Friday 22 April 2016

विराटपर्व---कीचक और उसके भाइयों का वध और राजा का सैरन्ध्री को संदेश

कीचक और उसके भाइयों का वध और राजा का सैरन्ध्री को संदेश
इसे बाद भीमसेन रात्रि के समय नृत्यशाला में जाकर छिपकर बैठ गये और इस प्रकार कीचक की प्रतीक्षा करने लगे, जैसे सिंह मृग की घात में बैठा रहता है। इस समय पांचाली के साथ समागम होने की आशा से कीचक भी मनमानी तरह से सज-धजकर नृत्यशाला में आया। वह संकेतस्थान सझकर नृत्यशाला के भीतर चला गया। उस समय वह भवन सब ओर अन्धकार से व्याप्त था। अतुलित पराक्रमी भीमसेन तो वहाँ पहले से ही मौजूद थे और एकान्त में एक शैय्या पर लेटे हुए थे। दुर्मति कीचक भी वहीं पहुँच गया और उन्हें हाथ से टटोलने लगा। द्रौपदी के अपमान के कारण भीम इस मय क्रोध से जल रहे थे। काममोहित कीचक ने उनके पास पहुँचकर हर्ष से उन्मत्त चित्त हो मुस्कुराकर कहा---'सुभ्रू ! मैने अनेक प्रकार से जो अनन्त धन संचित किया है, वह सब मैं तुम्हे भेंट करता हूँ। तथा मेरा जो धन-रत्नादि से सम्पन्न सैकड़ों दासियों से सेवित, रूप-लावण्यमयी रमणीरत्नों से विभूषित और क्रीड़ा एवं रति की सामग्रियों से सुशोभित भवन है, वह भी तुम्हारे लिये ही निछावर करके मैं तुम्हारे पास आया हूँ। मेरे अन्तःपुर की नारियाँ अकस्मात् मेरी प्रशंसा करने लगती हैं कि आपके समान सुन्दर वेष-भूषा से सुसज्जित और दर्शनीय कोई दूसरा पुरुष नहीं है। भीमसेन ने कहा---आप दर्शनीय हैं---यह बड़ी प्रसन्नता की बात है, किन्तु आपने ऐसा स्पर्श पहले कभी नहीं किया होगा। ऐसा कहकर महाबाहु भीमसेन सहसा उछलकर खड़े हो गये और उससे हँसकर कहने लगे, 'रे पापी ! तू पर्वत के समान बड़े डील-डौलवाला है; परन्तु सिंह-जैसे विशाल गजराज को घसीटता है, उसी प्रकार आज मैं तुझे पृथ्वी पर मसलूँगा और तेरी बहिन यह सब देखेगी। इस प्रकार जब तू मर जायगा तो सैरन्ध्री बेखटके बिचरेगी तथा उसके पति भी आनन्द से अपने दिन बितावेंगे। तब महाबली भीम ने उसके पुष्पगुम्फित केश पकड़ लिये। कीचक भी बड़ा बलवान् था। उसने अपने केश छुड़ा लिये और बड़ी फुर्ती से दोनों हाथों से भीमसेन को पकड़ लिया। फिर उन क्रोधित पुरुषसिंहों में परस्पर बाहुयुद्ध होने लगा। दोनो ही बड़े वीर थे। उनकी भुजाओं की रगड़ से बाँस फटने की कड़क के समान बड़ा भारी शब्द होने लगा। फिर जिस प्रकार प्रबल आँधी वृक्ष को झझोड़ डालती है, उसी प्रकार भीमसेन कीचक को धक्के देकर सारी नृत्यशाला में घुमाने लगे। महाबली कीचक ने भी अपने घुटनों की चोट से भीमेन को भूमि पर गिरा दिया। तब भीमसेन दण्डपाणि यमराज के समान बड़े वेग से उछलकर खड़े हो गये। भीम और कीचक दोनो ही बड़े बलवान् थे। इस समय स्पर्धा के कारण वे और भी उन्मत्त हो गये तथा आधी रात के समय