Wednesday 19 October 2016

उद्योग-पर्व---कौरवों की सभा में दूत बनकर जाने के लिये श्रीकृष्ण और युधिष्ठिर का संवाद

कौरवों की सभा में दूत बनकर जाने के लिये श्रीकृष्ण और युधिष्ठिर का संवाद
इधर संजय के चले जाने पर राजा युधिष्ठिर ने यदुश्रेष्ठ भगवान् श्रीकृष्ण से कहा, 'मित्रवत्सल श्रीकृष्ण ! मुझे आपके सिवा और कोई ऐसा दिखायी देता, जो हमें आपत्ति से पार करे। आपके भरोसे ही हम बिलकुल निर्भय हैं और दुर्योधन से अपना भाग माँगना चाहते हैं।' श्रीकृष्ण ने कहा---राजन् ! मैं तो आपकी सेवा में उपस्थित ही हूँ; आप जो कुछ कहना चाहें, वह कहिये। आप जो-जो आज्ञा करेंगे, वह सब मैं पूर्ण करूँगा। युधिष्ठिर ने कहा---राजा धृतराष्ट्र और उनके पुत्र जो कुछ करना चाहते हैं, वह तो आपने सुन ही लिया। संजय ने हमसे जो कुछ कहा है, वह सब उन्हीं का मत है। क्योंकि दूत तो स्वामी के कथनानुसार ही कहा करता है, यदि वह कोई दूसरी बात कहता है तो प्राणदण्ड का अधिकारी समझा जाता है। राजा धृतराष्ट्र को राज्य का बड़ा लोभ है, इसी से वे हमारे और कौरवों के प्रति समानभाव न रखकर हमें राज्य दिये बिना ही सन्धि करना चाहते हैं। हम तो यही समझकर कि महाराज धृतराष्ट्र अपने वचन का पालन करेंगे, उनकी आज्ञा से बारह वर्ष वन में रहे और एक वर्ष अज्ञातवास किया। किन्तु इन्हें तो बड़ा लोभ जान पड़ता है। वे धर्म का कुछ भी विचार नहीं कर रहे हैं तथा अपने मूर्ख पुत्र के मोहपाश में फँसे होने के कारण उसी की आज्ञा बजाना चाहते हैं। हमारे साथ तो इनका बिलकुल बनावटी वर्ताव है।
जनार्दन ! जरा सोचिये तो, इससे बढ़कर दुःख की बात और क्या होगी कि मैं तो माताजी की ही सेवा कर सकता हूँ और अपने सम्बन्धियों का भरण-पोषण ही। यद्यपि काशीराज, चेदिराज, पांचालनेश, मत्स्यराज और आप मेरे सहायक हैं तो भी मैं केवल पाँच गाँव ही माँग रहा हूँ। मैने तो यही कहा है कि अविस्थल, वृकस्थल, माकन्दी, वारणावत और पाँचवाँ जो वे चाहें---ऐसे पाँच गाँव या नगर हमें दे दें, जिससे हम पाँचों भाई मिलकर रह सकें और हमारे कारण भरतवंश का नाश न हो। परन्तु दुष्ट दुर्योधन इतना भी करने तैयार नहीं है। वह सबपर अपना ही दखल रखना चाहता है। लोभ से बुद्धि मारी जाती है, बुद्धि नष्ट होने से लज्जा नहीं रहती, लज्जा के साथ ही धर्म चला जाता है और धर्म गया कि श्री भी विदा हो जाती है। श्रीहीन पुरुष से स्वजन, सुहृद और विद्वानलोग दूर रहने लगते हैं जैसे पुष्प-फलहीन वृक्ष को छोड़कर पक्षी उड़ जाते हैं। निर्धन अवस्था बड़ी ही दुःखमयी है। कोई-कोई तो इस अवस्था में पहुँचकर मौत ही माँगने लगते हैं। कोई किसी दूसरे गाँव या वन में जा बसते हैं और कोई मौत के मुख में ही चले जाते हैं। जो लोग जन्म से ही निर्धन हैं, उन्हें इसका उतना कष्ट नहीं जान पड़ता जितना कि लक्ष्मी पाकर सुख में पले हुए लोगों को धन का नाश होने पर होता है। माधव ! इस विषय में हमारा पहला विचार तो यही है कि हम और कौरवलोग आपस में सन्धि करके शान्तिपूर्वक समान रूप से उस राज्यलक्ष्मी को भोगें; और यदि ऐसा न हुआ तो अन्त में हमें यही करना होगा कि कौरवों क मारकर यह सारा राज्य हम