Friday 29 April 2016

विराटपर्व---विराट और सुशर्मा का युद्ध तथा भीमसेन द्वारा सुशर्मा का पराभव

विराट और सुशर्मा का युद्ध तथा भीमसेन द्वारा सुशर्मा का पराभव
सुशर्मा ने अपने पूर्व वैर का बदला लेने के लिये त्रिगर्त देश के सभी रथी और पदाति वीरों को लेकर कृष्णपक्ष की सप्तमी तिथि को विराट की गौएँ छीनने के लिये अग्निकोण से आक्रमण किया। दूसरे दिन समस्त कौरवों ने मिलकर दूसरी ओर से जाकर विराट की हजारों गौएँ पकड़ ली। अब छद्मवेष में छिपे हुए अतुलित तेजस्वी पाण्डवों का तेरहवाँ वर्ष भली-भाँति समाप्त हो चुका था। इसी समय सुशर्मा ने चढ़ाई करके राजा विराट की बहुत-सी गौएँ कैद कर ली। यह देखकर राजा का प्रधान गोप बड़ी तेजी से नगर में आया और फिर रथ से कूदकर राजसभा में पहुँचकर राजा को प्रणाम करके कहने लगा, 'महाराज ! त्रिगर्तदेश के योद्धा हमें युद्ध में परास्त करके आपकी एक लाख गौएँ लिये जा रहे हैं। आप उन्हें छुड़ाने का प्रबंध कीजिये। ऐसा न हो कि आपका गो धन बहुत दूर निकल जाय।' यह सुनते ही राजा ने मत्स्यदेश के वीरों की एक सेना एकत्रित की। उसमें रथ, हाथी, घोड़े और पदाति---सभी प्रकार के योद्धा थे; अनेकों ध्वजा पताकाएँ फहरा रही थीं तथा अनेकों राजा और राजपुत्र कवच पहनकर युद्ध के लिये तैयार हो गये थे। इस प्रकार सैकड़ों देवतुल्य महारथियों ने स्वेच्छा से कवच धारण कर लिये और युद्ध सामग्री से सम्पन्न सफेद रथों में सोने के साज से सजे हुए घोड़े जुतवाकर उनपर बैठ-बैठकर नगर से बाहर निकले। इस प्रकार जब सारी सेना तैयार हो गयी तो राजा विराट ने अपने छोटे भाई शतानीक से कहा, 'मेरा ऐसा विचार है कि कंक, वल्लव, तन्तिपाल और ग्रन्थिक भी बड़े वीर हैं और वे निःसंदेह युद्ध कर सकते हैं। इन्हें भी ध्वजा-पताका से सुशोभित रथ और जो ऊपर से दृढ़ किन्तु भीतर से कोमल हों, ऐसे कवच दो।' राजा विराट की बात सुनकर शतानीक ने पाण्डवों के लिये भी रथ तैयार करने की आज्ञा दी। और महारथी पाण्डवगण सुवर्णजटित रथों पर चढ़कर एक साथ ही राजा विराट के पीछे चले। वे चारों ही भाई बड़े शूरवीर और सच्चे पराक्रमी थे। उनके सिवा आठ हजार रथी, एक हजार गजारोही और साठ हजार घुड़सवार भी राजा विराट के साथ चले। विराट की वह सेना बड़ी ही भली जान पड़ती थी। वह गौओं के खुरों के चिह्न देखती आगे बढ़ने लगी। मत्स्यदेशीय वीर नगर से निकलकर व्वूहरचना की विधि से चले और उन्होंने सूर्य ढ़लते ढ़लते त्रिगर्तों को पकड़ लिया। बस, दोनों ओर के वीर परस्पर शस्त्र-संचालन करने लगे और उनमें देवासुर-संग्राम की तरह बड़ा ही भयंकर और रोमांचकारी युद्ध छिड़ गया। उस समय इतनी धूल उड़ी कि पक्षी भी अंधे से होकर पृथ्वी पर गिरने लगे और दोनो ओर से छोड़े गये वाणों की ओट में सूर्यनारायण भी दीखने बंद हो गये। रथी रथियों से, पदाति पदातियों से, घुड़सवार घुड़सवारों से और गजारोही गजारोहियों से भिड़ गये। वे क्रोध में आकर एक-दूसरे पर तलवार, पट्टिश, प्रास, शक्ति और तोमर आदि अस्त्र-शस्त्रों से प्रहार करने लगे। परन्तु परिघ के समान प्रचण्ड भुजदण्डों से प्रहार करने पर भी वे