कौरवसभा में पाण्डवों की खोज के विषय में बातचीत तथा विराटनगर पर चढ़ाई करने
का निश्चय
भाइयों के सहित कीचक को अकस्मात् मारा गया देखकर सभी लोगों को
बड़ा आश्चर्य हुआ तथा उस नगर और राष्ट्र में जहाँ तहाँ वे आपस में मिलकर ऐसी चर्चा करने
लगे---'महाबली कीचक अपनी शूरवीरता के कारण राजा विराट को बहुत प्यारा था, उसने अनेकों
सेनाओं का संहार किया था; किंतु साथ ही वह दुष्ट परस्त्रीगामी था, इसी से उस पापी को
गन्धर्वों ने मार डाला।' शत्रुसेना का संहार करनेवाले दुर्जय वीर कीचक के विषय में
देश-देश में ऐसी ही चर्चा होने लगी। इस समय
अज्ञातवास की अवस्था में पाण्डवों का पता लगाने के लिये दुर्योधन ने जो गुप्तचर भेजे
थे वे अनेकों ग्राम, राष्ट्र और नगरों में उन्हें ढ़ूँढ़कर हस्तिनापुर में लौट आये। वहाँ
वे राजसभा में बैठे हुए कुरुराज दुर्योधन के पास गये। उस समय वहाँ महात्मा भीष्म, द्रोण,
कर्ण, कृप, त्रिगर्तदेश के राजा और दुर्योधन के भाई भी मौजूद थे। उन सबके सामने उन्होंने
कहा, 'राजन् ! पाण्डवों का पता लगाने के लिये हम सदा ही बड़ा प्रयत्न करते रहे; किन्तु
वे किधर से निकल गये, यह हम जान ही न सके। हमने पर्वतों के जैसे ऊँचे-ऊँचे शिखरों पर,
भिन्न-भिन्न देशों में, जनता की भीड़ में तथा गाँव और नगरों में भी उनकी बहुत खोज की;
परन्तु कहीं भी उनका पता नहीं लगा। मालूम होता है वे बिलकुल नष्ट हो गये; इसलिये अब
तो आपके लिये मंगल ही है। हमें इतना पता अवश्य लगा है कि इन्द्सेन आदि सारथि पाण्डवों
के बिना ही द्वारकापुरी में पहुँचे हैं; वहाँ न तो द्रौपदी है और न पाण्डव ही हैं।
हाँ, एक बड़े आनन्द का समाचार है। वह यह कि राजा विराट का जो महाबली सेनापति कीचक था,
जिसने कि अपने महान् पराक्रम से त्रिगर्त देश को दलित कर दिया था, उस पापात्मा को उसके
भाइयों सहित रात्रि में गुप्तरूप से गन्धर्वों ने मार डाला है।' दूतों की यह बात सुनकर दुर्योधन बहुत देरतक विचार करता रहा, उसके बाद
उसने सभासदों से कहा---'पाण्डवों क अज्ञातवास के इस तेरहवें वर्ष में थोड़े ही दिन शेष
हैं। यदि यह समाप्त हो गया तो सत्यवादी पाण्डव मदमाते हाथी और विषधर सर्पों के समान
क्रोधातुर होकर कौरवों के लिये दुःखदायी हो जायेंगे। वे सभी समय का हिसाब रखनेवाले
हैं, इसलिये कहीं दुर्विज्ञेय रूपमें छिपे होंगे। इसलये कोई ऐसा उपाय करना चाहिये कि
वे अपने क्रोध को पीकर फिर वन में ही चले जायँ। इसलिये शीघ्र ही उनका पता लगाओ, जिससे
कि हमारा यह राज्य सब प्रकार की विघ्न-बाधा और विरोधियों से मुक्त होकर चिरकाल तक अक्षुण्ण
बना रहे। यह सुनकर कर्ण ने कहा, 'भरतनन्दन ! तो शीघ्र ही दूसरे
कार्यकुशल जासूस भेजे जायँ। वे गुप्त रूप से धन-धान्यपूर्ण और जनाकीर्ण देशों में जायँ
तथा सुरम्य सभाओं में, सिद्ध-महात्माओं के आश्रमों में, राजनगरों में, तीर्थों में
और गुफाओं में वहाँ के निवासियों से बड़े विनीत शब्दों में युक्तिपूर्वक पूछकर उनका
पता लगावें। दुःशासन ने कहा, 'राजन् ! जिन दूतों पर आपको विशेष भरोसा हो, वे मार्गव्यय
लेकर फिर पाण्डवों की खोज करने के लिये जायँ। कर्ण ने जो कुछ कहा है वह हमें बहुत ठीक
जान पड़ता है।' तब तत्वार्थदर्शी परम पराक्रमी द्रोणाचार्य ने कहा, 'पाण्डवलोग शूरवीर,
विद्वान्, बुद्धिमान्, जितेन्द्रिय, धर्मज्ञ, कृतज्ञ और अपने जेयेष्ठ भ्राता धर्मराज
की आज्ञा में चलनेवाले हैं। ऐसे महापुरुष न तो नष्ट होते हैं और न किसी से तिरस्कृत
ही होते हैं। उनमें धर्मराज तो बड़े ही शुद्धचित्त, गुणवान्, स्वान्, नीतिवान् पित्रात्मा
और तेजस्वी हैं। उन्हें तो आँखों से देख लेने पर भी कोई नहीं पहचान सकेगा। अतः इस बात
का ध्यान रखकर ही हमें सेवक, सिद्धपुरुष अथवा उन अन्य लोगों से, जो कि उन्हें पहचानते
हैं, ढ़ुँढ़वाना चाहिये। इसके पश्चात् भरतवंशियों के पितामह, देश-काल के ज्ञाता और समस्त
