Thursday 31 March 2016

विराटपर्व----पाण्डवों का मत्स्यदेश में जाना, शमीवृक्ष पर अस्त्र रखना और युधिष्ठिर, भीम तथा द्रौपदी का क्रमशः राजभवन में पहुँचना

पाण्डवों का मत्स्यदेश में जाना, शमीवृक्ष पर अस्त्र रखना और युधिष्ठिर, भीम तथा द्रौपदी का क्रमशः राजभवन में पहुँचना

तदनन्तर महापराक्रमी पाण्डव यमुना के निकट पहुँचकर उसके दक्षिण किनारे से चलने लगे। उनकी यात्रा पैदल ही हो रही थी। वे कभी पर्वत की गुफाओं में और कभी जंगलों में ठहरते जाते थे। आगे जाकर वे दशार्ण से उत्तर और पांचाल से दक्षिण यकृल्लोम और शूरसेन देशों के बीच से होकर यात्रा करने लगे। उनके हाथ में धनुष और कमर में तलवार थी। शरीर का रंग फीका हो गया था। दाढ़ी-मूँछें बढ़ गयी थीं।धीरे-धीरे वन का मार्ग तय करके वे मत्स्य देश में जा पहुँचे और क्रमशः आगे बढ़ते हुए विराट की राजधानी के निकट पहुँच गये। तब युधिष्ठिर ने अर्जुन से कहा---'भैया ! नगर में प्रवेश करने के पहले यह निश्चय हो जाना चाहिये कि हमलोग अपने अस्त्र-शस्त्र कहाँ रखें। तुम्हारा यह गाण्डीव धनुष बहुत बड़ा है, संसार के सब लोगों में इनकी प्रसिद्धि है; अतः यदि हमलोग अस्त्रों को साथ लेकर नगर में प्रवेश करेंगे तो इसमें कोई संदेह नहीं कि सबलोग हमें पहचान लेंगे। ऐसी दशा में हमें अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार फिर बारह वर्ष तक के लिये वनवास करना पड़ेगा।' अर्जुन ने कहा---राजन् ! श्मशानभूमि के निकट एक टीले पर यह शमी का बहुत बड़ा सघन वृक्ष दिखायी दे रहा है; इसकी शाखाएँ बड़ी भयानक हैं, अतः इसके ऊपर किसी का चढ़ना कठिन है। इसके सिवा इस समय यहाँ ऐसा कोई मनुष्य भी नहीं है, जो हमलोगों को इसपर शस्त्र रखते देख सके। यह वृक्ष रास्ते से बहुत दूर जंगल में है, इसके आस-पास हिंसक जीव और सर्प आदि रहते हैं। इसलिये इसी पर हम अपने अस्त्र-शस्त्र रखकर नगर में प्रवेश करें; और वहाँ जैसा सुयोग हो, उसके अनुसार समय व्यतीत करें। धर्मराज से यों कहकर अर्जुन अस्त्र-शस्त्रों को वहाँ रखने का उद्योग करने लगे। पहले सबने अपने-अपने धनुष की डोरी उतार ली; फिर चमकती हुई तलवारों, तरकसों और छूरे के समान तीखी धारवाले वाणों को धनुष के साथ बाँधा। तब युधिष्ठिर ने नकुल से कहा---'वीर ! तुम शमी पर चढ़कर यह धनुष रख दो।' आज्ञा पाते ही नकुल उस वृक्ष पर चढ़ गये और उसके खोड़रे में, जहाँ वर्षा का पानी पड़ने की सम्भावना नहीं थी, सबके धनुष रखकर उन्होंने एक मजबूत रस्सी से शाखा के साथ बाँध दिया। इसके बाद पाण्डवों ने एक मुर्दे की लाश लाकर उसे वृक्ष से लटका दिया जिससे उसकी दुर्गन्ध के कारण कोई मनुष्य वृक्ष के निकट न आ सके। यह सब प्रबन्ध करके युधिष्ठिर ने पाँचों भाइयों का एक-एक गुप्त नाम रखा, जो क्रमशः इस प्रकार है---जय, जयन्त, विजय, जयत्सेन और जयद्वल। फिर अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार अज्ञातवास करने के लिये उन्होंने विराट के बहुत बड़े नगर में प्रवेश किया। नगर में प्रवेश करते समय महाराज युधिष्ठिर ने भाइयों के साथ मिलकर त्रिभुनेश्वरी दुर्गा का स्तवन किया। देवी प्रसन्न हो गयीं। और उन्होंने प्रकट होकर विजय तथा राज्यप्राप्ति का वरदान दिया और यह भी कहा कि 'विराटनगर में तुम्हे कोई पहचान नहीं सकेगा।'  