Friday 22 April 2016

विराटपर्व---द्रौपदी और भीमसेन की बातचीत

द्रौपदी और भीमसेन की बातचीत
सेनापति कीचक ने जबसे लात मारी थी, तभी से यशस्विनी राजकुमारी द्रौपदी उसके वध की बात सोचा करती थी। इस कार्य की सिद्धि के लिये उसने भीमसेन का स्मरण किया और रात्रि के समय अपनी शय्या से उठकर उनके भवन में गयी। उस समय उसके मन में अपमान का बड़ा दुःख था। पाकशाला में प्रवेश करते ही उसने कहा---'भीमसेन ! उठो, उठो; मेरा वह शत्रु महापापी सेनापति मुझे लात मारकर अभी तक जीवित है, तो तुम यहाँ निश्चिन्त होकर कैसे सो रहे हो ?' द्रौपदी के जगाने पर भीमसेन अपने पलंग पर उठ बैठे और उससे बोले---'प्रिय ! ऐसी क्या आवश्यकता आ पड़ी कि तुम उतावली-सी होकर मेरे पास चली आयी ? देखता हूँ, तुम्हारे शरीर का रंग अस्वाभाविक हो गया है, तुम दुर्बल और उदास हो रही हो। क्या कारण है ? पूरी बात बताओ, जिससे मैं सबकुछ जान सकूँ।' द्रौपदी ने कहा---मेरा दुःख क्या तुमसे छिपा है ? सबकुछ जानकर भी क्यों पूछते हो ? क्या उस दिन की बात भूल गये हो जबकि प्रतिकामी मुझे 'दासी' कहकर भरी सभा में घसीट ले गया था ? उस अपमान की आग में मैं सदा ही जलती रहती हूँ। संसार में मेरे सिवा दूसरी कौन राजकन्या है, जो ऐसा दुःख भोगकर भी जीवित हो ? वनवास के समय दुरात्मा जयद्रथ ने जो मेरा स्पर्श किया, वह मेे लिये दूसरा अपमान था; पर उसे भी सहना ही पड़ा। अबकी बार पुनः यहाँ के धूर्त राजा विराट की आँखों के सामने उस दिन कीचक के द्वारा अपमानित हुई। इस प्रकार बारम्बार अपमान का दुःख भोगनेवाली मेरी जैसी कौन स्त्री अपने प्राण धारण कर सकती है ? ऐसे अनेकों कष्ट सहती रहती हूँ, पर तुम भी मेरी सुध नहीं लेते; अब मेरे जीने से क्या लाभ है ?  यहाँ कीचक नाम का एक सेनापति है जो नाते में राजा विराट का साला होता है। वह बड़ा ही दुष्ट है। प्रतिदिन सैरन्ध्री के वेष में मुझे राजमहल में देखकर कहता है---'तुम मेरी स्त्री हो जाओ।' रोज-रोज उसके पापपूर्ण प्रस्ताव सुनते-सुनते मेरा हृदय विदीर्ण हो रहा है। इधर धर्मात्मा युधिष्ठिर को जब अपनी जीविका के लिये दूसरे राजा की उपासना करते देखती हूँ तो बड़ा दुःख होता है। जब पाकशाला में भोजन तैयार होने पर तुम विराट की सेवा में उपस्थित होते और अपने को वल्लव-नामधारी रसोइया बताते हो, उस समय मेरे मन में बड़ी वेदना होती है। यह तरुण वीर अर्जुन, जो अकेले ही रथ में बैठकर देवताओं और मनुष्यों पर विजय पा चुका है, आज विराट की कन्याओं को नाचना सिखा रहा है ! धर्म में, शूरता में और सत्यभाषण में जो संपूर्ण जगत् के लिये एक आदर्श था, उसी अर्जुन को स्त्री के वेष में देखकर आज मेर हृदय में कितनी व्यथा हो रही है ! तुम्हारे छोटे भाई सहदेव को जब मैं गौओं के साथ ग्वालों के वेष में आते देखती हूँ तो मेरे शरीर का रक्त सूख जाता है। मुझे याद है, जब वन को आने लगी उस समय माता कुन्ती ने रोकर कहा था---'पांचाली ! सहदेव