द्रौपदी पर कीचक की
आसक्ति और उसके द्वारा द्रौपदी का अपमान
पाण्डवों के मत्स्यनरेश
की राजधानी में रहते हुए दस महीने बीत गये। द्रौपदी,जो स्वयं स्वामिनी की भाँति सेवा के योग्य थी, रानी सुदेष्णा
की सुश्रूषा करती हुई बड़े कष्ट से समय व्यतीत करती थी। जब वर्ष पूरा होने में कुछ ही
समय बाकी रह गया, तब की बात है। एक दिन राजा विराट के सेनापति महाबली कीचक की दृष्टि
उस द्रौपदी पर पड़ी, जो राजमहल में देवकन्या के समान विचर रही थी। वह कीचक राजा विराट का साला था, वह सैरन्ध्री को देखते
ही कामवाण से पीड़ित होकर उसे चाहने लगा। कामना की आग में जलता हुआ कीचक अपनी बहिन रानी
सुदेष्णा के पास गया और हँस-हँसकर कहने लगा---'सुदेष्णे ! यह सुन्दरी, जो मुझे अपने
रूप से उन्मत्त बना रही है, पहले तो कभी इस महल मं नहीं देखी गयी थी। देवांगना के समान
यह मन को मोहे लेती है। बताओ यह कौन है ? किसकी स्त्री है ? और कहाँ से आयी है ? मेरा
चित्त इसके अधीन हो चुका है; अब इसकी प्राप्ति के सिवा दूसरी कोई औषधि नहीं है, जो
मेरे हृदय को शान्ति दे सके। बड़े आश्चर्य की बात है कि यह तुम्हारे यहाँ दासी का
काम कर रही है; यह कार्य कदापि इसके योग्य नहीं है। मैं तो इसे अपनी तथा अपने सर्वस्व
की स्वामिनी बनाना चाहता हूँ।' इस प्रकार रानी सुदेष्णा से कहकर कीचक राजकुमारी द्रौपदी
के पास आकर बोला---'कल्याणी ! तुम कौन हो ? किसकी कन्या हो और कहाँ से आयी हो ? ये
सब बातें मुझे बताओ । तुम्हारा यह सुन्दर रूप,
यह दिव्य छवि और यह सुकुमारता संसार में सबसे बढ़कर है। और यह उज्जवल मुख तो अपनी कमनीय
कान्ति से चन्द्रमा को भी लज्जित कर रहा है। तुम जैसी मनोहारिणी स्त्री इस पृथ्वी पर मैंने आज से पहले कभी नहीं
देखी थी। सुमुखी ! बताओ तो तुम कमलों में वास करनेवाली लक्ष्मी हो या साकार विभूति
? लज्जा, श्री, कीर्ति और कान्ति---इन देवियों में से तुम कौन हो ? यह स्थान तुम्हारे
रहने के लायक नहीं है। मैं तुम्हें सर्वोत्तम सुख-भोग समर्पण करना चाहता हूँ, स्वीकार
करो। इसके बिना तुम्हारा रूप और सौन्दर्य व्यर्थ जा रहा है। सुन्दरी ! यदि तुम आज्ञा
दो तो मैं अपनी पहली स्त्रियों को त्याग दूँ अथवा उन्हें तुम्हारी दासी बनाकर रखूँ।
मैं स्वयं भी सेवक के समान तुम्हारे अधीन रहूँगा। द्रौपदी ने कहा---मैं परायी स्त्री
हूँ, मुझसे ऐसा कहना उचित नहीं है। जगत् के सभी प्राणी अपनी स्त्री से प्रेम करते हैं,
तुम भी धर्म का विचार करके ऐसा ही करो। दूसरे की स्त्री की ओर कभी किसी प्रकार मन नहीं
चलाना चाहिये। सत्पुरुषों का यह नियम होता है कि वे अनुचित कर्मों का सर्वथा त्याग