तदनन्तर वे राजा विराट की सभा में गये। राजा विराट राजसभा में बैठे थे। सबसे पहले युधिष्ठिर उनके दरबार में पहुँचे, वे एक वस्त्र में पासे बाँधकर लेते गये थे। वहाँ पहुँचकर उन्होंने राजा से निवेदन किया कि 'सम्राट् ! मैं एक ब्राह्मण हूँ; मेरा सर्वस्व लुट गया है, इसलिये मैं आपके यहाँ जीविका के लिये आया हूँ। आपकी इच्छा के अनुसार सब कार्य करते हुए मैं आपही के निकट रहने की इच्छा करता हूँ।' राजा ने प्रसन्नता के साथ उनका स्वागत किया और उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। फिर प्रेमपूर्वक पूछा---ब्राह्मणदेवता ! मैं जानना चाहता हूँ कि तुमने किस राजा के राज्य से यहाँ पधारने का कष्ट किया है, तुम्हारा नाम और गोत्र क्या है, तथा तुम कौन-सी कला जानते हो । युधिष्ठिर बोले---राजन् ! मैं व्याघ्रपाद गोत्र में उत्पन्न हुआ हूँ। मेरा नाम है कंक। पहले मैं राजा युधिष्ठिर के पास रहता था। जूआ खेलनेवालों में पासा फेंकने की कला का मुझे विशेष ज्ञान है। विराट ने कहा---कंक ! मैन तुम्हे अपना मित्र बनाया; जैसी सवारी मैं चलाता हूँ, वैसी ही तुम्हे भी मिलेगी। पहनने के वस्त्र और भोजन-पान आदि का प्रबंध भी पर्याप्त मात्रा में रहेगा। बाहर के राज्य, कोष और सेना आदि तथा भीतर के धन दारा आदि की देखभाल तुमपर छोड़ता हूँ। तुम्हारे लिये राजमहल का फाटक सदा खुला रहेगा , तुमसे कोई परदा नहीं रखा जायगा। जो लोग जीविका के बिना कष्ट पाते हों और तुम्हारे पास आकर याचना करें, उनकी प्रार्थना तुम हर समय मुझको सुना सकते हो, तुम्हे विश्वास दिलाता हूँ कि उन याचकों की सभी कामनाएँ पूर्ण करूँगा। तुम मुझसे कुछ भी कहते समय भय या संकोच मत करना। राजा से इस प्रकार बातचीत करके युधिष्ठिर बड़े सम्मान के साथ वहाँ सुखपूर्वक रहने लगे। उनका गुप्त रहस्य किसी पर प्रकट नहीं हुआ।  तदनन्तर सिंह की-सी मस्त चाल चलते हुए भीमसेन राजा के दरबार में उपस्थित हुए। उनके हाथ में चमचा, कलछी और साग काटने के लिये एक लोहे का काला छुरा भी था। वेष तो रसोइये का था, पर उनके शरीर से तेज निकल रहा था। उन्होंने आते ही कहा---'राजन् ! मेरा नाम बल्लव है। मैं रसोई का काम जानता हूँ, मुझे बहुत अच्छा भोजन बनाने आता है। आप इस काम के लिये मुझे रख लें।' विराट ने कहा---बल्लव ! मुझे विश्वास नहीं होता कि तुम रसोइये हो, तुम तो इन्द्र के समान तेजस्वी और पराक्रमी दिखायी देते हो ! भीमसेन बोले---महाराज ! विश्वास कीजिये, मैं रसोइया हूँ और आपकी सेवा करने आया हूँ। राजा युधिष्ठिर ने भी मेरे बनाये हुए भोजन का स्वाद लिया है। इसे सिवा, जैसा कि आपने कहा है, मैं पराक्रमी भी हूँ; बल में मेरे समान दूसरा कोई नहीं है। पहलवानी में भी मेरी बराबरी कोई नहीं कर सकता। मैं सिंहों और हाथियों से युद्ध करके आपको प्रसन्न किया करूँगा। विराट ने कहा--- अच्छा, भैया ! तुम अपने को भोजन बनाने के काम में कुशल बताते हो तो यही काम करो।  