मुझे बड़ा प्यारा है; वह मधुरभाषी, धर्मात्मा तथा सब भाइयों का आदर करनेवाला है। किन्तु है बड़ा संकोची; तुम इसे अपने हाथ से भोजन कराना, इसे कष्ट न होने पाये।' यह कहते-कहते उन्होंने सहदेव को छाती से लगा लिया था। आज उसी सहदेव को देखती हूँ---रात-दिन गौओं की सेवा में जुटा रहता है और रात को बछड़ों के चमड़े बिछाकर सोता है। यह सब दुःख देखकर भी मैं किसलिये जीवित रहूँ ? समय का फेर तो देखो---जो सुन्दर रूप, अस्त्र-विद्या और मेधा-शक्ति---इन तीनों से सदा सम्पन्न रहता है, वह नकुुल आज विराट के घर घोड़ों की सेवा करता है। उनकी सेवा में उपस्थित होकर घोड़ों की चालें दिखाता है। क्य यह सब देखकर भी मैं सुख से रह सकती हूँ ? राा युधिष्ठिर को जूए का व्यसन है और उसी के कारण मुझे इस राजभवन में सैरन्ध्री के रूप में रहकर रानी सुदेष्णा की सेवा करनी पड़ती है। पाण्डवों की महारानी और द्रुपदनरेश की पुत्री होकर भी आज मेरी यह दशा है ! इस अवस्था में मेरे सिवा कौन स्त्री जीवित रहना चाहेगी ?  मेरे इस क्लेश से कौरव, पाण्डव तथा पांचालवंश का भी अपमान हो रहा है। तुम सब लोग जीवित हो और मैं इस अयोग्य अवस्था में पड़ी हूँ। एक दिन समुद्र के पास तक की सारी पृथ्वी जिसके अधीन थी, आज वही द्रौपदी सुदेष्णा के अधीन हो उसके भय से डरी रहती है। कुन्तीनन्दन ! इसके सिवा एक और असह्य दुःख, जो मुझपर आ पड़ा है, सुनो ! पहले मैं माता कुन्ती को छोड़कर और किसी के लिये, स्वयं अपने लिये भी कभी उबटन नहीं पीसती थी; परन्तु अब राजा के लिये चन्दन घिसना पड़ता है; देखो ! मेरे हाथों में घट्ठे पड़ गये हैं, पहले ऐसे नहीं थे।ऐसा कहकर द्रौपदी ने भीमसेन को अपने हाथ दिखाये। फिर वह सिसकती हुई बोली---' न जाने देवताओं का मैने कौन सा अपराध किया है, जो मेरे लिये मौत भी नहीं आती। भीम ने उसके पतले-पतले हाथों को पकड़कर देखा, सचमुच काले-काले दाग पड़ गये थे। फिर आन्तरिक क्लेश से पीड़ित होकर भीमसेन कहने लगे---'कृष्णे ! मेरे बाहुबल को धिक्कार है, जो तुम्हारे लाल-लाल कमल हाथ आज काले पड़ गये ! उस दिन सभा में मैं विराट का सर्वनाश कर डालता अथवा ऐश्वर्य के मद से उन्मत्त हुए कीचक का मस्तक पैरों से कुचल डालता; परन्तु धर्मराज ने रुकावट डाल दी, उन्होंने कनखियों से देखकर मुझे मना कर दिया। इसी प्रकार राज्य से च्युत होने पर भी जो कौरवों का वध नहीं किया गया, दुर्योधन, कर्ण, शकुनि और दुःशासन का सिर नहीं काट लिया गया---इसके कारण आज भी मेरा शरीर क्रोध से जलता रहता है; वह भूल अब भी हृदय में काँटे की तरह कसकती रहती है। सुन्दरी ! तुम अपना धर्म न छोड़ो। बुद्धिमती हो, क्रोध का दमन करो। पूर्वकाल में बहुत सी स्त्रियों ने पतियों के साथ कष्ट उठाया है। भृगुवंशी च्यवन मुनि जब तपस्या कर रहे थे, उस समय उनके शरीर पर दीमकों की बाँबी जम गयी थी। उनकी स्त्री हुई राजकुमारी सुकन्या। उसने उनकी बड़ी सेवा की।