Sunday 9 October 2016

उद्योगपर्व----कर्ण का वक्तव्य, भीष्म द्वारा उसकी अवज्ञा, कर्ण की प्रतिज्ञा, विदुर का वक्तव्य तथा धृतराष्ट्र का दुर्योधन को समझाना

कर्ण का वक्तव्य, भीष्म द्वारा उसकी अवज्ञा, कर्ण की प्रतिज्ञा, विदुर का वक्तव्य तथा धृतराष्ट्र  का दुर्योधन को समझाना
तब दुर्योधन का हर्ष बढ़ाते हुए कर्ण ने कहा, 'गुरुवर  परशुरामजी से मैने जो ब्रह्मास्त्र प्राप्त किया था वह अभी तक मेरे पास है। अतः अर्जुन को जीतने में तो मैं अच्छी तरह समर्थ हूँ, उसे परास्त करने का भार मेरे ऊपर रहा। यही नहीं, मैं पांचाल, करूप, मत्स्य और बेटे-पोतों सहित अन्य सब पाण्डवों को भी एक क्षण में मारकर शस्त्रास्त्र के द्वारा प्राप्त होनेवाले लोकों को प्राप्त करूँगा। पितामह भीष्म, द्रोणाचार्य तथा अन्य राजालोग भी आपके ही पास रहें; पाण्डवों को तो अपनी प्रधान सेना के सहित जाकर मैं ही मार दूँगा। यह काम मेरे जिम्मे रहा।' जब कर्ण इस प्रकार कह रह था तो भीष्मजी कहने लगे---'कर्ण ! तुम्हारी बुद्धि तो कालवश नष्ट हो गयी है। तुम क्या बढ़-बढ़कर बातें बना रहे हो ! याद रखो, इन कौरवों की मृत्यु तो पहले तुम-जैसे प्रधान वीर के मारे जाने पर ही होगी। इसलिये तुम अपनी रक्षा का प्रबंध करो।  अजी ! खाण्डव वन का दाह कराते समय श्रीकृष्ण के सहित अर्जुन ने जो काम किया था, उसे सुनकर ही तुम्हे अने बन्धु-बान्धवों के सहित होश में आ जाना चाहिये। देखो, दानासुर और भौमासुर का वध करनेवाले श्रीकृष्ण अर्जुन की रक्षा करते हैं ! इस घोर संग्राम में तुम जैसे चुने-चुने वीरों का ही नाश करेंगे।' यह सुनकर कर्ण बोला ----पितामह जैसा कहते हैं, श्रीकृष्ण तो निःसंदेह वैसे ही हैं---बल्कि उससे भी बढ़कर हैं। परन्तु इन्होंने मेरे लिये जो कड़ी बातें कही हैं, उनका परिणाम भी कान खोलकर सुन लें। अब मैं अब मैं अपना शंख रखे देता हूँ। आज से मुझे पितामह रणभूमि या राजसभा में नहीं देखेंगे। बस, अब आपका अन्त हो जायगा तभी पृथ्वी के सब राजा लोग मेरा प्रभाव देखेंगे। ऐसा कहकर महान् धनुर्धर कर्ण सभा से उठकर अपने घर चला गया।
अब भीष्मजी सब राजाओं के सामने हँसते हुए राजा दुर्योधन से कहने लगे---"राजन् ! कर्ण तो सत्यप्रतिज्ञ है। फिर उसने जो राजाओं के सामने ऐसी प्रतीज्ञा की थी कि 'मैं नित्यप्रति सहस्त्रों ववीरों का संहार करूँगा', उसे वह कैसे पूरी करेगा ? इसका धर्म और तप तो तभी नष्ट हो गया था, जब इसने भगवान् परशुरामी के पास जाकर अपने को ब्राह्मण बताते हुए उनसे शस्त्रविद्या सीखी थी।' जब भीष्म ने इस प्रकार कहा और कर्ण शस्त्र छोड़कर सभा से चला गया तो मन्दमति दुर्ोधन कहने लगा---पितामह ! पाण्डवलोग और हम अस्त्रविद्या, योद्धाओों के संग्रह तथा शस्त्र-संचालन की फुर्ती और सफाई में समान ही हैं और हैं भी दोनो मनुष्य-जाति के ही; फिर आप ऐसा कैसे समझते हैं कि पाण्डवों की ही विजय होगी ? मैं, आप, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, बाह्लिक  अथवा अन्य राजाओं के बल पर यह युद्ध नहीं ठान रहा हूँ। पाँचों पाण्डवों को तो मैं, कर्ण और भाई दुःशासन---हम तीन ही अपने पैने बाणों से मार डालेंगे। इसपर  विदुरजी ने कहा---वृद्ध पुरुष इस लोक में दम को ही कल्याण का साधन बताते हैं। जो पुरुष दम, दान, तप ज्ञान और स्वाध्याय का अनुसरण करता रहता है, उसी को दान, क्षमा और मोक्ष यथावत् रूप से प्राप्त होते हैं। दम तेज की बृद्धि करता है, दम पवित्र और सर्वश्रेष्ठ है। इस प्रकार जिसका पाप निवृत होकर तेज बढ़ गया है, वह परमपद प्राप्त कर अचंचलता, उदीनता, अक्रोध, संतोष और श्रद्धा---इतने गुण हों, वह दममुक्त कहा जाता है। दमनशील पुरुष काम, लोभ, दर्प, निद्रा, बढ़-बढ़कर बातें बनाना, मान, इर्ष्या और शोक---इन्हें तो अपने पास नहीं फटकने देता। कुटिलता और शठता से रहित होना तथा  शुद्धता से रहना---यह दमशील पुरुष का लक्षण है। जो पुरुष ललोलुपतारहित, भोगों के चिन्तन