उस निर्जन नाट्यशाला में एक-दूसरे को रगड़ने लगे। वे क्रोध में भरकर भीषण गर्जना कर रहे थे, इससे वह भवन बार-बार गूँज उठता था। अन्त में भीमसेन ने क्रोध में भरकर उसके बाल पकड़ लिये और उसे थका देखकर इस प्रकार अपनी भुजाओं में कस लिया, जैसे रस्सी से पशु को बाँध देते हैं। अब कीचक फूटे हुए नगारे के समान जोर-जोर से डकराने और उनकी भुजाओं से छूटने के लिये छटपटाने लगा। किन्तु भीमसेन ने उसे कई बार पृथ्वी पर घुमाकर उसका गला पकड़ लिया और कृष्णा के कोप को शान्त करने के लिये उसे घोंटने लगे। इस प्रकार जब उसके सब अंग चकनाचूर हो गये और आँखों ी पुतलियाँ बाहर निकल आयीं तो उन्होंने उसी पीठ पर अपने दोनो घुटने टेक दिेये और उसे अपनी भुजाओं से मरोड़कर पशु की मौत मार डाला। कीचक को मारकर भीमसेन ने उसके हाथ, पैर, सिर और गरदन आदि अंगों को पिण्ड के भीतर ही घुसा दिया। इस प्रकार उसके सब अंगों को तोड़-मरोड़कर उसे मांस का लोदा बना दिया और द्रौपदी को दिखाकर कहा, 'पांचाली ! जरा यहाँ आकर देखो तो इस कान के कीड़े की क्या गति बनायी है।' ऐसा कहकर उन्होंने दुरात्मा कीचक के पिण्ड को पैरों से ठुकराया और द्रौपदी से कहा, 'भीरु ! जो कोई तुम्हारे ऊपर कुदृष्टि डालेगा, वह मारा जायगा और उसकी यही गति होगी। इस प्रकार कृष्णा की प्रसन्नता के लिये उन्होंने यह दुष्कर कर्म किया। फिर जब उनका क्रोध ठंडा पड़ गया तो वे द्रौपदी से पूछकर पाकशाला में चले गये। कीचक का वध कराकर द्रौपदी बड़ी प्रसन्न हुई, उसका सारा संताप शान्त हो गया। फिर उसने उस नृत्यशाला की रखवाली करनेवालों से कहा, देखो, यह कीचक पड़ा हुआ है; मेरे पति गन्धर्वों ने उसकी यह गति की है। तुमलोग वहाँ जाकर देखो तो सही। द्रौपदी की यह बात सुनकर नाट्यशाला के सहस्त्रों चौकीदार मशालें लेकर वहाँ आ गये। फिर उन्होंने उसे खून से लथपथ और प्राणहीन अवस्था में पृथ्वी पर पड़े देखा। उसे बिना हाथ पाँव का देखकर उन सबको बड़ी व्यथा हुई। उसे उस स्थिति में देखकर सभी को बड़ा विस्मय हुआ। उसी समय कीचक के सब बन्धु-बान्धव वहाँ एकत्रित हो गे और उसे चारों ओर से घेरकर विलाप करने लगे। उसकी ऐसी दुर्गति देखकर सभी के रोंगटे खड़े हो गये। उसके सारे अवयव शरीर में घुस जाने के कारण वह पृथ्वी पर निकालकर रखे हुए कछुए के समान जान पड़ता था। फिर उसके सगे-संबंधी उसका दाह-संस्कार करने के लिये नगर से बाहर ले जाने की तैयारी करने लगे। उनकी दृष्टि लाश से थोड़ी ही दूरी पर एक खम्भे का सहारा लिये खड़ी हुई द्रौपदी पर पड़ी। जब सब लोग इकट्ठे हो गये तो उन उपकीचकों ( कीचक के भाइयों ) ने कहा, 'इस दुष्टा को अभी मार डालना चाहिये, इसी के कारण कीचक की हत्या हुई है। अथवा मारने की भी क्या आवश्यकता है, कामासक्त कीचक