राजा जनक की पुत्री सीता का नाम तो तुमने सुना ही होगा; वह घोर वन में पति श्रीरामचन्द्रजी की सेवा में रहती थी। एक दिन उसे राक्षस हरकर लंका ले गया और तरह-तरह के कष्ट देने लगा; तो भी उसका मन श्रीरामचन्द्रजी में लगा रहा और अन्त में वह उनकी सेवा में पहुँच भी गयी। इसी प्रकार लोपामुद्रा ने सांसारिक सुखों का त्याग करके अगस्त्य मुनि का अनुगमन किया था।सावित्री तो अपने पति सत्यवान् के पीछे यमलोक तक गयी थी। इन रूपवती पतिव्रता स्त्रियों का जैसा महत्व बताया गया है, वैसी ही तुम भी हो; तुममें भी वे सभी सद्गुण मौजूद हैं। कल्याणी ! अब तुम्हे अधिक दिनों तक प्रतीक्षा नहीं करनी है। वर्ष पूरा होने में सिर्फ डेढ़ महीना रह गया है। तेरहवाँ वर्ष पूर्ण होते ही तुम राजरानी बनोगी। द्रौपदी बोली---नाथ ! इधर बहुत कष्ट सहना पड़ा है, इसलिये आर्त होकर मैंने आँसू बहाये हैं, उलाहना नहीं दे रही हूँ। अब इस समय जो कार्य उपस्थित है, उसके लिये उद्यत हो जाओ। पापी कीचक सदा मेरे आगे प्रार्थना किया करता है। एक दिन मैने उससे कहा---'कीचक ! तू काम से मोहित होकर मृत्यु के मुख में जाना चाहता है, अपनी रक्षा कर। मैं पाँच गन्धर्वों की रानी हूँ, वे बड़े वीर और साहस के काम करनेवाले हैं। तुझे अवश्य मार डालेंगे।' मेरी बात सुनकर उस दुष्ट ने कहा---'सैरन्ध्री ! मैं गन्धर्वों से तनिक भी नहीं डरता। संग्राम में यदि लाख गन्धर्व भी आवें तो मैं उनका संहार कर डालूँगा। तुम मुझे स्वीकार करो।' इसके बाद उसने रानी सुदेष्णा से मिलकर उसे कुछ सिखाया। सुदेष्णा अपने भाई के प्रेमवश मुझसे कहने लगी---'कल्याणी ! तुम कीचक के घर जाकर मेरे लिये मदिरा लाओ। मैं गयी; पहले तो उसने अपनी बात मानने के लिये समझाया। किन्तु जब मैने उसकी प्रार्थना ठुकरा दी, तो उसने कुपित होकर बलात्कार करना चाहा। उस दुष्ट का मनोभाव मुझसे छिपा न रहा; इसलिये बड़े वेग से भागकर मैं राजा की शरण में गयी। वहाँ भी पहुँचकर उसने राजा के सामने ही मेरा स्पर्श किया और पृथ्वी पर गिराकर लात मारी। कीचक राजा का सारथि है, राजा और रानी दोनो ही उसे बहुत मानते हैं। परन्तु है वह बड़ा ही पापी और क्रूर। प्रजा रोती-चिल्लाती रह जाती है और वह उसका धन लूट लाता है। सदाचार और धर्म के मार्ग पर तो वह कभी चलता ही नहीं। उसका भाव मेरे प्रति खराब हो चुका है; जब मुझे देखेगा, कुत्सित प्रस्ताव करेगा और ठुकराने पर मुझे मारेगा। इसलिये अब मैं अपने प्राण दे दूँगी। वनवास का समय पूरा होने तक यदि चुप रहोगे तो इस बीच में पत्नी से हाथ धोना पड़ेगा। क्षत्रिय का सबसे मुख्य धर्म है शत्रु का नाश करना। परन्तु धर्मराज के और तुम्हारे देखते-देखते कीचक ने मुझे लात मारी और तुमलोगों ने कुछ भी नहीं किया। तुमने जटासुर से मेरी रक्षा की है, मुझे हरकर ले जानेवाले जयद्रथ को भी पराजित किया है। अब इस पापी को भी मार डालो। यह बराबर मेरा अपमान कर रहा है। यदि यह सूर्योदय तक जीवित रह गया, तो मैं विष घोलकर पी