श्रीव्यासजी और गान्धारी
के सामने संजय का राजा धृतराष्ट्र को श्रीकृष्ण का माहात्म्य सुनाना
राजन् ! दुर्योधन से ऐसा कह राजा
धृतराष्ट्र ने संजय से फिर कहा, 'संजय ! अब जो बात सुनानी रह गयी है, वह भी कह दो।
श्रीकृष्ण के बाद अर्जुन ने तुमसे क्या कहा
था ? उसे सुनने के लिये मुझे बड़ा कौतूहल हो रहा है।' संजय ने कहा---श्रीकृष्ण
की बात सुनकर कुन्तीपुत्र अर्जुन ने उनसे कहा---'संजय ! तुम पितामह भीष्म, महाराज धृतराष्ट्र,
द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, कर्ण, राजा बाह्लीक, अश्त्थामा, सोमदत्त, शकुनि, दुःशासन,
विकर्ण और वहाँ इकट्ठे हुए समस्त राजाओं से मेरा यथायोग्य अभिवादन कहना और मेरी ओर
से उनकी कुशल पूछना तथा पापात्मा दुर्योधन, उसके मंत्री और वहाँ आये हुए सब राजाओं
को श्रीकृष्णचन्द्र का समाधानयुक्त संदेश सुनकर
मेरी ओर से भी इतना कहना कि शत्रुदमन महाराज युधिष्ठिर जो अपना भाग लेना चाहते हैं,
वह यदि तुम नहीं दोगे तो मैं अपने तीखे तीरों से तुम्हारे घोड़े, हाथी और पैदल सेना
के सहित तुम्हें यमपुरी भेज दूँगा।' महाराज ! इसके बाद मैं अर्जुन से विदा होकर और
श्रीकृष्ण को प्रणाम करके उनका गौरवपूर्ण संदेश आपको सुनाने के लिये तुरंत ही यहाँ
चला आया। राजन् ! श्रीकृष्ण और अर्जुन की इन बातों का दुर्योधन ने कुछ भी आदर नहीं
किया। सब लोग चुप ही रहे। फिर वहाँ जो देश-देशान्तर के नरेश बैठे थे, वे सब उठकर अपने-अपने
डेरों में चले गये।इस एकान्त के समय धृतराष्ट्र ने संजय से पूछा, 'संजय ! तुम्हें तो
दोनो पक्ष के बलाबल का ज्ञान है, यों भी तुम धर्म और अर्थ का रहस्य अच्छी तरह जानते
हो और किसी भी बात का परिणाम तुमसे छिपा नहीं है। इसलिये तुम ठीक-ठीक बताओ कि इन दोनो
पक्षों में कौन सबल है और कौन निर्बल।' संजय ने कहा---राजन् ! एकान्त में तो मैं आपसे
कोई भी बात नहीं कहना चाहता, क्योंकि इससे आपके हृदय में डाह होगी। इसलिये आप महानन्
तपस्वी भगवान् व्यास और महारानी गान्धारी को
भी बुला लीजिये। उन दोनों के सामने मैं आपको श्रीकृष्ण और अर्जुन का पूरा-पूरा विचार
सुना दूँगा।
संजय के इस प्रकार कहने पर गांधारी और श्रीव्यासजी को बुलाया
गया और विदुरजी तुरंत ही उन्हें सभा में ले गये। तब महामुनि व्यासजी राजा धृतराष्ट्र
और संजय का विचार जानकर उनके मत पर दृष्टि रखकर कहने लगे, 'संजय ! धृतराष्ट्र तुमसे
प्रश्न कर रहे हैं; अतः इनकी आज्ञा के अनुसार तुम श्रीकृष्ण और अर्जुन के विषय में
जो कुछ जानते हो, वह सब ज्यों-का-त्यों सुना दो। संजय ने कहा--- श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनो ही बड़े सम्मानित धनुर्धर
