Tuesday 23 August 2016

उद्योग-पर्व---विदुरनीति ( पाँचवाँ अध्याय )

विदुरनीति ( पाँचवाँ अध्याय )
विदुरजी कहते हैं---राजेन्द्र ! विचित्रवीर्यनन्दन ! स्वायम्भुव मनुजी ने कहा है किनीचे लिखे सत्रह प्रकार के मनुष्यों को पाश हाथ में लिये यमराज के दूत नरक में ले जाते हैं---जो आकाश पर मुष्टि से प्रहार करता है, न झुकाये जा सकनेवाले वर्षाकालीन इन्द्रधनुष को झुकाना चाहता है, पकड़ में न आनेवाली सूर्य की किरणों को पकड़ने का प्रयास करता है, शासन के अयोग्य पुरुष पर शासन करता है, मर्यादा का उल्लंघन करके संतुष्ट होता है, शत्रु की सेवा करता है, स्त्रीरक्षा के द्वारा जीविका चलाता है, याचना करने के अयोग्य पुरुष से याचना करता है तथा आत्मप्रशंसा करता है, अच्छे कुल में उत्पन्न होकर भी नीच कर्म करता है, दुर्बल होकर भी बलवान से बैर बाँधता है, श्रद्धाहीन को उपदेश करता है, न चाहनेयोग्य वस्तु को चाहता है, श्वसुर होकर पुत्रवधू के साथ परिहास पसंद करता है तथा पुत्रवधू की सहायता से संकट से छूटकर भी पुनः उससे अपनी प्रतिष्ठा चाहता है, परस्त्रीसमागम करता है,  आवश्यकता से अधिक स्त्री की निंदा करता है, किसी से कोई वस्तु पाकर भी 'याद नहीं है' ऐसा कहकर उसे दबाना चाहता है, माँगने पर दान देकर उसके लिये अपनी डींग हाँकता है और झूठ को सही साबित करने का प्रयास करता है। जो मनुष्य अपने साथ जैसा वर्ताव करे, उसके साथ वैसा ही वर्ताव करना चाहिये---यही नीति है। कपट का आचरण करनेवाले के साथ कपटपूर्ण वर्ताव करें और अच्छा व्यवहार करनेवाले के साथ साधु व्यवहार से ही पेश आना लज्जा का, नीच पुरुषों की सेवा सदाचार का, क्रोध लक्ष्मी का और अभिमान सर्वस्व का ही नाश कर देता है। धृतराष्ट्र ने कहा---जब सभी वेदों में पुरुष को सौ वर्ष की आयुवाला बताया गया गया है, तो वह किस कारण से अपनी पूर्ण आयु को नहीं पाता ? विदुरजी बोले---राजन् ! आपका कल्याण हो। अत्यन्त अभिमान, अधिक बोलना, त्याग का अभाव, क्रोध, अपना ही पेट पालने की चिंता और मित्रद्रोह----ये छः तीखी तलवारें देहधारियों की आयु को काटती हैं। ये ही मनुष्यों का वध करती हैं, मृत्यु नहीं। भारत ! जो अपने ऊपर विश्वास करनेवाले की स्त्री के साथ समागम करता है, गुरुस्त्रीगामी है, ब्राह्मण होकर शूद्र की स्त्री से सम्बन्ध रखता है, शराब पीता है तथा जो बड़ों पर हुक्म चलानेवाला, दूसरों की जीविका नष्ट करनेवाला तथा शरणागत की हिंसा करनेवाला है---ये सब-के-सब ब्रह्महत्यारे के समान है; इनका संग हो जाने पर प्रायश्चित करें। बड़ों की आज्ञा माननेवाला, नीतिज्ञ, दाता, यज्ञशेष भोजन करनेवाला, हिंसारहित, अनर्थकारी कार्यों से दूर रहनेवाला, कृतज्ञ, सत्यवादी और कोमल स्वभाववाला विद्वान् स्वर्गगामी होता है। राजन् ! सदा प्रिय वचन बोलनेवाला मनुष्य तो सहज से ही मिल सकते हैं; किन्तु जो अप्रिय होता हुआ हितकारी हो, ऐसे वचन के वक्ता और श्रोता दोनो ही दुर्लभ हैं। जो धर्म