संजय का कौरव की सभा में
आकर दुर्योधन को अर्जुन का संदेश सुनाना
इस प्रकार भगवान् सनत्सुजात
और बुद्धिमान विदुरजी के साथ बातचीत करते राजा धृतराष्ट्र को सारी रात बीत गयी। प्रातःकाल
होते ही देश-देशान्तर से आये हुए राजालोग तथा भीष्म, द्रोण, कृप, शल्य, कृतवर्मा, जयद्रथ,
अश्त्थामा, विकर्ण, सोमदत्त, बाह्लीक, विदुर और युयुत्सु ने महाराज धृतराष्ट्र के साथ
तथा दुःशासन, चित्रसेन, शकुनि, दुर्मुख, दुःसह, कर्ण, उलूक और विविंशति ने कुरुराज
दुर्योधन के साथ सभा में प्रवेश किया। ये सभी
संजय के मुख से पाण्डवों की धर्मार्थयुक्त बातें सुनने के लिये उत्सुक थे। सभा में
पहुँचकर वे सब अपनी-अपनी मर्यादा के अनुसार आसनों पर बैठ गये। इतने में ही द्वारपाल
ने सूचना दी कि संजय सभा के द्वार पर आ गये हैं। संजय तुरन्त ही रथ से उतरकर सभा के
द्वार पर आ गये हैं। संजय तरन्त ही रथ से उतरकर सभा में आये और कहने लगे, 'कौरवगण
! मैं पाण्डवों के पास से आ रहा हूँ। उन्होंने आयु के अनुार सभी कौरवों को यथायोग्य
कहा है।' धृतराष्ट्र ने पूछा---संजय ! मैं यह पूछता हूँ कि वहाँ सब राजाओं के बीच में
दुरात्माओं को प्राणदण्ड देनेवाले अर्जुन ने क्या कहा था ? संजय
ने कहा---राजन् ! वहाँ श्रीकृष्ण के सामने महाराज युधिष्ठिर की सम्मति से महात्मा अर्जुन
ने जो शब्द के हैं, उन्हें कुरुराज दुर्योधन सुन लें।उन्होंने कहा है कि 'जो काल के
गाल में जानेवाला, मन्दबुद्धि महामूढ़ सूतपुत्र सदा ही मुझसे युद्ध करने की डींग हाँकता
रहता है, उस कटुभाषी दुरात्मा कर्ण को सुनाकर तथा जो राजालोग पाण्डवों के साथ युद्ध
करने के लिये बुलाये गये हैं, उन्हें सुनाते हुए तुम मेरा संदेश इस प्रकार कहना जिसे
मंत्रियों सहित राजा दुर्योधन उसे पूरा-पूरा सुन सकें।' गाण्डीवधारी अर्जुन युद्ध के
लिये उत्सुक जान पड़ता था। उसने आँखें लाल करके कहा है---'यदि दु्योधन महाराज युधिष्ठिर
का राज्य छोड़ने के लिये तैयार नहीं हैं तो अवश्य ही धृतराष्ट्र के पुत्रों का कोई ऐसा
पापकर्म है, जिसका फल उन्हें भोगना बाकी है। यदि दुर्योधन चाहता है कि कौरवों का भीम,
अर्जुन, नकुल, सहदेव, श्रीकृष्ण, सात्यकि, धृष्टधुम्न, शिखंडी और अपने संकल्प मात्र
से पृथ्वी एवं आकाश को भष्म कर सकनेवाले महाराज युधिष्ठिर के साथ युद्ध हो तो ठीक है;
इससे तो पाण्डवों का सारा मनोरथ पूर्ण हो जायगा। पाण्डवों के हित की दृष्टि से आपको
सन्धि करने की आवश्यकता नहीं है, फिर तो युद्ध ही होने दें। महाराज युधिष्ठिर तो नम्रता,
सरलता, तप, दम, धर्मरक्षा और बल---इन सभी गुणों से सम्पन्न हैं। वे बहुत दिनों से अनेक
प्रकार के कष्ट उठाते रहने पर भी सत्य ही बोलते हैं तथा आपलोगों के कपट-व्यवहारों को
सहन करते रहते हैं। किन्तु जिस समय वे अनेकों वर्षों से इकट्ठे हुए अपने क्रोध को कौरवों