हैं। श्रीकृष्ण के चक्र के भीतर का भाग पाँच हाथ चौड़ा है और उसका इच्छानुसार प्रयोग
कर सकते हैं। नरकासुर, शम्बर, कंस और शिशुपाल---ये बड़े भयंकर वीर
थे। परन्तु
भगवान् श्रीकृष्ण ने इन्हें खेल में ही परास्त कर दिया था। यदि
एक ओर सारे संसार को और दूसरी ओर श्रीकृष्ण को रखा जा तो श्रीकृष्ण ही बल में अधिक
निकलेंगे। वे संकल्पमात्र से सारे संसार को भष्म कर सकते हैं। श्रीकृष्ण तो वहीं रहते
हैं जहाँ सत्य, धर्म, लज्जा और सरलता का निवास होता है और जहाँ श्रीकृष्ण रहते हैं
वहीं विजय रहती है। वे सर्वान्तर्यामी पुरुषोत्तम
जनार्दन क्रीड़ा से ही पृथ्वी, आकाश और स्वर्गलोक को प्रेरित कर रहे हैं। इस समय सबको
अपनी माया से मोहित करके वे पाण्डवों को ही निमित्त बनाकर आपके अधर्मनिष्ठ मूढ़ पुत्रों
को भष्म करना चाहते हैं। ये केशव ही कालचक्र जगचक्र और युगचक्र को
घुमाते रहते हैं। मैं सच कहता हूँ---एकमात्र वे ही काल, मृत्यु और संपूर्ण स्थावर-जंगम
जगत् के स्वामी हैं तथा अपनी माया के द्वारा लोकों को मोह में डाले रहते हैं। जो लोग
केवल उन्हीं की शरण ले लेते हैं, वे ही मोह में नहीं पड़ते। धृतराष्ट्र
ने पूछा---संजय ! श्रीकृष्ण समस्त लोकों के अधीश्वर हैं---इस बात को तुम कैसे जानते
हो और मैं क्यों नहीं जान सका ? इसका रहस्य मुझे बतलाओ। संजय ने कहा---राजन् ! आपको
ज्ञान नहीं है और मेरी ज्ञानदृष्टि कभी मंद नहीं पड़ती। जो पुुरुष ज्ञानहीन हैं वे श्रीकृष्ण
के वास्तविक स्वरूप को नहीं जान सकता। मैं ज्ञानदृष्टि से प्राणियों की उत्पत्ति औरविनाश
करनेवाले अनादि मधुसूदन भगवान् भगवान् को जानता हूँ। धतराष्ट्र
ने पूछा---संजय ! भगवान् कृष्ण में सर्वदा तुम्हारी भक्ति जो रहती है, उसका स्वरूप
क्या है ? संजय ने कहा---महाराज ! आपका कल्याण हो, सुनिये। मैं कभी भी कपट का आश्रय
नहीं लेता, किसी व्यर्थ धर्म का आचरण नहीं करता, ध्यानयोग के द्वारा मेरा भाव शुद्ध
हो गया है अतः शास्त्र के वाक्यों द्वारा मुझे श्रीकृष्ण के स्वरूप का ज्ञान हो गया
है। यह सुनकर राजा धृतराष्ट्र ने दुर्योधन से कहा---भैया दुर्योधन ! संजय हमारे हितकारी
और विश्वासपात्र हैं; अतः तुम भी हृषिकेश, जनार्दन भगवान् श्रीकृष्ण की शरण लो। दुर्योधन
ने कहा---देवकीनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण भले ही तीनों लोकों का संहार कर डालें; किन्तु
जब वे अपने को अर्जुन का सखा घोषित कर चुके हैं तो मैं उनकी शरण में नहीं जा सकता।
तब धृतराष्ट्र ने गान्धारी से कहा---गान्धारी ! तुम्हारा यह दुर्बुद्धि और अभिमानी