धर्मों को जाननेवाले भीष्मजी ने कौरवों के हित के लिये कहा, 'भरतनन्दन ! पाण्डवों के
विषय में जैसा मेरा विचार है, वह कहता हूँ। जो नीतिवान् पुरुष होते हैं, उनकी नति को
अनीतिपरायण लोग नहीं ताड़ सकते। उन पाण्डवों के विषय में विचार करके हम इस सम्बन्ध में
जो कुछ कर सकते हैं, वही मैं अपनी बुद्धि तके अनुसार कहता हूँ; द्वेषवश कोई बात नहीं
कहता। युधिष्ठिर की जो नीति है, उसकी मेरे जैसे पुरुष को कभी निन्दा नहीं करनी चाहिये।
उसे अच्छी नीति तो कहना ही चाहिये, अनीति कहना किसी प्रकार ठीक नहीं है। राजा युधिष्ठिर
जिस नगर या राष्ट्र में होंगे वहाँ की जनता भी दानशील, प्रियवादिनी, जितेन्द्रिय और
लज्जाशील होगी। जहाँ वे रहते होंगे वहाँ क लोग प्रियवादी, संयमी, सत्यपरायण, हृष्ट-पुष्ट,
पवित्र और कार्यकुशल होंगे। जहाँ उनकी स्थिति होगी, वहाँ के मनुष्य स्वयं ही धर्म में
तत्पर होंगे तथा वे गुणों में दोष का आरोप करनेवाले, ईर्ष्यालु, अभिमानी और मत्सरी
नहीं होंगे। अतः जहाँ ऐसे लक्षण पाये जायँ, वहीं पाण्डवलोग गुप्त रीति से रहते होंगे।
तुम वहीं जाकर उन्हें ढ़ूँढ़ो। इसके पश्चात् महर्षि शरद्वान् के पुत्र कृप ने कहा, 'बयोवृद्ध
भीष्मजी का पाण्डवों के विषय में जो कथन है, वह युक्तियुक्त और समयानुसार है। उन्हीं
के अनुरूप इस विषय में मेरा भी जो कथन है, वह सुनो। तुमलोग गुप्तचरों से पाण्डवों की
गति और स्थिति का पता लगवाओ और उसी नीति का आश्रय लो, जो इस समय हितकारिणी हो। यह याद
रखो कि अज्ञातवास की अवधि समाप्त होते ही महाबली पाण्डवों का उत्साह बहुत बढ़ जायगा।
उनका तेज तो अतुलित है ही। अतः इस समय तुम्हे अपनी सेना, कोश और नीति की संभाल रखनी
चाहिये, जिससे कि समय आने पर उनके साथ यथावत् संधि कर सकें। बुद्धि से ही तुम्हे अपनी
शक्ति की जाँच रहनी चाहिये और इस बात का भी पता रहना चाहिये कि तुम्हारे बलवान् और
निर्बल मित्रों में निश्चित शक्ति कितनी है। इस प्रकार यदि तुम अपने कोश और सेना को
बढ़ा लोगे तो ठीक-ठीक सफलता प्राप्त कर सकोगे। इसके बाद त्रिगर्त देश के राजा महाबली
सुशर्मा ने कर्ण की ओर देखते हुए दुर्योधन से कहा, 'राजन् ! मत्स्यदेश के शाल्ववंशीय
राजा बार-बार हमारे ऊपर आक्रमण करते रहे हैं। मत्स्यराज के सेनापति महाबली कीचक ने
ही मुझे और मेरे बन्धु-बान्धवों को बहुत तंग किया था। कीचक बड़ा ही बलवान्, क्रूर, असहनशील
और दुष्ट प्रकृति का पुरुष था। उसका पराक्रम जगत्विख्यात था। इसलिये उस समय हमारी दाल
नहीं गली। अब उस पापकर्मा और नृशंस सूतपुत्र को गन्धर्वों ने मार डाला है। उसके मारे
जाने से राजा विराट आश्रयहीन और निरुत्साह हो गया होगा। इसलिये यदि आपको, समस्त कौरवों को ठीक जान पड़े तो मेरा तो उस देश पर
चढ़ाई करने का मन होता है। उस देश को जीतकर जो विविध प्रकार के रत्न, धन, ग्राम और राष्ट्र
हाथ लगेंगे, उन्हें हम आपस में बाँट लेंगे।' त्रिगर्तराज की बात सुनकर कर्ण ने राजा
दुर्योधन से कहा, 'राजा सुशर्मा ने बड़ी अच्छी बात कही है। यह समय के अनुसार और हमारे
बड़े काम की है। अतः हम सेना सजाकर, उसे छोटी-छोटी टुकड़ियों में बाँटकर अथवा जैसी आपकी
सलाह हो, वैसे ही उस देश पर तुरंत चढ़ाई कर दें। त्रिगर्तराज और कर्ण की बात सुनकर राजा
दुर्योधन ने दुःशासन को आज्ञा दी, 'भाई, तुम बड़े-बूढ़ों से सलाह करके चढ़ाई की तैयारी
करो। हमलोग सब कौरवों सहित एक नाके पर जायेंगे और महारथी सुशर्मा त्रिगर्तदेशीय वीर
और सारी सेना के सहित पूरे मोर्चे पर। पहले सुशर्मा चढ़ाई करेंगे। उसके एक दिन बाद हमारा
कूच होगा। ये ग्वालियोंपर आक्रमण करके विराट का गोधन छीन लेंगे। उसके बाद हम भी अपनी
सेना को दो भागों में विभक्त करके राजा विराट की एक लाख गौएँ हरेंगे।'
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