पर छोड़ेंगे, उस समय दुर्योधन को पछताना पड़ेगा। जिस समय दुर्योधन रथ में बैठे हुए गदाधारी
भीमसेन को बड़े वेग से क्रोधरूप विष उगलते देखेगा, उस समय उसे युद्ध करने के लिये अवश्य
पश्चाताप होगा।जिस प्रकार फूस की झोपड़ियों का गाँव आग से जलकर खाक हो जाता है, वैसी
ही दशा कौरवों की देखकर, बिजली मारे हुए खेत के समान अपनी विशाल वाहिनी को नष्ट-भ्रष्ट
देखकर तथा भीमसेन की शस्त्राग्नि से झुलसकर कितने ही वीरों को धराशायी तथा कितनों को
ही भय से भागते देखकर दुर्योधन को युद्ध छेड़ने के लिये जरूर पछताना पड़ेगा।जब विचित्र
योद्धा नकुल युद्धस्थल में शत्रुओं के सिरों की ढ़ेरी लगा देगा, तब लज्जाशील सत्यवादी
और समस्त धर्मों का आचरण करनेवाला फुर्तीला वीर सहदेव शत्रुओं का संहार करता हुआ शकुनि
पर आक्रमण करेगा और जब दुर्योधन द्रौपदी के महान् धनुर्धर शूरवीर और रथयुद्धविशारद्
पुत्रों को कौरवों पर झपटते देखेगा तो उसे युद्ध ठानने के लिये अवश्य अनुताप होगा।
अभिमन्यु तो साक्षात् श्रीकृष्ण के समान बली
है; जिस समय वह अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित होकर मेघों के समान वर्षा करके शत्रुओं
को संतप्त करेगा, उस समय दुर्योधन को रण रोपने
के लिये अवश्य पछतावा होगा। जिस समय वृद्ध महारथी विराट और द्रुपद अपनी-अपनी सेनाओं
के सहित सुसज्जित होकर सेनासहित धृतराष्ट्रपुत्रों पर दृष्टि डालेंगे, उस समय दुर्योधन को पश्चाताप ही करना पड़ेगा। जब कौरवों
में अग्रगन्य संतशिरोमणि महात्मा भीष्म शिखण्डी के हाथ से मारे जायेंगे तो मैं सच कहता
हूँ मेरे शत्रु बच नहीं सकेंगे। इसमें तुम तनिक भी संदेह न करना। जब अतुलित तेजस्वी
सेनानायक धृष्टधुम्न अपने वाणों से धृतराष्ट्र के पुत्रों को पीड़ित करते हुए द्रोणाचार्य
पर आक्रमण करेंगे तो दुर्योधन को युद्ध छेड़ने के लिये पछताना पड़ेगा। सोमकवंश में श्रेष्ठ
महाबली सात्यकि जिस सेना का नेता है, उसके वेग के शत्रु कभी सह नहीं सकेंगे। तुम दुर्योधन
से कहना कि 'अब तुम राज्य की आशा छोड़ दो।' क्योंकि हमने शिनि के पौत्र, यु्ध में अद्वितीय
रथी, महाबली सात्यकि को अपना सहायक बना लिया है। वह सर्वथा निर्भय और अस्त्र-शस्त्र
संचालन में पारंगत है। जिस समय दुर्योधन रथ में गाण्डीव धनुष, श्रीकृष्ण और उनके दिव्य
पांचजन्य शंख, घोड़े, दो अक्षय तूणीर, देवदत्त शंख और मुझको देखेगा उस सम उसे युद्ध
के लिये पछतावा ही होगा। जिस समय युद्ध करने के लिये इकट्ठे हुए उन लुटेरों को नष्ट
करके नवीन युग को प्रवृत करने के लिये मैं आग के समान प्रज्जवलित होकर कौरवों को भष्म
करने लगूँगा, उस समय पुत्रों के सहित महाराज धृतराष्ट्र को भी बड़ा कष्ट होगा। दुर्योधन
