Sunday 3 April 2016

विराटपर्व---सहदेव, अर्जुन और नकुल का विराट के भवन में प्रवेश

सहदेव, अर्जुन और नकुल का विराट के भवन में प्रवेश
तदनन्तर सहदेव भी ग्वाले का वेष बनाकर वैसी ही भाषा बोलता हुआ राजाविराट की गोशाला के निकट आया। उस तेजस्वी पुरुष को बुलाकर राजा स्वयं उसके समीप गये और पूछने लगे---'तुम किसके आदमी हो, कहाँ से आये हो ? कौन सा काम करना चाहते हो ? ठीक-ठीक बताओ।' सहदेव ने कहा---'मैं जाति का वैश्य हूँ, मेरा नाम अरिष्टनेमि है; पहले मैं पाण्डवों के यहाँ गौओं की संभाल लिये रहता था, परन्तु अब तो वे पता नहीं कहाँ चले गये। बिना काम किये जीविका नहीं चल सकती और पाण्डवों के सिवा दूसरा कोई राजा मुझे पसंद नहीं है, जिसके यहाँ नौकरी करूँ।' राजा विराट ने कहा---तुम्हे किस काम का अनुभव है ? किस शर्त पर यहाँ रहना चाहते हो ? और इसके लिये तुम्हे क्या वेतन देना पड़ेगा ? सहदेव बोले---मैं यह बता चुका हूँ कि पाण्डवों की गौओं को संभालने का काम करता था।  वहाँ लोग मुझे 'तन्तिपाल' कहते थे। चालीस कोस के अन्दर जितनी गौएँ रहती हैं उनकी भूत, भविष्य और वर्तमान काल की संख्या मुझे सदा मालूम रहती हैं; कितनी गौएँ थीं, कितनी हैं और कितनी होंगी---इसका मुझे ठीक-ठीक ज्ञान रहता है। जिन उपायों से गौओं की बढ़ती होती रहे, उन्हें कोई रोग-व्याधि न सतावे---उन सबको मैं जानता हूँ। इसके सिवा मैं उत्तम लक्षणोंवाले बैलों की भी पहचान रखता हूँ, जिनका मूत्र सूँघनेमात्र से वन्ध्या स्त्री को गर्भ रह जाता है।  विराट ने कहा---मेरे पास एक ही रंग के एक लाख पशु हैं, उनमें सभी उत्म गुणों का सम्मिश्रण है। आज से उन पशुओं और उनके रक्षकों को मैं तुम्हारे अधिकार में सौंपता हूँ। मेरे पशु अब तुम्हारे ही अधीन रहेंगे, इस प्रकार राजा से परिचय करके सहदेव वहाँ सुख से रहने लगे; उन्हें भी कोई पहचान न सका। राजा ने उनके भरण-पोषण का उचित प्रबंध कर दिया। तदनन्तर वहाँ एक बहुत सुन्दर पुरुष दीख पड़ा, जो स्त्रियों के समन आभूषण पहने हुए था, उसके कानों में कुण्डल तथा हाथों में शंख तथा सोने की चूड़ियाँ थीं। उसे लम्बे-लम्बे केश खुले हुए थे। भुजाएँ बड़ी-बड़ी और हाथी के समान मस्तानी चाल थी। मानो वह अपने एक-एक पग से पृथ्वी को कँपाता चलता था। वह वीरवर अर्जुन था। राजा विराट की सभा पहुँचकर उसने अपना परिचय दिया---महाराज ! मैं नपुंसक हूँ, मेरा नाम बृहन्नला है। मैं नाचता-गाता और बाजे बजाता हूँ। नृत्य और संगीत की कला में बहुत प्रवीण हूँ। आप मुझे उत्तरा को इस कला की शिक्षा देने के लिये रख लें। मैं महारानी के यहाँ नाचने का काम करूँगा। विराट ने कहा---बृहन्नले ! तुम्हारे जैसे पुरुष से तो यह काम लेना मुझे उचित नहीं जान