अपना सामना करनेवाले वीर को पीछे नहीं हटा पाते थे। बात-की-बात में सारी रणभूमि कटे हुए मस्तक और छिदे हुए देहों से पटी सी दिखायी देने लगी। इस प्रकार युद्ध करते-करते शतानीक ने सौ और विशालाक्ष ने चार सौ त्रिगर्त वीरों को धराशायी कर दिया। फिर वे दोनो महारथी शत्रुओं की सेना के बीच घुस गये और विपक्षी वीरों को केश पकड़-पकड़ कर पटकने लगे तथा उन्होंने बहुतों के रथों को चकनाचूर कर दिया। राजा विराट ने पाँच सौ रथी, आठ सौ घुड़सवार और पाँच महारथी मार डाले। फिर तरह-तरह से रथयुद्ध का कौशल दिखाते और सोने के रथ पर चढ़े हुए सुशर्मा से आकर भिड़ गये। उन्होंने दस वाणों से सुशर्मा को और पाँच-पाँच वाणों से उसके चारों घोड़ों को बींध डाला। तथा रणोन्मत्त सुशर्मा ने उन्हें पचास वाणों से बींध दिया।सुशर्मा बड़ा बाँकुरा वीर था, उसने मत्स्यराज की सारी सेना को अपने प्रबल पराक्रम से रौंद डाला और राजा विराट की ओर दौड़ा। उसने विराट के रथ के दोनों घोड़ों को तथा अंगरक्षक और सारथि को मारकर उन्हें जीवित ही पकड़ लिया और अपने रथ में डालकर चल दिया। यह देखकर कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर ने भीमसेन से कहा, 'महाबाहो ! त्रिगर्तराज सुशर्मा महाराज विराट को लिये जा रहा है, तुम उन्हें झटपट छुड़ा लो; ऐसा न हो कि वे शत्रुओं के पंजे में फँस जायँ।' तब भीमसेन ने कहा, महाराज ! आपकी आज्ञा से मैं इन्हें अभी छुड़ाता हूँ। इस सामनेवाले वृक्ष की शाखाएँ बहुत अच्छी हैं, यह तो गदारूप ही जान पड़ता है; इसो उखाड़कर इसी के द्वारा मैं शत्रुओं को चौपट कर दूँगा।' युधिष्ठिर बोले, 'भीमसेन ! ऐसा साहस का काम मत करना। इस वृक्ष को खड़ा रहने दो। यदि तुम ऐसा अतिमानुष कर्म करोगे तो लोग पहचान जायेंगे कि यह तो भीम है। इसलिये तुम कोई दूसरा ही मनुष्योचित शस्त्र लो। धर्मराज के ऐसा कहने पर भीममेन ने बड़ी फुर्ती से अपना श्रेष्ठ धनुष उठाया और मेघ जैसे जल बरसाता है, वैसे ही सुशर्मा पर वाणों की वर्षा करने लगे। यह देख भाइयों सहित सुशर्मा धनुष चढ़ाकर लौट पड़ा और एक निमेष में ही रथी भीमसेन से भिड़ गये। भीमसेन ने गदा लेकर विराट के सामने ही सैकड़ों-हजारों रथी, गजारोही, अश्वारोही और प्रचंड धनुषधारी शूरवीरों को मारकर गिरा दिया तथा अनेकों पैदलों को भी कुचल डाला। ऐसा विकट युद्ध देखकर रणोन्मत्त सुशर्मा का सारा मद उतर गया, वह इस सेना के सत्यानाश के लिये चिन्तित हो उठा और कहने लगा---'हाय ! जो हर समय कान तक धनुष चढ़ाये दिखायी देता था, वह मेरा भाई तो पहले ही मर गया।' फिर वह भीमसेन पर बार-बार तीखे वाण छोड़ने लगा। यह देखकर सभी पाण्डव क्रोध में भर गये और घोड़ों को त्रिगर्तों की ओर मोड़कर उनपर दिव्य अस्त्रों की वर्षा करने लगे। राजा युधिष्ठिर ने बात-की-बात में एक हजार योद्धाओं को मार डाला, भीमसेन ने सात हजार त्रिगर्तों को धराशायी कर दिया तथा नकुल ने सात सौ और सहदेव ने तीन सौ वीों को नष्ट कर डाला। अन्त में भीमसेन सुशर्मा के पास आये और अपने पैने वाणों से उसके घोड़ों तथा अंगरक्षकों को मार डाला। फिर उसके सारथि को