से बिमुख और समुद्र के समान गम्भीर होता है, वह दमशील कहा गया है। अच्छे आचरणवाला, शीलवान्, प्रसन्नचित्त, आत्ममवेत्ता और बुद्धिमान पुरुष इस लोक में सम्मान पाकर मरने पर सद्गति प्राप्त करता है। तात ! हमने पूर्वपुरुषों के मुख से सुना था कि किसी समय एक चिड़िमार ने चिड़ियों को  फँसाने के लिये पृथ्वी पर जाल फैलाया। उस जाल में साथ-साथ रहनेवाले दो पक्षी फँस गये। तब वे  दोनो उस जाल को लेकर उड़ चले। चिडिमार उन्हें आकाश में चढ़े देखकर उदास हो गया और जिधर-जिधर वे जाते, उधर-उधर ही उनके पीछे दौड़ रहा था। इतने में ही एक मुनि की उसपर दृष्टि पड़ी।  मुनिवर ने व्याधे से पूछा, 'अरे व्याघ्र ! मुझे यह बात विचित्र जान पड़ती है कि तू उड़ते हुए पक्षियों के पीछे पृथ्वी पर भटक रहा है !' व्याघ्र ने कहा, 'ये दोनो पक्षी आपस में मिल गये हैं, इसलिये मेरे जाल को लिये जा रहे हैं। अब जहाँ इसमें झगड़ा होने लगेगा, वहीं ये मेरे वश में आ जायेंगे।' थोड़ी देर ही में काल के वशीभूत हुए उन पक्षियों में झगड़ा होने लगा और वे लड़ते-लड़ते पृथ्वी पर गिर पड़े। बस, चिड़िमार ने चुपचाप उनके पास जाकर उन दोनों को पकड़ लिया। इसी प्रकार जब दो कुटुम्बियों में सम्पत्ति के लिये परस्पर झगड़ा होने लगता है तो वे शत्रुओं के चंगुल में फँस जाते हैं। आपसदारी के काम तो साथ बैठकर भोजन करना, आपस में प्रेम से बातचीत करना, एक-दूसरे के सुख-दुःख को पूछना और आपस में मलते-जुलते रहना है, विरोध करना नहीं। जो शुद्धहृदय पुरुष समय आने पर गुरुजनों का आश्रय लेते हैं, वे सिंह से सुरक्षित वन के समान किसी के भी दबाव में नहीं आ सकते। एक बार कई भील और ब्राह्मणों के साथ हम गन्धमादन पर्वत पर गये थे। वहाँ हमने एक शहद से भरा हुआ छत्ता देखा। अनेकों विषधर सर्प उसकी रक्षा कर रहे थे। वह ऐसा गुणयुक्त था कि यदि कोई उसे पा ले तो अमर हो जाय, अंधा सेवन करे तो उसे दीखने लगे और बूढ़ा युवा हो जाय। यह बात हमने रासायनिक ब्राह्मणों से सुनी थी। भील लोग उसे प्राप्त करने का लोभ न रोक सके और उस सर्पोंवाली गुफा में जाकर नष्ट हो गये। इसी प्रकार आपका पुत्र दुर्योधन अकेला ही सारी पृथ्वी को भोगना चाहता है। इसे मोहवश शहद तो दीख रहा है किन्तु अपने नाश का सामान दिखायी नहीं देता।
याद रखिये, जिस प्रकार अग्नि सब वस्तुओं को जला डालता है, वैसे ही द्रुपद, विराट और क्रोध से भरा हुआ अर्जुन---ये संग्राम में किसी को भी जीता नहीं छोड़ेंगे। इसलिये राजन् ! आप महाराज युधिष्ठिर को भी अपनी गोद में स्थान दीजिये, नहीं तो इन दोनों का युद्ध होने पर किसकी जीत होगी---यह निश्चितरूप से नहीं कहा जा सकता।
विदुरजी का वक्तव्य समाप्त होने पर राजा धृतराष्ट्र ने कहा---बेटा दुर्योधन ! मैं तुमसे जो कुछ कहता हूँ, उसपर ध्यान दो। तुम अनजान बटोही के समान इस समय कुमार्ग को ही सुमार्ग समझ रहे हो। इसी से तुम पाँचों पाण्डवों के तेज को दबाने का विचार कर रहे हो। परंतु याद रखो, उन्हें जीतने का विचार करना अपने प्राणों को संकट में डालना ही है। श्रीकृष्ण अपने देह, गेह, स्त्री और राज्य को एक ओर तथा अर्जुन को दूसरी ओर समझते हैं। उसके लिे वे इन सभी को त्याग सकते हैं। जहाँ अर्जुन रहता है, वहीं श्रीकृष्ण रहते हैं, और जिस सेना में स्वयं श्रीकृष्ण रहते हैं, उसका वेग तो पृथ्वी के लिये भी असह्य हो जाता है। देखो, तुम सत्पुरुषों और तुम्हारे हित की कहनेवाले सुहृदों के कथनानुसार आचरण करो और इन वयोवृद्ध पितामह भीष्म की बात पर ध्यान दो। मैं भी कौरवों के ही हित की बात सोचता हूँ, तुम्हें मेरी बात भी सुननी चाहिये और द्रोण, कृप, विकर्ण एवं महाराज बाह्लीक के कथन पर भी ध्यान देना चाहिये। भरतश्रेष्ठ ! ये सब धर्म के धर्मज्ञ और कौरव एवं पाण्डवों पर समान स्नेह रखनेवाले हैं। अतः तुम पाण्डवों को अपने सगे भाई समझकर उन्हें आधा राज्य दे दो।

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