पड़ता; तथापि मैं तुम्हारी प्रार्थना स्वीकार करता हूँ, तुम मेरी बेटी उत्तरा तथा राजपरिवार की अन्य कन्याओं को नृत्यकला की शिक्षा दिया करो। यह कहकर मत्स्यनरेश ने बृहनल्ला की संगीत, नृत्य और बाजा बजाने की कलाओं में परीक्षा की। इसके बाद अपने मंत्रियों से यह सलाह ली कि इसे अन्तःपुर में रखना चाहिये या नहीं ! फिर तरुणी स्त्रियाँ भेजकर उनके नपुंसकपने की जाँच करायी। जब सब तरह से उनका नपुंसक होना प्रमाणित हो गया, तब उसे कन्या के अन्तःपुर में रहने की आज्ञा मिली। वहाँ रहकर अर्जुन उत्तरा और उसकी सखियों तथा अन्य दासियों को भी गाने, बजाने और नाचने की शिक्षा देने लगे; इससे वे उन सबके प्रिय हो गये। कपटवेष में  कन्याओं के साथ रहते हुए भी अर्जुन सदा अपने मन को पूर्णरूप से वश में रखते थे। इससे बाहर या भीतर का कोई भी उन्हे पहचान न सका। इसके बाद नकुल अश्वपाल का वेष धारण किये राजा विराट के यहाँ उपस्थित हुआ और राजभवन के पास इधर-उधर घूम-फिरकर घोड़े देखने लगा। फिर राजा के दरबार में आकर उसने कहा---'महाराज ! आपका कल्याण हो। मैं अश्वों को शिक्षा देने में निपुण हूँ, बड़े-बड़े राजाओं के यहाँ आदर पा चुका हूँ। मेरी इच्छा है कि मैं आपके यहाँ घोड़ों को शिक्षा देने का काम करूँ।' विराट ने कहा---मैं तुम्हे रहने के लिये घर, सवारी और बहुत सा धन दूँगा। तुम हमारे हाँ घोड़ों की शिक्षा देने का काम कर सकते हो। किन्तु पहल यह तो बताओ तुम्हे अश्वसम्बन्धी किस कला का विशेष ज्ञान है। साथ ही अपना परिचय भी दो। नकुल ने कहा---महाराज ! मैं घोड़ों की जाति और स्वभाव पहचानता हूँ, उन्हें शिक्षा देकर सीधा कर सकता हूँ। दुष्ट घोड़ों को ठीक करने का उपाय भी जानता हूँ। इसके सिवा घोड़ों की चिकित्सा का भी मुझे पूरा ज्ञान है। मेरी सिखायी हुई घोड़ी भी नहीं बिगड़ती, फिर घोड़ों की तो बात ही क्या है ? मैं पहले राजा युधिष्ठिर के यहाँ काम करता था, वहाँ वे तथा दूसरे लोग भी मुझे ग्रन्थिक नाम से पुकारते थे। विराट बोले---मेरे यहाँ जितने घोड़े और वाहन हैं, उन सबको मैं आजसे  तुम्हारे अधीन करता हूँ। घोड़े जोतनेवाले पुराने सारथि लोग भी तुम्हारे अधिकार में रहेंगे। तुमसे मिलकर आज मुझे उतनी ही प्रसन्नता हुई है, जितनी राजा युधिष्ठिर के दर्शन से होती थी। इस प्रकार राजा विराट से सम्मानित होकर नकुल वहाँ रहने लगे। नगर में घूमते समय भी उस सुन्दर युवक को कोई पहचान नहीं पाता था। जिनके दर्शनमात्र से ही पापों का नाश हो जाता है, वे समुद्रपर्यन्त पृथ्वी के स्वामी पाण्डवलोग इस तरह अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार अज्ञातवास की अवधि पूरी करने लगे।

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