यद्यपि यह काम मैं तुम्हारे योग्य नही समझता, तथापि तुम्हारी इच्छा देखकर स्वीकार कर रहा हूँ। तुम मेरी पाकशाला के प्रधान अधिकारी रहो। जो लोग पहले से उसमें काम कर रहे हैं, मैं तुम्हे उन सबका स्वामी बना रहा हूँ। इस प्रकार भीमसेन राजा विराट की पाकशाला के प्रधान रसोइये हुए। उन्हे कोई पहचान न सका। राजा को वे बड़े ही प्रिय हो गये। इसके बाद द्रौपदी सैरन्ध्री का वेष बनाये दुखिया की तरह नगर में भटकने लगी। उस समय राजा विराट की रानी सुदेष्णा अपने महल से नगर की शोभा देख रही थी, उनकी दृष्टि द्रौपदी पर पड़ी। वह एक वस्त्र धारण किये अनाथ सी जान पड़ती थी। रूप तो उसका अद्भुत् था ही। रानी ने उसे अपने पास बुलाकर पूछा---'कल्याणी ! तुम कौन हो और क्या करना चाहती हो ?' द्रौपदी ने कहा---'महारानी ! मैं सैरन्ध्री हूँ और अपने योग्य काम चाहती हूँ; जो मुझे नियुक्त करेगा, मैं उसका कार्य करूँगी।' सुदेष्णा बोली---'भामिनि ! तुम्हारी-जैसी रूपवती स्त्रियाँ सैरन्ध्री नहीं हुआ करतीं। तुम तो बहुत से दास और दासियों की स्वामिनी जान पड़ती हो। बड़ी-बड़ी आँखें, लाल-लाल ओठ, शंख के समान गला, नस और नाडियाँ माँस से ढ़की हुई और पूर्ण चन्द्रमा के समान मनोहर मुखमण्डल ! यह है तुम्हारा सुन्दर रूप, जिससे लक्ष्मी सी जान पड़ती हो। अतः सच-सच बताओ, तुम कौन हो ? यक्ष या देवता तो नहीं हो ? अथवा तुम कोई अप्सरा, देवकन्या, नागकन्या या चन्द्रपत्नी रोहिणी या इन्द्राणी तो नहीं हो ? अथवा ब्रह्मा या प्रजापति की देवियों में से कोई हो ?' द्रौपदी बोली---रानी ! मैं सच कहती हूँ---देवता या गन्धर्वी नहीं हूँ, सेवा का काम करनेवाली सैरन्ध्री हूँ। बालों को सुन्दर बनाना और गूँथना जानती हूँ, चन्दन या अंगराग भी बहुत अच्छा तैयार करती हूँ। मल्लिका, उत्पल, कमल और चम्पा आदि फूलों को बहुत सुन्दर एवं विचित्र-विचित्र हार गूँथ सकती हूँ। आज से पहले मं महारानी द्रौपदी की सेवा में रह चुकी हूँ। जहाँ-तहाँ घूम-फिरकर सेवा करती रहती हूँ, और भोजन तथा वस्त्र के सिवा और कुछ नहीं लेती। वह भी जितना मिल जाय, उतने से ही संतोष कर लेती हूँ। सुदेष्णा ने कहा---यदि राजा तुमपर मोहित न हों तो तुम्हे मैं अपने सिर पर रख सकती हूँ। किन्तु मुझे संदेह है कि राजा तुम्हें देखते ही संपूर्ण चित्त से तुम्हें चाहने लगेंगे। द्रौपदी बोली---महारानी ! राजा विराट अथवा कोई भी परपुरुष मुझे प्राप्त नहीं कर सकता। पाँच तरुण गन्धर्व मेरे पति हैं, जो सदा मेरी रक्षा करते रहते हैं। जो मुझे अपनी जूठन नहीं देता, मुझसे पैर नहीं धुलवाता, उसके ऊपर मेरे पति गन्धर्वलोग प्रसन्न रहते हैं; परन्तु जो मुझे अन्य साधारण स्त्रियों के समान समझकर मेरे ऊपर बलात्कार करना चाहता है, उसको उसी रात में शरीर त्याग करना पड़ता है; मेरे पति उसे मार डालते हैं। अतः कोई भी पुरुष मुझे सदाचार से विचलित नहीं कर सकता। सुदेष्णा ने कहा---नन्दिनि ! यदि ऐसी बात है, तो मैं तुम्हे अपने महल में रखूँगी। तुम्हे पैर या जूठन नहीं छूने पड़ेंगे। विराट की रानी ने जब इस प्रकार आश्वासन दिया, तब पतिव्रत धर्म पालन करनेवाली सती द्रौपदी वहाँ रहने लगी, उसे कोई भी पहचान न सका।

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