा आधा राज्य पाने में इतना अनुराग नहीं था, जैसा अब है। आप कौरवों की सभा में जाकर पहले तो सन्धि की ही बात करें, पीछे युद्ध की धमकी दें और इस प्रकार बात करें जिससे मन्दबुद्धि दुर्योधन को व्यथा न हो। भला विचारिये तो ऐसा कौन पुरुष है जो संग्रामभूमि में महाराज युधिष्ठिर, अर्जुन, सहदेव, आप, बलरामजी, सात्यकि, विराट, उ्तर, द्रुपद, धृष्टधुम्न,, काशिराज, चेदिराज, धृष्टकेतू और मेरे सामने टिक सके। आपके कहने पर विदुर, भीष्म, द्रोण और बाह्लीक यह बात समझ सकेंगे कि कौरवों का हित किसमें है । और फिर वे राजा धृतराष्ट्र और सलाहकारों के सहित पापी दुर्योधन को समझा देंगे। इसके पश्चात् सहदेव ने कहा---महाराज ने जो बात कही है, वह तो सनातन धर्म ही है; किन्तु आप ऐसा प्रयत्न करें, जिससे युद्ध ही हो। यदि कौरवलोग सन्धि करना चाहें तो भी आप उनकेे साथ युद्ध होने का रास्ता ही निकालें। श्रीकृष्ण ! सभा में की हुई द्रौपदी की दुर्गति देखकर मुझे दु्योधन पर जो क्रोध हुआ था, वह उसके प्राण लिये बिना कैसे शान्त होगा ? सात्यकि ने कहा---महाबाहो ! महामति सहदेव ने बहुत ठीक कहा है। इनका और मेरा कोप तो दुर्योधन का वध होने पर ही शान्त होगा। वीरवर सहदेव ने जो बात कही है, वास्तव में वही ससब योद्धाओं का मत है। सात्यकि के ऐसा कहते ही वहाँ बैठे हुए सब योद्धा भयंकर सिंहनाद करने लगे। उन युद्धोत्सुक वीरों ने 'ठीक है, 'ठीक है ऐसा कहकर सात्यकि को हर्षित करते हुए सब प्रकार उन्हीं के मत का समर्थन किया।

No comments:

Post a Comment