के साथ इसे भी जला दो; ऐसा करने से मर जाने पर भी सूतपुत्र का प्रिय ही होगा।' यह सोचकर उन्होंने राजा विराट से कहा, 'कीचक की मृत्यु सैरन्ध्री के कारण ही हुई है, अतः हम इसे कीचक के साथ ही जला देना चाहते हैं; आप इसके लिये आज्ञा दे दीजिये।' राजा ने सूतपुत्रों के पराक्रम की ओर देखकर सैरन्ध्री को कीचक के साथ जला डालने की सम्मति दे दी। बस, उपकीचकों ने भय से अचेत हुई कमलनयनी कृष्णा को पकड़ लिया और उसे कीचक की रथी पर डालकर बाँध दिया। इस प्रार वे रथी उठाकर मरघट की ओर चले। कृष्णा सनाथा होने पर भी सूतपुत्रों के चंगुल में पड़कर अनाथा की तरह विलाप करने लगी और सहायता के लिये चिल्ला-चिल्लाकर कहन लगी, 'जय, जयंत, विजय, जयत्सेन और जयद्वल मेरी टेर सुनें। ये सूतपुत्र मुझे लिये जा रहे हैं। जिन वेगवान् गन्धर्वों के धनुष की प्रत्यंचा का भीषण शब्द संग्रामभूमि में वज्राघात के समान सुनायी देता है और जिनके रथों का घोष बड़ा ही प्रबल है, वे मेरी पुकार सुनें; हाय ! ये सूतपुत्र मुझे लिये जा रहे हैं।' कृष्णा की यह दीन वाणी और विलाप सुनकर भीमसेन बिना कोई विचार किये अपनी शैय्या से खड़े हो गये और कहने लगे, 'सैरन्ध्री ! तू जो कुछ कह रही है, वह मैं सुन रहा हूँ; इसलिये अब इन सूतपुत्रों से तेरे लिये कोई भय की बात नहीं है।' ऐसा कहकर वे नगर के परकोटा लाँघकर बाहर आये और बड़े तेजी से श्मशान की ओर चले। चिता के समीप उन्हें तार के समान एक दस व्याम ( दोनो हाथों को फैलाने से जितनी लम्बाई होती है, उसे एक व्याम कहते हैं ) लम्बा वृक्ष दिखाई दिया। उसकी शाखाएँ मोटी-मोटी थीं तथा ऊपर से वह सूखा हुआ था।उसे भीमसेन ने भुजाओं में भरकर हाथी के मान जोर लगाकर उखाड़ लिया और उसे कन्धे पर रखकर दण्डपाणि यमराज के समान सूतपुत्रों की ओर चले। इस सय उनकी जंघाओं से टकराकर वहाँ अनेकों बड़, पीपल और ढ़ाक के वृक्ष गिर गये। भीमसेन को सिंह के समान क्रोधपूर्वक अपनी ओर आते हुए देखकर सब सूतपुत्र डर गये और भय और विषाद से काँपते हुए कहने लगे, 'अरे ! देखो, यह बलवान् गन्धर्व वृक्ष उठाये बड़े क्रोध से हमारी ओर आ रहा है; जल्दी ही इस सैरन्ध्री को छोड़ो, इसी के कारण हमें यह भय उपस्थित हुआ है।' अब तो भीमेनको वृक्ष उठाये देखकर वे सब-के-सब सैरन्ध्री को छोड़कर नगर की ओर भागने लगे। उन्हें भागते देखकर पवननन्दन भीमसेन ने, जैसे इन्द्र दानवं का वध करते हैं उसी प्रकार, उस वृक्ष से एक सौ पाँच उपकीचकों को यमराज के घर भेज दिया। उसके पश्चात् उन्होंने द्रौपदी को बन्धन से छुड़ाकर ढ़ाढ़स दिया। इस समय पांचाली के नेत्रों से निरन्तर आँसुओं की धारा बह रही थी और वह अत्यन्त दीन हो रही थी। उससे दुर्जय वीर भीमसेन ने कहा, 'कृष्णे ! तेरा कोई अपराध न होने पर भी