अपने अधीन कर लें। युद्ध में तो सर्वथा कलह ही रहता है और प्राण भी संकटग्रस्त रहते हैं। मैं तो नीति का आश्रय लेकर ही युद्ध करूँगा; क्योंकि मैं न तो राज्य छोड़ना चाहता हूँ और न कुल का नाश हो, यही मेरी इच्छा है। यों तो हम साम, दाम, दण्ड, भेद---सभी उपायों से अपना काम कर लेना चाहते हैं; किन्तु यदि थोड़ी नम्रता दिखाने से सन्धि हो जाय तो वही सबसे बढ़कर बात होगी। और यदि सन्धि न हुई तो युद्ध होगा ही, फिर पराक्रम न करना अनुचित ही होगा। जब शान्ति से काम नहीं चलता तो स्वतः ही कटुता आ जाती है। पण्डितों ने इसकी उपमा कुत्तों के कलह से दी है। कुत्ते पहले पूँछ हिलाते हैं, इसके बाद एक-दूसरे का दोष देखने लगते हैं, फिर गुर्राना आरम्भ करते हैं, इसे बाद दाँत दिखाना और भूँकना शुरु होता है और फिर युद्ध होने लगता है। श्रीकृष्ण ! अब मैं यह जानता हूँ कि ऐसा समय उपस्थित होने पर आप क्या करना उचित समझते हैं। ऐसा कौन उपाय है जिससे हम अर्थ और धर्म से वंचित न हों। पुरुषोत्तम ! इस संकट के समय हम आपको छोड़कर किससे सलाह लें ? भला, आपके समान हमारा प्रिय और हितैषी तथा समस्त कर्मों के परिणाम को जाननेवाला सम्बन्धी कौन है ? महाराज युधिष्ठिर के ऐसा कहने पर श्रीकृष्ण ने कहा, 'मैं दोनो पक्षों के हित के लिये कौरवों की सभा में जाऊँगा और यदि वहाँ आपके लाभ में किसी प्रकार की बाधा न पहुँचाते हुए सन्धि करा सकूँगा तो समझूँगा मुझसे बड़ा भारी पुण्यकार्य बन गया।' युधिष्ठिर ने कहा---श्रीकृष्ण ! आप कौरवों के पास जायँ---इसमें मेरी सम्मति तो है नहीं; क्योंकि आपके बहुत युक्तियुक्त बात कहने पर भी दुर्योधन उसे मानेगा नहीं। इस समय वहाँ दुर्योधन के वशवर्ती सब राजालोग भी इकट्ठे हो रहे हैं, इसलिये उनलोगों के बीच मेंं आपलोगों का जाना मुझे अच्छा नहीं जान पड़ता। माधव ! आपको कष्ट होने पर तो हमें धन, सुख, देवत्व और समस्त देवताओं पर आधिपत्य भी प्रसन्न नहीं कर सकेगा। श्रीकृष्ण ने कहा---महाराज ! दुर्योधन कैसा पापी है---यह मैं जानता हूँ। किन्तु यदि हम अपनी ओर से स्पष्ट कह देंगे तो संसार में कोई भी राजा हमें दोषी नहीं कह सकेगारही मेरे लिये भय की बात; सो जिस सममय सिंह के सामने दूसरे जंगली जानवर नहीं ठहर सकते, उसी प्रकार यदि मैं क्रोध करूँ तो संसारके सारे राजा मिलकर भी मेरा मुकाबला नहीं कर सकते। अतः मेरा वहाँ जाना निरर्थक तो किसी भी तरह नहीं हो सकता। सम्भव है काम बन जाय और काम न भी बना तो निंदा से तो बच ही जायेंगे। युधिष्ठिर ने कहा---श्रीकृष्ण ! यदि आपको ऐसा ही उचित जान पड़ता है,तो आप प्रसन्नता से कौरवों के पास जाइये। आशा है, मैं आपके कार्य में सफल होकर यहाँ सकुशल लौटा हुआ देखूँगा। आप वहाँ पधारकर कौरवों को शान्त करें, जिसे कि हम आपस में मिलकर शान्तिपूर्वक रह सकें। आप हमें जानते हैं और कौरवों को भी पहचानते हैं तथा हम दोनो का हित भी आपसे छिपा नहीं है; इसके सिवा बातचीत करने में भी  आप खूब कुशल हैं। अतः जिस-जिसमें आपका हित हो, वे सब बातें आप दुर्योधन से कह दें।  