रथ के जुए से गिरा दिया। सुशर्मा के रथ का चक्ररक्षक मदिराक्ष भीम पर प्रहार करने चला। इतने में ही युद्ध होने पर भी राजा विराट रथ से कूद पड़े और गदा लेकर बड़े जोर से उसपर झपटे। रथहीन हो जाने से सुशर्मा प्राण लेकर भागने लगा। तब भीमसेन ने कहा, 'राजकुमार ! लौटो, तुम्हें युद्ध से पीठ दिखाना उचित नहीं है। क्या इसी पराक्रम से तुम जबरदस्ती गौओं को ले जाना चाहते थे ?' ऐसा कहकर वे झट अपने रथ से कूद पड़े और सुशर्मा के प्राणों का ग्राहक होकर उसके पीछे दौड़े। उन्होंने लपककर सुशर्मा के बाल पकड़ लिये और उसे उठाकर पृथ्वी पर पटककर रगड़ने लगे। सुशर्मा रोने-चिल्लाने लगा, तब भीमसेन ने उसके सिर पर लात मारी और उसकी छाती पर घुटने टेककर उसे ऐसा घूँसा मारा कि वह अचेत हो गया। महारथी सुशर्मा के पकड़ लिये जान पर त्रिगर्तों की सारी सेना भयभीत होकर भागने लगी। तब महारथी पाण्डवों ने समस्त गौओं को फेर लिया तथा सुशर्मा को परास्त करके उसका सारा धन छीन लिया। भीमसेन के नीचे पड़ा हुआ सुशर्मा अपने प्राण बचाने के लिये छटपटा रहा था। उसका सारा अंग धूल से भर गया था और चेतना लुप्त सी हो गयी थी। भीमसेन ने उसे बाँधकर अपने रथ पर रख लिया और महाराज युधिष्ठिर के पास ले जाकर उन्हें दिखाया। युधिष्ठिर उसे देखकर हँसे और भीमसेन से बोले, 'भैया ! इस नराधम को छोड़ दो।' भीमसेन ने सुशर्मा से कहा, 'ऱे मूढ़ ! यदि तू जीवित रहना चाहता है तो तुझे विद्वानों और राजाओं की सभा में यह कहना पड़ेगा कि मैं दास हूँ। तभी तुझे जीवनदान कर सकता हूँ।' इसपर धर्मराज ने प्रेमपूर्वक कहा, 'भैया ! यदि तुम मेरी बात मानते हो तो इस पापकर्मा सुशर्मा को छोड़ दो। अब यह महाराज विराट का दास तो हो ही चुका है।' फिर त्रिगर्तराज से कहा, 'जाओ, अब तुम दास नहीं हो; फिर कभी ऐसा साहस मत करना।' युधिष्ठिर की बात सुनकर सुशर्मा ने लज्जा से मुख नीचा कर लिया और जब भीमसेन ने उसे छोड़ दिया तो उसने राजा विराट के पास जाकर उन्हें प्रणाम किया। इसके पश्चात् वह अपने देश को चला गया। फिर मत्स्यराज विराट ने प्रसन्न होकर युधिष्ठिर से कहा, 'आईये, इस सिंहासन पर मैं आपका अभिषेक कर दूँ, अब आप ही हमारे मत्स्यदेश के स्वामी हों। इसके सिवा आपके मन में यदि कोई ऐसी चीज पाने की इच्छा हो, जो संसार में अत्यन्त दुर्लभ हो, तो वह भी मैं देने को तैयार हूँ; क्योंकि आप तो सभी पदार्थ पाने योग्य हैं।' तब युधिष्ठिर ने मत्स्यराज से कहा, 'महाराज ! आपका कथन बड़ा ही मनोहर है, मैं उसकी हृदय से सराहना करता हूँ। आप बड़े दयालु हैं, भगवान् आपको सर्वदा स प्रकार आनन्द में रखें। राजन् ! अब शीघ्र ही दूतों को नगर में भिजवाइये। वे आपके सम्बन्धियों को इस शुभ समाचार की सूचना दें और नगर में आपके विजय की घोषणा करा दें।' तब राजा ने दूतों को आज्ञा दी कि 'तुम नगर में जाकर मेरी विजय की सूचना दो।' मत्स्याज की आज्ञा सिर चढ़ाकर दूत बड़े हर्ष से नगर की ओर चले और रात-रात में रास्ता तय करके सवेरे ही नगर के समीप पहुँचकर विजय की घोषणा कर दी।
 

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