जो लोग तुझे तंग करेंगे, वे इसी प्रकार मारे जायेंगे। अब तू नगर को चली जा, तेरे लिये कोई भय की बात नहीं है। मैं दूसरे रास्ते से राजा विराट के रसोईघर की ओर जाऊँगा।' जब नगरनिवासियों ने सारा काण्ड देखा तो उन्होंने राजा विराट के पास जाकर निवेदन किया कि गन्धर्वों ने महाबली सूतपुत्रों को मार डाला है और सैरन्ध्री उनके हाथ से छूटकर राजभवन की ओर जा रही है। उनकी यह बात सुनकर राजा विराट ने कहा, 'आपलोग सूतपुत्रों की अन्त्येष्टि क्रिया करें। बहुत से सुगंधित पदार्थ और रत्नों के साथ सब कीचकों को एक ही प्रज्जवलित चिता में जला दो।' फिर कीचकों के वध से भयभीत हो जाने के कारण महारानी सुदेष्णा के पास जाकर कहा, "जब सैरन्ध्री यहाँ आवे तो तुम मेरी ओर से उससे यह कह देना कि 'सुमुुखि ! तुम्हारा कल्याण हो, अब तुम्हारी जहाँ इच्छा हो वहाँ चली जाओ; महाराज गन्धर्वों के तिरस्कार से डर गये हैं।"  राजन् ! जब द्रौपदी सिंह से डरी हुई मृगी के समान अपने शरीर और वस्त्रों को धोकर नगर में आयी तो उसे देख पुरवासी लोग गन्धर्वों से भयभीत होकरगन्धर्वों से भयभीत होकरइधर-उधर भागने लगे तथा किन्ही-किन्ही ने नेत्र ही मूँद लिये। रास्ते में द्रौपदी नृत्यशाला में अर्जुन से मिली, जो इन दिनों राजा विराट की कन्या को नाचना सिखाते थे। उन्होंने कहा, 'सैरन्ध्री ! तू उन पापियों के हाथ से कैसे छूटी और वे कैसे मारे गये ? मैं सब बातें तेरे मुख से ज्यों-की-त्यों सुनना चाहती हूँ।' सैरन्ध्री ने कहा, 'बृहनल्ले !  अब तुम्हे सैरन्ध्री से क्या काम है ? क्योंकि तुम तो मौज में इन कन्याओं के अन्तःपुर में रहती हो। आजकल सैरन्ध्री पर जो-जो दुःख पड़े हैं, उनसे तुम्हे क्या मतलब है। इसी से मेरी हँसी करने के लिये तुम इस प्रकार पूछ रही हो।' बृहनल्ला ने कहा, 'कल्याणी ! इस नपुंसक योनि में पड़कर बृहनल्ला भी जो महान् दुःख पा रही है, उसे क्या तू नहीं समझती ? मैं तेरे साथ रही हूँ और तू भी हम सबके साथ रहती रही है। भला, तेरे ऊपर दुःख पड़ने पर किसको दुःख न होगा ?' इसके बाद कन्याओं के काथ ही द्रौपदी राजभवन में गयी और रानी सुदेष्णा के पास जाकर खड़ी हो गयी। तब सुदेष्णा ने राजा विराट के कथनानुसार उससे कहा, 'भद्रे ! महाराज को गन्धर्वों से तिरस्कृत होने का भय है। तू भी तरुणी है और संसार में तेरे समान कोई रूपवती भी दिखायी नहीं देती। पुरुषों को विषय तो स्वभाव से ही प्रिय होता है और तेरे गन्धर्व बड़े क्रोधी हैं। अतः जहाँ तेरी इच्छा हो, वहाँ चली जा।' सैरन्ध्री ने कहा, 'महारानीजी ! तेरह दिन के लिये महाराज मुझे और क्षमा करें। इसके पश्चात् गन्धर्वगण मुझे स्वयं ही ले जायेंगे और आपका भी हित करेंगे।


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