Monday 14 March 2016

वनपर्व---ब्राह्मण की अरणी लाने के लिये पाण्डवों का मृग के पीछे जाना तथा भीमसेनादि चारों भाइयों का एक सरोवर पर निर्जीव होकर गिरना

ब्राह्मण की अरणी लाने के लिये पाण्डवों का मृग के पीछे जाना तथा भीमसेनादि चारों भाइयों का एक सरोवर पर निर्जीव होकर गिरना

जयद्रथ द्वारा द्रौपदी के हरे जाने से अत्यन्त दुःखी होकर राजा युधिष्ठिर काम्यक वन छोड़कर भाइयों सहित पुनः द्वैतवन में ही आ गये। वहाँ सुस्वादु फल-मूलादि की प्रचुरता थी तथा तरह-तरह के वृक्षों के कारण वह बड़ा रमणीय जान पड़ता था। वहाँ वे मिताहारी होकर फलाहार करते हुए द्रौपदी के सहित रहने लगे। उस वन में एक ब्राह्मण के अरणी सहित मन्थन काष्ठ से एक हरिण सींग खुलजाने लगा। दैवयोग से वह काष्ठ उसके सींग में फँस गया। मृग कुछ बड़े डील-डौल का था। वह उसे लिये हुए उछलता-कूदता दूसरे आश्रम में पहुँच गया। यह देखकर वह ब्राह्मण अग्निहोत्र की रक्षा के लिये घबराकर जल्दी से पाण्डवों के पास गया। उसने भाइयों के साथ बैठे हुए महाराज युधिष्ठिर के पास आकर कहा, राजन् ! मैने अरणी के सहित अपना मन्थन काष्ठ पेड़ पर टाँग दिया था। उसमें एक मृग अपना सिर खुजलाने लगा, इससे वह उसके सिंग में फँस गया। वह विशाल मृग चौकड़ी भरता हुआ उसे लेकर भाग गया। सो आप उसके खुरों का चिह्न देखते हुए उसे पकड़िए और उसका मन्थनकाष्ठ ला दीजिये, जिससे मेरे अग्निहोत्र का लोप न हो।' उसकी बात सुनकर महाराज युधिष्ठिर को बहुत दुःख हुआ और वे भाइयोंसहित धनुष लेकर मृग के पीछे चले। सब भाइयों ने उसे बींधने का बहुत प्रयत्न किया। किन्तु वे सफल न हो सके तथा देखते-देखते वह उनकी आँखों से ओझल हो गया। उसे न देखकर वे हतोत्साह हो गये और उन्हें बहुत दुःख हुआ। घूमते-घूमते वे गहन वन में एक वट-वृक्ष के पास पहुँचे और भूख-प्यास से शिथिल होकर उसकी शीतल छाया में बैठ गये। तब धर्मराज ने नकुल से कहा, 'भैया ! तुम्हारे ये सब भाई प्यासे और थके हुए हैं। यहाँ पास ही कहीं जल या जलाशय के पास उत्पन्न होनेवाले वृक्ष हों तो देखो।' नकुल 'जो आज्ञा' कहकर वृक्ष पर चढ़ गये और इधर-उधर देखकर कहने लगे---'राजन् ! मुझे जल के पास लगनेवाले बहुत से वृक्ष दिखायी दे रहे हैं तथा सारसों का शब्द भी सुनायी देता है। इसलिये यहाँ अवश्य पानी होगा।' तब सत्यनिष्ठ युधिष्ठिर ने कहा, 'तो सौम्य ! तुम शीघ्र ही जाओ और तरकसों में पानी भर लाओ।' बड़े भाई की आज्ञा होने पर नकुल 'बहुत अच्छा' ऐसा कहकर बड़ी तेजी से चले और जल्दी ही जलाशय के पास पहुँच गये। वहाँ सारसों से घिरा हुआ बड़ा निर्मल जल देखकर वे ज्योंही पीने के लिये झुके कि उन्हें यह आकाशवाणी सुनायी दी, 'तात नकुल ! साहस न करो, पहले ही से मेरा एक नियम है। मेरे प्रश्नों का उत्तर दो। उसके बाद जल पीना और ले जाना।' किन्तु नकुल को बड़ी प्यास लगी हुई थी। उन्होंने उस वाणी की कोई परवा नहीं की। किन्तु ज्योंहि वह शीतल जल पीया कि उसे पीते ही वे भूमि पर गिर पड़े। नकुल को देर हुई देख कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर ने वीर सहदेव से कहा, 'सहदेव ! तुम्हारे ज्येष्ठ भ्राता भाई नकुल को गये बहुत देर हो गयी है। अतः तुम जाकर उन्हें लिवा लाओ और जल भी लेते आओ।' सहदेव भी 'जो आज्ञा' ऐसा कहकर उसी दिशा में चले। वहाँ उन्होंने भाई नकुल को मृत अवस्था में पृथ्वी पर पड़े देखा। उन्हें भाई के लिये बड़ा शोक हुआ, किन्तु इधर प्यास भी पीड़ित कर रही थी। वे पानी की ओर चली। इसी समय आकाशवाणी ने कहा, 'तात सहदेव !  