जाऊँगी। भीमसेन ! इस कीचक के अधीन होने की अपेक्षा तुम्हारे सामने प्राण देना मैं अच्छा समझती हूँ। यह कहकर द्रौपदी भीमसेन के वक्ष पर गिर पड़ी और फूट-फूटकर रोने लगी। भीम ने उसे हृदय से लगाकर आश्वासन दिया, उसके आँसुओं से भीगे हुए मुख को अपने हाथ से पोंछा और कीचक के प्रति कुपित होकर कहा---'कल्याणी ! तुम जैसा कहती हो वही करूँगा; आज कीचक को उसके बन्धु-बान्धवों सहित मार डालूँगा। तुम अपना दुःख और शोक दूरकर आज सायंकल में उससे मिलने का संकेत कर दो।राजा विराट ने जो नयी नृत्यशाला बनवायी है, उसमें दिन में तो कन्याएँ नाचना सीखती हैं, परन्तु रात में अपने घर चली जाती हैं। वहाँ एक बहुत सुन्दर मजबूत पलंग भी बिछा रहता है। तुम ऐसी बात करो , जिससे कीचक यहाँ आ जाय। वहीं मैं उसे यमपुरी भेज दूँगा।' इस प्रकार बातचीत करके दोनो ने शेष रात्रि बड़ी विकलता से व्यतीत की और अपने उग्र संकल्प को मन में ही छिपा रखा। सवेरा होने पर कीचक पुऩः राजमहल में गया और द्रौपदी से कहने लगा---'सैरन्ध्री ! सभा में राजा के सामने ही तुझे गिराकर लात लगा दी ! देखा मेरा प्रभाव ? अब तुम मुझ जैसे बलवान् वीर के हाथों में पड़ चुकी हो। कोई तुम्हे बचा नहीं सकता। विराट तो कहने मात्र के लिये मत्स्यदेश का राजा है; वास्तव में तो मैं ही यहाँ का सेनापति और स्वामी हूँ। इसलिये भलाई इसी में है कि तुम खुशी-खुशी मुझे स्वीकार कर लो। फिर तो मैं तुम्हारा दास हो जाऊँगा।' द्रौपदी बोली---कीचक ! यदि ऐसी बात है तो मेरी एक शर्त स्वीकार करो। हम दोनों के मिलन की बात तुम्हारे भाई और मित्र भी न जानने पावें। कीचक ने कहा---सुन्दरी ! तुम जैसा कह रही हो, वही करूँगा।द्रौपदी बोली---राजा ने जो नृत्यशाला बनवायी है, वह रात में सूनी रहती है; अतः अंधेरा हो जाने पर तुम वहीं आ जाना। इस प्रकार कीचक के साथ बात करते समय द्रौपदी को आधा दिन भी एक महीने के समान भारी मालूम हुआ। तत्पश्चात् 'वह दर्प में भरा हुआ अपने घर गया। उस मूर्ख को ह पता न था कि सैरन्ध्री के रूप में मेरी मृ्यु आ गयी है। इधर द्रौपदी पाकशाला में जाकर अपने पति भीम से मिली और बोली---'परन्तप ! तुम्हारे कथनानुसार मैने कीचक से नृत्यशाला में मिलने का संकेत कर दिया है। वह रात्रि के समय उस सूने घर में अकेले आवेगा, अतः आज अवश्य उसे मार डालो।' भीम ने कहा---'मैं धर्म, सत्य तथा भाइयों की शपथ खाकर कहता हूँ कि इन्द्र ने जिस प्रकार वृत्रासुर को मार डाला था, उसी प्रकार मैं भी कीचक का प्राण ले लूँगा। यदि मत्स्य देश के लोग उसकी सहायता में आयेंगे तो उन्हें भी मार डालूँगा; इसके बाद दुर्योधन को मारकर पृथ्वी का राज्य प्राप्त करूँगा।' द्रौपदी बोली---नाथ ! तुम मर लिये सत्य का त्याग न करना। अपने को छिपाे हुए ही कीचक को मार डालना। भीमसेन ने कहा---भीरु ! तुम जो कुछ कहती हो, वही करूँगा; आज कीचक को मैं उसके बन्धुओं सहित नष्ट कर दूँगा।
 

No comments:

Post a Comment