पुत्र ईर्ष्यावश सत्पुरुषों की बात न मानकर अधोगति की ओर जा रहा है। गान्धारी ने कहा---दुर्योधन
! तू बड़ा ही दुष्टबुद्धि और मूर्ख है। अरे ! तू ऐश्वर्य के लोभ में पड़कर अपने बड़े-बूढ़ों
की आज्ञा का उल्लंघन कर रहा है ! मालूम होता है अब तू अपने ऐश्वर्य, जीवन, माता और
पिता---सभी से हाथ धो चुका है। देख ! जब भीमसेन तेरे प्राण लेने को तैयार होगा, उस
समय तुझे अपने पिताजी की बातें याद आयेंगी। फिर व्यासजी ने कहा---धृतराष्ट्र ! तुम
मेरी बात सुनो। तुम श्रीकृष्ण के प्यारे हो। अहो ! तुम्हारा संजय जैसा दूत है, जो तुम्हे
कल्याण के मार्ग में ही ले जायगा। इसे पुराण-पुरुष श्री हृषीकेश के स्वरूप का पूरा
ज्ञान है; अतः यदि तुम इसकी बात सुनोगे तो यह तुम्हे जन्म-मरण के महान् भय से मुक्त
कर देगा। जो लोग कामनाओं से अन्धे हो रहे हैं, वे अन्धे के पीछे लगे हुए अन्धे के समान
अपने कर्मों के अनुसार बार-बार मृत्यु के मुख में जाते हैं। मुक्ति का मार्ग तो सबसे
निराला है, उसे बुद्धिमान पुरुष पकड़ते हैं। उसे पकड़कर वे महापुरुष मृत्यु से पार हो
जाते हैं और उनकी कहीं भी आसक्ति नहीं रहती। तब धृतराष्ट्र ने संजय से पूछा---भैया संजय ! तुम
मुझे कोई ऐसा निर्भय मार्ग बताओ, जिससे चलकर मैं श्रीकृष्ण को पा सकूँ और मुझे परमपद
प्राप्त हो जाय। संजय ने कहा---कोई अजितेन्द्रिय पुरुष श्री हृषिकेश भगवान् को प्राप्त
नहीं कर सकता। इसके सिवा उन्हें पाने का कोई और मार्ग नहीं है। इन्द्रियाँ बड़ी उन्मत्त
हैं, इन्हें जीतने का साधन सावधानी से भोगों को त्याग देना है। प्रमाद और हिंसा से
दूर रहना---निःसंदेह यही ज्ञान के मुख्य कारण हैं। इन्द्रियों को निश्छल रूप से अपने
काबू में रखना---इसी को विद्वान् लोग ज्ञान कहते हैं। वास्तव में यही ज्ञान है और यही मार्ग है, जिससे कि बुद्धिमानलोग
उस परमपद की ओर बढ़ते हैं। धृतराष्ट्र ने कहा---संजय ! तुम एक बार फिर श्रीकृष्णचन्द्र
के स्वरूप का वर्णन करो, जिससे कि उनके नाम और कर्मों का रहस्य जानकर मैं उन्हें प्राप्त
कर सकूँ। संजय ने कहा---मैने श्रीकृष्ण के कुछ नामों की व्युत्पत्ति ( तात्पर्य ) सुनी
है। उनमें से जितना मुझे स्मरण है, वह सुनाना चाहता हूँ। श्रीकृष्ण तो वास्तव में किसी
प्रमाण के विषय नही हैं। समस्त प्राणियों को अपनी माया से आवृत किये रहने तथा देवताओं
के जन्मस्थान होने के कारण ये 'वासुदेव' हैं; व्यापक तथा महान् होने के कारण 'विष्णु'
हैं; मौन, ध्यान और योग स प्राप्त होने के कारण 'माधव' हैं तथा मधु दैत्य का वध करनेवाले
और सर्वतत्वमय होने से वे 'मधुसूदन' हैं। 'कृष्' धातु का अर्थ सत्ता है और 'ण' आनन्द