का आश्रय लेकर तथा स्वामी को प्रिय लगेगा या अप्रिय---इसका विचार छोड़कर अप्रिय होनेपर भी हित की बात कहना है, उसी से राजा को सच्ची सहायता मिलती है। कुल की रक्षा के लिये एक मनुष्य का, ग्राम की रक्षा के लिये कुल का, देश की रक्षा के लिये गाँव की रक्षा के लिये गाँव का और आत्मा के कल्याण के लिये सारी पृथ्वी का त्याग कर देना चाहिये। आपत्ति के लिये धन की रक्षा करें।. पहले के समय में जूआ खेलना मनुष्यों में बैर डालने का कारण देखा गया है; अतः बुद्धिमान मनुष्य हँसी में भी जूआ न खेले। राजन् ! मैने जूए का खेल आरम्भ होते समय भी कहा था कि यह ठीक नहीं है; किन्तु रोगी को जैसे दवा औ पथ्य नहीं भाते, उसी तरह मेरी वह बात भी आपको अच्छी नहीं लगी। नरेन्द्र आप कौओं के समान अपने पुत्रों के द्वारा विचित्र पंखों वालों मोरों के सदृश पाण्डवों को पराजित करने का प्रयत्न कर रहे हैं, सिंहों को छोड़कर सियारों की रक्षा कर रहे हैं; समय आने पर आपको इसके लिये पश्चाताप करना पड़ेगा। तात ! जो स्वामी सदा हितसाधन में लगे रहनेवाले भक्त  सेवक पर कभी क्रोध नहीं करता, उसपर भृत्यगण विश्वास करते हैं और उसे आपत्ति के समय भी नहीं छोड़ते। सेवकों की जीविका बन्द करके दूसों क राज्य और धन के अपहरण का प्रयत्न नहीं करना चाहिये; क्योंकि अपनी जीविका छिन जाने से भोगों से वंचित होकर पहले से प्रेमी मंत्री भी उस समय विरोधी बन जाते हैं और राजा का परित्याग कर देते हैं। पहले कर्तव्य, आय-व्यय और उचित वेतन आदि का निश्चय करके फिर सुयोग्य सहायकों का सम्भव करें; क्योंकि कठिन-से-कठिन कार्य भी सहायकों द्वारा साध्य होते हैं। जो सेवक स्वामी के अभिप्राय को समझकर आलस्यरहित हो समस्त कार्यों को पूरा करता है, जो हित की बात कहनेवाला, स्वामिभक्त, सज्जन और राजा की शक्ति जाननेवाला है, उसे अपने समान समझकर कृपा करनी चाहिये। जो सेवक स्वामी के आज्ञा देने पर उनकी बात का आदर नहीं करता, किसी काम में लगाये जाने पर इनकार कर जाता है, अपनी बुद्धि पर गर्व करने और प्रतिकूल बोलनेवाले उस भृत्य को शीघ्र ही त्याग देना चाहिये। अहंकाररहित, कायरताशून्य, शीघ्र काम पूरा करनेवाला, दयालु, शुद्धहृदय, दूसरों के बहकावे में न आनेवाला, निरोग और उदार वचनवाला---इन आठ गुणों से युक्त मनुष्यों को 'दूत' बनाने योग्य बताया गया है। सावधान मनुष्य विश्वास होने पर भी सायंकाल में कभी शत्रु के घर न जाय, रात में छिपकर चौराहे पर न खड़ा हो और राजा जिस स्त्री को ग्रहण करना चाहता हो, उसे प्राप्त करने का यत्न न करें। दुष्ट सहायकोंवाला राजा जब बहुत लोगों के साथ मंत्रणासमिति में बैठकर सलाह ले रहा हो, उस समय उसकी बात का खण्डन न करें;  'मैं तुमपर विश्वास नहीं करता' ऐसा भी न कहें। अपितु कोई युक्तिसंगत बहाना बनाकर वहाँ से हट जायँ। अधिक दयालु राजा, व्यभिचारिणी स्त्री, राजकर्मचारी, पुत्र, भाई, छोटे बच्चों वाली विधवा, सैनिक और जिसका अधिकार छिन गया