कर देते हैं। सैरन्ध्री की
यह बात सुनकर कीचक बोला---'सुन्दरी ! तुम मेरी प्रार्थना को इस तरह मत ठुकराओ। मैं
तुम्हार लिये बड़ा कष्ट पा रहा हूँ; मुझे अस्वीकार करके तुम्हे बड़ा पछतावा होगा। इस
संपूर्ण राज्य पर मेरा ही शासन है, मैं किसी को भी उजारने-बसाने की शक्ति रखता हूँ।
शारीरिक बल में भी मेरे समान इस पृथ्वी पर कोई नहीं है। मैं अपना सारा राज्य तुमपर निछावर कर रहा हूँ; पटरानी
बनो और मेरे साथ सर्वोत्तम भोग भोगो।' सैरन्ध्री बोली---सूतपुत्र ! तू इस प्रकार मोह
के फंदे में पड़कर अपनी जान न गँवा। याद रख, पाँच गन्धर्व मेरे पति हैं; वे बड़े भयानक
हैं और सदा मेरी रक्षा करते हैं। अतः इस कुत्सित विचार को त्याग दे; नहीं तो मेरे पति
कुपित होकर तुम्हे मार डालेंगे। क्यों अपना सर्वनाश कराना चाहता है ? कीचक ! मुझपर
कुदृष्टि डालकर तू आकाश, पाताल या समुद्र से भी छिपे तो मेरे आकाशचारी पतियों के हाथ
से जीवित नहीं बच सकता। जैसे कोई रोगी
कष्ट पाकर मौत को बुलावे, उसी प्रकार तू भी कालरात्री के समान मुझसे क्यों याचना कर
रहा है ? राजकुमारी द्रौपदी
के ठुकराने पर कीचक कामसंतप्त हो सुदेष्णा के पास जाकर बोला, 'बहिन ! जिस उपाय से भी
सैरन्ध्री मुझे स्वीकार करे, सो करो; नहीं तो उसके मोह में मैं प्राण दे दूँगा।' इस
प्रकार विलाप करते हुए कीचक की बात सुनकर रानी ने कहा---'भैया ! मैं सैरन्ध्री को एकान्त
में तुम्हारे पास भेज दूँगी; वहाँ यदि सम्भव हो तो उसे अपने इच्छानुसार समझा-बुझाकर
प्रसन्न कर लेना।' अपनी बहिन की बात मानकर कीचक वहाँ से चला गया और किसी पर्व के दिन
अपने घर पर उसने खाने-पीने की बहुत उत्तम सामग्री तैयार करवायी। तत्पश्चात् सुदेष्णा
को उसने भोजन के लिये आमनंत्रित किया। सुदेष्णा ने सैरन्ध्री को बुलाकर कहा---'कल्याणी ! मुझे बड़े जोर की
प्यास लग रही है। तुम कीचक के घर जाओ और वहाँ से पीने योग्य रस ले आओ।' सैरन्ध्री बोली ---रानी ! मैं उसके घर
नहीं जाऊँगी। आप तो जानती
ही हैं कि वह कितना निर्लज्ज है ! मैं आपके यहाँ व्यभिचारिणी होकर नहीं रहूँगी। जिस
समय मेरा इस महल में प्रवेश हुआ था, उस समय की प्रतिज्ञा तो आपको याद होगी ही। फिर
मुझे क्यों भेज रही हैं ? मूर्ख कीचक काम
से पीड़ित हो रहा है, देखते ही मेरा अपमान कर बैठेगा। आपे यहाँ और भी बहुत सी दासियाँ
हैं, उन्हीं में से किसी को भेज दीजिये। मैं तो अपमान के डर से वहाँ नहीं जाना चाहती। सुदेष्णा ने कहा---'मैं तुम्हे यहाँ से भेज रही हूँ,
अतः वह कदापि अपमान नहीं कर सकता।' यह कहकर उसने उसके हाथ में ढ़क्कनसहित एक सुवर्णमय