श्रीकृष्ण बोले---राजन् ! मैने संजय और आप दोनो की ही बातें सुनी हैं तथा मुझे कौरव और आप दोनो का ही अभिप्राय मालूम है। आपकी बुद्धि धर्म का आश्रय लिये हुए है और उनकी शत्रुता में डूबी हुई है। आप शत्रुता में डूबी हुई है।. आप तो उसी को अच्छा समझेंगे, जो बिना युद्ध किये मिल जायगा। परन्तु महाराज ! यह क्षत्रिय का नैष्ठिक ( स्वाभाविक ) धर्म नहीं है। सभी आश्रमवालों का कहना है कि क्षत्रिय को भीख नहीं माँगनी चाहिये। उसके लिये तो विधाता ने यही सनातन धर्म बताया है कि या तो संग्राम में विजय प्राप्त करे या मर जाय। अतःआप पराक्रमपूर्वक शत्रुओ का दमन कीजिये। धृतराष्ट्र के पुत्र बड़े लोभी हैं। इधर बहुत दिनों से साथ रहकर उन्होंने स्नेह का वर्ताव करके अनेकों राजाओं को अपना मित्र बना लिया है।  इससे उनकी शक्ति बहुत बढ़ गयी है। इसलिये वे आपस में सन्धि कर लें---ऐसी तो कोई सूरत दिखायी नहीं देती। इसलिये वे आपस में सन्धि कर लें---ऐसी तो कोई सूरत दिखायी नहीं देती। इसके सिवा भीष्म और कृपाचार्य आदि के कारण वे अपने को बलवान् भी समझते ही हैं। अतः जबतक आप उनके साथ नरमी का वर्ताव करेंगे, तबतक वे आपके राज्य को हड़पने का ही प्रयत्न करेंगे। राजन् ! ऐसे कुटिल स्वभाव और आचरणवालों के साथ आप मेल-मिलाप करने का प्रयत्न न करें; आपही के नहीं, वे तो सभी के वध्य है। जिस समय जूए का खेल हुआ था और पापी दुःशासन असहाय समान रोती हुई द्रौपदी को उसके केश पकड़कर राजसभा में खींच लाया था, उस समय दुर्योधन ने भीष्म और द्रोण के सामने भी उसे बार-बार गौ कहकर पुकारा था। जिस समय जूए का खेल हुआ था और पापी दुःशासन असहाय समान रोती हुई द्रौपदी को उसके केश पकड़कर राजसभा में खींच लाया था, उस समय दुर्योधन ने भीष्म और द्रोण के सामने भी उसे बार-बार गौ कहकर पुकारा था। उस अवसर पर अपने महापराक्रमी भाइयों को आपने रोक दिया था। इसी से धर्मपाश में बँध जााने के कारण इन्होंने इसका कुछ भी प्रतीकार नहीं किया। किन्तु दुष्ट और अधम पुरुष को तो मार ही डालना चाहिये। अतः आप किसी प्रकार का विचार न करके इसे मार डालिये। हाँ, आप तो पितृतुल्य धृतराष्ट्र और पितामह भीष्म के प्रति नम्रता का भाव दिखा रहे हैं, यह आपके योग्य ही है। अब मैं कौरवो की सभा में जाकर सब राजाओं के सामने आपके सर्वांगिण गुणों को प्रकट करूँगा और दुर्योधन के दोष बताऊँगा। मैं वे ही बातें कहूँगा, जो धर्म और अर्थ के अनुकूल होगी। शान्ति के लिये प्रार्थना करने पर भी आपकी निंदा नहीं होगी। सब राजा धृतराष्ट्र और कौरवों की ही निंदा करेंगे। मैं कौरवों के पास जाकर इस प्रकार संधि के लिये प्रयत्न करूँगा, जिससे आपके स्वार्थसाधन में कोई त्रुटि न आवे तथा उनकी गतिविधि को भी मालूम कर लूँगा। मुझे तो पूरा-पूरा यही भान होता है कि शत्रुओ के साथ हमारा संग्राम ही होगा; क्योंकि मुझे ऐसे ही शकुन हो रहे हैं। अतः आप सभी वीरगण एक निश्चय करके शस्त्र, यंत्र, कवच, रथ, हाथी और घोड़े तैयार कर लें। इनके सिवा जो और भी युद्धोपयोगी सामग्रियाँ हों, वे सब जुटा लें। यह निश्चय मानें कि जबतक दुर्योधन जीवित है, तबतक वह तो किसी भी प्रकार आपको कुछ देगा ही नहीं।


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