साहस न करो। पहले ही से मेरा एक नियम है। मेरे प्रश्नों का उत्तर दो। उसके बाद जल पीना और ले जाना।' सहदेव को बड़े जोर की प्यास लगी हुई थी। उन्होंने उस वाणी की कोई परवा नहीं की। किन्तु ज्यों ही उन्होंने वह शीतल जल पीया कि उसे पीते ही वे भूमि पर गिर गये। अब धर्मराज ने अर्जुन से कहा, 'शत्रुदमन अर्जुन ! तुम्हारे भाई नकुल-सहदेव गे हुए हैं। तुम उन्हें लिवा लाओ और जल भी ले आओ। भैया !  सब दुःखियों के तुम ही सहारे हो।' तब अर्जुन ने धनुष-वाण उठाया और तलवार म्यान से बाहर निकाली। इस प्रकार वे सरोवर पर पहुँचे।  किन्तु वहाँ उन्होंने देखा कि जल लेने के लिये आये हुए उनके दोनो भाई मरे पड़े हैं। इससे पुरुषसिंह पार्थ को बड़ा दुःख हुआ और वे धनुष चढ़ाकर उस वन में सब ओर देखने लगे। परन्तु उन्हें वहाँ कोई भी प्राणी दिखायी नहीं दिया। तब प्याससे शिथिल होने के कारण वे जल की ओर चले। इसी समय उन्हें यह आकाशवाणी सुनाई दी---'कुन्तीनन्दन ! तुम पानी की ओर क्यों जाते हो ? तुम जबर्दस्ती यह पानी नहीं पी सकोगे। यदि तुम मेरे पूछे हुए प्रश्नों का उत्तर दोगे तो ही जल पी सकोगे और ले भी जा सकोगे। ' इस प्रकार रोके जाने पर अर्जुन ने कहा, 'जरा प्रकट होकर रोको। फिर तो मेरे वाणों से विन्द्ध होकर ऐसा कहने का साहस ही नहीं कर सकोगे।'  ऐसा कहकर अर्जुन ने शब्दवेध का कौशल दिखाते हुए सारी दिशाओं को अभिमन्त्रित वाणों से वयाप्त कर दिया। तब यक्ष ने कहा, 'अर्जुन ! इस वृथा उद्योग से क्या होना है ? तुम मेरे प्रश्नों का उत्तर देकर जल पी सकते हो। यदि बिना उत्तर दिये पीओगे तो पीते ही मर जाओगे।' यक्ष के ऐसा कहने पर सव्यसाची अर्जुन ने उसकी कोई परवा नहीं की और वे जल पीते ही गिर गये। अब कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर ने भीमसेन से कहा, 'भरतनन्दन ! नकुल, सहदेव और अर्जुन जल लाने के लिये बड़ी देर के गये हुए हैं, अभी तक नहीं लौटे। तुम उन्हें लिवा लाओ और जल भी ले आओ।' भीमसेन 'बहुत अच्छा' ऐसा कहकर उस स्थान पर आये, जहाँ कि उनके सब भाई मारे गये थे। उन्हें देखकर भीम को बड़ा दुःख हुआ।  इधर प्यास भी उन्हें बेतरह सता रही थी। उन्होंने समझा 'यह काम यक्ष-राक्षसों का है और आज मुझे उनसे अवश्य युद्ध करना पड़ेगा, इसलिये पहले पानी पी लूँ।' यह सोचकर वे प्यास से व्याकुल होकर जल की ओर चले। इतने में ही यक्ष बोल उठा, 'भैया भीमसेन ! साहस न करो। पहले ही से मेरा एक नियम है। मेरे प्रश्नों का उत्तर देकर तुम जल पी सकते हो और ले जा भी सकते हो।' अतुलित तजस्वी यक्ष के ऐसा कहने पर भी भीम ने उसके प्रश्नों का उत्तर दिये बिना ही जल पीया औरपीते ही वे भूमि पर गिर गये।

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