पात्र दे दिया। द्रौपदी उसे लेकर रोती और डरती हुई कीचक के घर की ओर चली। अपने सतीत्व
की रक्षा के लिये मन-ही-मन भगवान् सूर्य की शरण में गयी। सूर्य ने उसकी देख-रेख के
लिये गप्तरूप से एक राक्षस भेजा, जो सब अवस्थाओं में साथ रहकर उसकी रक्षा करने लगा। द्रौपदी भयभीत हुई हरिणी के समान डरते-डरते उसके पास
गयीं। उसे देखते ही वह आनन्द में भरकर खड़ा हो गया और बोला---'सुन्दरी ! तुम्हारा स्वागत
है, मेरे लिये आज की रात्रि का प्रभात बड़ा मंगलमय होगा। मेरी रानी ! तुम मेरे घर आ
गयी; अब मेरा प्रिय काम करो।' द्रौपदी बोली---'मुझे महारानी सुदेष्णा ने यह कहकर भेजा
है कि शीघ्र जाकर पीनेयोग्य रस ले आओ, प्यास सता रही है।' कीचक ने कहा---'कल्याणी
! उसकी मँगायी हुई चीजें दूसरी दासियाँ पहुँचा देंगी।' यह कहकर उसने द्रौपदी का दाहिना
हाथ पकड़ लिया। द्रौपदी बोली---'पापी ! यदि मैने आजतक कभी मन से भी अपने पतियों के विरुद्ध
आचरण नहीं किया हो तो देखूँगी कि तू शत्रु से पराजित होकर पृथ्वी पर घसीटा जा रहा है।'
इस प्रकार कीचक का तिरस्कार करती हुई द्रौपदी पीछे हट रही थी और वह उसे पकड़ना चाहता
था। वह झटके देकर अपने को छुड़ाने का उद्योग कर ही रही थी कि कीचक ने सहसा झपटकर उसके
दुपट्टे का छोर पकड़ लिया। अब वह बड़े वेग से उसे काबू में लाने का प्रयोग करने लगा।
बेचारी द्रौपदी बार-बार लम्बी साँसे लेने लगी। फिर संभलकर उसने कीचक को बड़े जोर का
धक्का दिया, जिससे वह पापी जड़ से कट हुए वृक्ष की भाँति धम्म से जमीन पर जा गिरा। उसे
गिराकर वह काँपती हुई दौड़कर राजसभा की शरण में आ गई। कीचक ने उठकर भागती हुई द्रौपदी
का पीछ किया और उसके केश पकड़ लिये। फिर राजा के सामने ही उसे पृथ्वी पर गिराकर लात
मारी। इतने में सूर्य के द्वारा नियुक्त राक्षस ने कीचक को पकड़कर आँधी के समान वेग
से दूर फेंक दिया। कीचक का सारा शरीर काँप उठा और वह निष्चेष्ट होकर पृथ्वी पर गिर
पड़ा। उस समय राजसभा में युधिष्ठिर और भीमसेन भी बैठे थे, उन्होंने द्रौपदी का वह अपमान
अपनी आँखों से देखा। यह अन्याय उनसे
सहा नहीं गया, दोनो भाई आमर्ष से भर गये। भीम तो उस दुरात्मा कीचक को मार डालने की
इच्छा से क्रोध के मारे दाँत पीसने लगे। उनकी आँखों के सामने धुआँ छा गया, भौंहें टेढ़ी हो गयीं और ललाट से पसीना
निकलने लगा। वे क्रोधावेश में उठना ही चाहते थे कि युधिष्ठिर ने अपना गुप्त रहस्य प्रकट
हो जाने के डर से अपने अंगूठे से उनका अंगूठा दबाकर रोक दिया। इतने में द्रौपदी राजभवन के द्वार पर आ गयी और मत्स्यराज
से सुनाकर कहने लगी---'मेरे पति संपूर्ण जगत् को मार डालने की शक्ति रखते हैं, किन्तु