हो, वह पुरुष---इन सबके साथ लेन-देन का व्यवहार न करें। ये आठ गुण पुरुष की शोभा बढ़ाते हैं---बुद्धि, कुलीनता, शास्त्रज्ञान, इन्द्रिय-निग्रह, पराक्रम, अधिक न बोलने का स्वभाव,यथाशक्ति दान और कृतज्ञता। तात ! एक गुण ऐसा है, जो इन सभी महत्वपूर्ण गुणों पर हठात् अधिकार कर लेता है। राजा जिस समय मनुष्य का सत्कार करता है, उस समय यह गुण ( राजसम्मान ) उपर्युक्त सभी गुणों से बढ़कर शोभा पाता है। नित्य स्नान करनेवाले मनुष्य को बल, रूप, मधुर स्वर, उज्जवल वर्ण, कोमलता, सुगन्ध, पवित्रता, शोभा, सुकुमारता और सुन्दरी स्त्रियाँ---यह दस लाभ प्राप्त होते हैं। थोड़ा भोजन करनेवालों को निम्नांकित छः गुण प्राप्त होते हैं---आरोग्य, आयु, बल और सुख तो मिलते ही हैं; उसकी संतान सुन्दर होती हैं तथा यह बहुत खानेवाला है' ऐसा कहकर लोग उसपर आक्षेप नहीं करते।अकर्मण्य, बहुत खानेवाले, सब लोगों से वैर करनेवाले, अधिक मायावी, क्रूर, देश-काल का ज्ञान न रखनेवाले और निन्दित वेष धारण करनेवाले मनुष्य को कभी अपने घर में न ठहरने दें। बहुत दुःखी होने पर भी कृपण, गाली बकनेवाले, मूर्ख, जंगल में रहनेवाले, धूर्त, नीचसेवी, निर्दयी, वैर बाँधनेवाले और कृतध्न से कभी सहायता की याचना नहीं करनी चाहिये। क्लेशप्रद कर्म करनेवाला, अत्यन्त प्रमादी, सदा असत्यभाषण करनेवाला, अस्थिर भक्तिवाला, स्नेह से रहित, अपने को चतुर माननेवाला---इन छः प्रकार के अधम पुरुषों की सेवा न करें। धन की प्राप्ति सहायक की अपेक्षा रखते हैं; ये दोनो एक दूसरे के आश्रित हैं, परस्पर के सहयोग बिना इनकी सिद्धि नहीं होती।  पुत्रों को उत्पन्न कर उन्हें ऋण के भार से मुक्त करके उनके लिये किसी जीविका का प्रबन्ध कर दे; फिर कन्याओं का योग्य वर के साथ विवाह कर देने के पश्चात् वन में मुनिवृति से रहने की इच्छा करे। जो संपूर्ण प्राणियों के लिये लिये हितकर और अपने लिये भी सुखद हो, उसे ईश्वरार्पण बुद्धि से करे, सम्पूर्ण सिद्धियों का यही मूलमंत्र है। जिसमें बढ़ने की शक्ति, प्रभाव, तेज, पराक्रम, उद्योग और निश्चय है, उसे अपनी जीविका के नाश का भय कैसे हो सकता है ? पाण्डवों के साथ युद्ध करने में जो दोष है, उनपर दृष्टि डालिये; उनसे संग्राम छिड़ जाने पर इन्द्र आदि देवताओं को भी कष्ट ही उठाना पड़ेगा। इसके सिवा पुत्रों के साथ वैर, नित्य उद्वेगपूर्ण जीवन, कीर्ति का नाश और शत्रुओं को आनन्द होगा। आकाश में तिरछे उदित हुए धूमकेतू से से सारे संसार में अशान्ति और उपद्रव खड़ा हो जाता है, उसी तरह भीष्म, आप, द्रोणाचार्य और राजा युधिष्ठिर का बढ़ा हुआ कोप इस संसार का संहार कर सकता है। आपके सौ पुत्र, कर्ण और पाँच पाण्डव---ये सब मिलकर समुद्र-पर्यन्त सम्पूर्ण पृथ्वी का शासन कर सकते हैं। राजन् ! आपके पुत्र वन के समान हैं और पाण्डव उसमें रहनेवाले व्याघ्र हैं। आप व्याघ्रोंसहित समस्त वन को नष्ट न कीजिये तथा वन से उन व्याघ्रों को दूर न भगाइये। व्याघ्रों