का सारा गर्व गलित हो जायगा और अपने भाई, सेना तथा सेवकों सहित राज्य से भ्रष्ट होकर
वह मन्दगति वैरियों के हाथ से मार खाकर काँपने काँपने लगेगा तथा उसे बड़ा पश्चाताप होगा।
मैने वज्रधर इन्द्र से यह वर माँगा था कि इस युद्ध में श्रीकृष्ण मेरे सहायक हों। "एक
दिन पूर्वाह्न में जप करने बैठा था कि एक ब्राह्मण ने आकर मुझसे कहा---'अर्जुन ! तुम्हें
दुष्कर कर्म करना है, अपने शत्रुओं के साथ युद्ध करना है। तुम क्या चाहते हो ? उधैःश्रवा घोड़े पर बैठकर बज्र हाथ में लिये
इन्द्र तुम्हारे शत्रुओं का नाश करते आगे-आगे चलें, अथवा सुग्रीव आदि घोड़ों से युक्त
दिव्य रथ पर बैठे भगवान् श्रीकृष्ण तुम्हारी रक्षा करते हुए पीछे चलें ?' उस समय हम
बज्रपाणि इन्द्र को छोड़कर इस युद्ध में सहायक रूप से श्रीकृष्ण का वरण किया। इस प्रकार
इन डाकुओं के वध के लिये मुझे श्रीकृष्ण मिल गये हैं। मालूम होता है यह देवताओं का
किया हुआ विधान है। श्रीकृष्ण भले ही युद्ध न करे, फिर भी यदि ये मन से ही किसी की
जय का अभिनंदन करने लगे तो वह अपने शत्रुओं को अवश्य परास्त कर देगा; भले ही देवता
और इन्द्र ही उसके शत्रु हों, फिर मनुष्यों की तो बात ही क्या है ? इन श्रीकृष्ण ने
आकाशचारी सोभयान के स्वामी महाभयंकर और मायावी राजा शाल्व से युद्ध किया था और शौभ
के दरवाजे पर ही शाल्व की छोड़ी हुई शतघ्नी को हाथों से पकड़ लिया था। भला इनके वेग को
कौन मनुष्य सहन कर सकता है ? मैं राज्यप्राप्ति की इच्छा से पितामह भीष्म, पुत्र-सहित
आचार्य द्रोण और अनुपम वीर कृपाचार्य को प्रणाम करके युद्ध करूँगा। मेरे विचार से तो
कोई पापत्मा इस युद्ध में पाण्डवों से लड़ेगा; उसका निधन धर्मतः निश्चित है। कौरवों
! मैं तुमसे स्पष्ट कहता हूँ, धृतराष्ट्र के पुत्रों का जीवन यदि बच सकता है तो युद्ध
से दूर रहने पर ही ऐसा सम्भव है। यह बात निश्चित है किमैं संग्रामभूमि में कर्ण और
धृतराष्ट्र पुत्रों को मारकर कौरवों का सारा राज्य जीत लूँगा। जिस प्रकार अजातशत्रु
महाराज युधिष्ठिर शत्रुओं के संहार में हमें सफल-मनोरथ मान रहे हैं, वैसे ही अदृष्ट
के ज्ञाता श्रीकृष्ण को भी इसमें कोई संदेह नहीं है। मैं स्वयं भी सावधान होकर अपनी
बुद्धि से देखता हूँ तो मुझे इस युद्ध का भावी रूप ऐसा ही दिखायी देता है। मेरी योगदृष्टि
भी भविष्यदर्शन में भूल करनेवाली नहीं है। मुझे यह स्पष्ट दीख रहा है कि युद्ध करने
पर धृतराष्ट्र के पुत्र जीवित नहीं रहेंगे। संजय ! तुम उनसे स्पष्ट कह देना कि मेरा
यह दृढ़ और उत्तम निश्चय है कि मुझे ऐसा कहने पर ही शान्ति मिलेगी। अतः उन्हें वही करना
चाहिये जो वृद्ध भीष्म, कृपाचार्य, द्रोणाचार्य, अश्त्थामा, और बुद्धिमान विदुरजी कहें।
वैसा करने पर ही कौरवलोग जीवित रह सकेंगे।"
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