वे धर्म के पाश में बँधे हुए हैं; मैं उनकी सम्मानित ऱ्मपत्नी हूँ, तो भी आज एक सूतपुत्र
ने मुझे लात मारी है। हाय ! जो शरणार्थिों को सहारा देनेवाले हैं और इस जगत् में गुप्तरूप
से विचरते रहते हैं, वे मेरे पति महारथी वीर आज कहाँ हैं ? अत्यन्त बलवान् और तेजस्वी
होते हुए भी अपनी इस प्रियतमा और पतिव्रता पत्नी को एक सूत के द्वारा अपमानित होते
देख कैसे कायरों की भाँति बर्दाश्त कर रहे हैं ? यहाँ का राजा विराट भी धर्म को दूषित
करनेवाला है। भला, इसके रहते
हुए मैं अपने इस अपमान का बदला क्योंकर ले सकती हूँ ? यह राजा होकर भी कीचक के प्रति
राजोचित न्याय नहीं कर रहा है ! मत्स्यराज ! तुम्हारा यह लुटेरों का सा धर्म इस राजसभा
में शोभा नहीं देता। तुम्हारे निकट आकर भी कीचक के द्वारा मेरे प्रति जो व्यवहार हुआ
है, वह कभी उचित नहीं कहा जा सकता। वह स्वयं तो पापी है ही, इस मत्स्यनरेश को भी धर्म
का ज्ञान नहीं है। साथ ही ये सभासद् भी धर्म को नहीं जानते, तभी तो धर्म को न जाननेवाले
इस राजा की सेवा करते हैं।' इस प्रकार आँखों
में आँसू भरे द्रौपदी ने बहुत सी बातें कहकर राजा विराट को उलाहना दिया। फिर सभासदों
के पूछने पर उसने कलह का कारण बताया। इस रहस्य को जानकर सभी सदस्यों ने द्रौपदी के
सत्साहस की प्रशंसा की और कीचक को बारंबार धिक्कारते हुए कहा---'यह साध्वी जिस पुरुष
की धर्मपत्नी है, उसे जीवन में बहुत बड़ा लाभ मिला है। मनुष्यजाति में तो ऐसी स्त्री
का मिलना कठिन ही है। हम तो इसे मानवी
नहीं, देवी मानते हैं।' इस प्रकार सब सभासद् लोग द्रौपदी की प्रशंसा कर रहे थे, युधिष्ठिर
ने उससे कहा---'सैरन्ध्री ! अब यहाँ खड़ी न हो, रानी सुदेष्णा के महल में चली जा। तेरे
पति गन्धर्व अभी अवसर नहीं देखते, इसलिये नहीं आ रहे हैं। वे अवश्य ही तेरा प्रिय कार्य
करेंगे और जिसने तुम्हें कष्ट दिया है, उसे नष्ट कर डालेंगे।'द्रौपदी चली गयी, उसके
बाल खुले हुए थे और आँखें क्रोध से लाल हो रही थीं। रानी सुदेष्णा ने उसे रोते और आँसू
बहाते देखकर पूछा---'कल्याणी ! तुम्हें किसने मारा है ? क्यों रो रही हो ? किसके भाग्य
से आज सुख उठ गया, जिसने तुम्हारा अप्रिय किया है ?' द्रौपदी ने कहा---'आज दरबार में
राजा के सामने ही कीचक ने मुझे मारा है।' सुदेष्णा बोली---'सुन्दरी ! कीचक काम से मतवाला
होकर बारम्बार तुम्हारा अपमान कर रहा है; तुम्हारी राय हो तो मैं आज ही उसे मरवा डालूँ।'
द्रौपदी ने कहा---'वह जिनका अपराध कर रहा है, वे ही लोग उसका वध करेंगे। अब अवश्य ही
वह यमलोक की यात्रा करेगा।'
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