के बिना वन की रक्षा नहीं हो सकती तथा वन के बिना व्याघ्र नहीं रह सकते; क्योंकि व्याघ्र वन की रक्षा करते हैं और वन व्याघ्र की। जिनका मन पापों में लगा रहता है, वे लोग दूसरों के कल्याणमय गुणों को जानने की वैसी इच्छा नहीं रखते, जैसी की उनके अवगुणों को जानने की रखते हैं। जो अर्थ की पूर्ण सिद्धि चाहता हो, उसे पहले धर्म का ही आचरण करना चाहिये। जैसे स्वर्ग से अमृत दूर नहीं होता, उसी प्रकार धर्म से अर्थ अलग नहीं होता। जिसकी बुद्धि पाप से हटाकर कल्याण में लगा दी गयी है, उसने संसार में जो भी प्रकृति और विकृति है---उस सबको जान लिया है। जो समयानुसार धर्म, अर्थ और काम प्राप्त करता है , वह इस लोक और परलोक में भी धर्म, अर्थ और काम को प्राप्त करता है। राजन् ! जो क्रोध और हर्ष के उठे हुए वेग को रोक लेता है और आपत्ति में भी धैर्य को खो नहीं बैठता, वही राजलक्ष्मी का अधिकारी होता है। राजन् ! आपका कल्याण हो, मनुष्यों में सदा पाँच प्रकार का बल होता है; उसे सुनिये। जो बाहुबल है, वह कनिष्ठ बल कहलाता है; मंत्री का मिलना दूसरा बल है; धन के लाभ को तीसरा बल भी माना जाता है; और राजन् ! जो बाप दादों से प्राप्त हुआ स्वाभाविक बल ( कुटुम्ब का बल ) है, वह 'अभिजात ' नामक चौथा बल है। जिससे इन सभी बलों का संग्रह हो जाता है, वह बलों में श्रेष्ठ 'बुद्धि का बल' कहलाता है।जो मनुष्य का बहुत बड़ा अपकार कर सकता है, उस व्यक्ति के साथ वैर ठानकर यह इस विश्वास पर निश्चिन्त न हो जाय कि मैं उससे दूर हूँ ( वह मेरा कुछ नहीं कर सकता)। ऐसा कौन बुद्धिमान होगा जो स्त्री, राजा, साँप, पढ़े हुए पाठ, सामर्थ्यशाली व्यक्ति शत्रु, भोग और आयुष्य पर पूर्ण विश्वास कर सकता है ? जिसको बुद्धि के बाण से मारा गया है, उस जीव के लिये न कोई वैद्य है, न दवा है, न होम, न मंत्र, न कोई मांगलिक कार्य न भलीभाँति सिद्ध हुई बूटी ही है। मनुष्य को चाहिये कि वह साँप, अग्नि, सिंह और अपने कुल में उत्पन्न व्यक्ति का अनादर न करे; क्योंकि ये सभी बड़े तेजस्वी होते हैं। संसार में अग्नि एक महान् तेज है, वह काठ में छिपी रहती है; किन्तु जबतक दूसरे लोग उसे प्रज्जवलित न कर दें, तबतक वह उस काठ को नहीं जलाती। वही अग्नि दि काठ से बचकर उद्दीप्त कर दी जात है, तो वह अपने तेज से इस काठ को तथा दूसरे जंगल को जल्दी ही जला डालती है। इसी प्रकार अपने कुल में उत्पन्न वे अग्नि के समान तेजस्वी पाण्डव क्षमाभाव से युक्त और विकारशून्य हो काष्ठ में छिपी अग्नि की तरह शान्तभाव से स्थित हैं। अपने पुत्रों सहित आप लता के समान हैं और पाण्डव महान् शालवृक्ष के सदृश हैं; महान् वृक्ष का आश्रय लिये बिना लता कभी बढ़ नहीं सकती। राजन् ! आपके पुत्र वन हैं और पाण्डवों को उसके भीतर रहनेवाले सिंह समझिये। तात ! सिह से सूना हो जा पर वन नष्ट हो जाता है और वन के बिना सिंह भी नष्ट हो जाते हैं।


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