का वाचक है; इन दोनो भावों से युक्त होने के कारण यदुकुल में अवतीर्ण हुए श्रीविष्णु
'कृष्ण' कहे जाते हैं। हृदयरूप पुण्डरीक ( श्वेत कमल ) ही आपका नित्य आलय और अविनाशी
परम स्थान है, इसलिये 'पुण्डरीकाक्ष' कहे जाते हैं तथा दुष्टों का दमन करने के कारण
'जनार्दन' हैं; क्योंकि आप सत्वगुणों से कभी च्युत नहीं होते हैं और न कभी तत्व की
आपमें कमी ही होती है, इसलिये आप सात्वत हैं। आर्य अर्थत् उपनिषदों से प्रकाशित होने
के कारण आप 'आर्षभ' हैं तथा वेद ही आपके नेत्र हैं, इसलिये आप 'वृपभेक्षण' हैं। आप
किसी भी उत्पन्न होनेवाले प्राणी से उत्पन्न नहीं होते इसलिये 'अज्ञ' हैं। 'उदर'---इन्द्रियों
के स्वयं प्रकाशक और 'दाम'---उनका दमन करनेवाले होने से आप 'दामोदर' हैं। 'हृषीक' वृत्तिसुख
और स्वरूपसुख को कहते हैं, उसके ईश होने से आप 'हृषिकेश' कहलाते हैं। अपनी भुजाओं से
पृथ्वी और आकाश को धारण करनेवाले होने से आप 'महाबाहु' हैं। आप कभी अधः ( नीचे की ओर
) क्षीण नहीं होते, इसलिये 'अधोक्षज' हैं तथा नरों ( जीवों ) के अयन ( आश्रय ) होने
से 'नारायण' कहे जाते हैं। जो सबमें पूर्ण और सबका आश्रय होने से 'नारायण' कहे जाते
हैं। जो सबमें पूर्ण और सबका आश्रय हो, उसे 'पुरुष' कहते हैं; उनमें श्रेष्ठ होने से आप 'पुरुषोत्तम'
हैं आप सत् और असत्---सबकी उत्पत्ति और लय के स्थान हैं तथा सर्वदा उन सबको जानते हैं,
इसलिये 'सर्व' हैं। श्रीकृष्ण सत्य में प्रतिष्ठित हैं और सत्य उनमें प्रतिष्ठित है
तथा वे सत्य से भी सत्य हैं; इसलिये 'सत्य' भी उनका नाम है। वे विक्रमण ( वामनावतार में अपने क्रम डगों से विश्व
को व्याप्त ) करने के कारण 'विष्णु' हैं, जय करने के करण 'जिष्णु' हैं, नित्य होने
के कारण 'अनन्त' हैं और गो अर्थात् इन्द्रियों के ज्ञाता होने से 'गोविन्द' हैं। वे
अपनी सत्ता-स्फूर्ति से असत्य को सत्य सा दिखाकर सारी प्रजा को मोह में डाल देते हैं।
निरन्तर धर् में स्थित रहनेवाले भगवान् मधुसूदन का स्वरूप ऐसा है। वे श्री अ्च्चुत
भगवान् कौरवों को नाश से बचाने के लिये यहाँ पधारनेवाले हैं। धृतराष्ट्र बोले---संजय
! जो लोग अपने नेत्रों से भगवान् के तेजोमय दिव्य विग्रह का दर्शन करते हैं, उन तेजवान्
पुरुषों के भाग्य की मुझे भी लालसा होती है। मैं आदि, मध्य और अन्त से रहित, अनन्तकीर्ति तथा ब्रह्मादि से भी श्रेष्ठ पुराणपुरुष श्रीकृष्ण की शरण लेता हूँ। जिन्होंने तीनों लोकों की रचना की है, जो देवता, असुर, नाग और राक्षस सभी की उत्पत्ति करनेवाले हैं तथा राजाओं और विद्वानों में प्रधान हैं, उन इन्द्र के अनुज श्रीकृष्ण की मैं शरण हूँ।
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