Friday 4 March 2016

वनपर्व---कर्ण की जन्म कथा---कुन्ती की ब्राह्मणसेवा और वरप्राप्ति

कर्ण की जन्म कथा---कुन्ती की 
ब्राह्मणसेवा और वरप्राप्ति

पुरानी बात है, एक बार राजा कुन्तिभोज के पास एक महान् तेजस्वी ब्राह्मण आया। उसका शरीर बहुत ऊँचा था तथा मूँछ-दाढ़ी और सिर के बाल बढ़े हुए थे। वह बड़ा ही दर्शनीय और भव्यमूर्ति था तथा हाथ में दण्ड लिये हुए था। उसका शरीर तेजसे दमक रहा था और मधु के समान पिंगलवर्ण था, वाणी मधुर थी तथा तप और स्वाध्याय ही उसके आभूषण थे। उन ब्राह्मणदेवता ने राजा से कहा, 'राजन् ! मैं आपके घर भिक्षा माँगने के लिये आया हूँ। किन्तु आपको या आपके सेवकों को मेरा कोई अपराध नहीं करनाहोगा। यदि आपकी रुचि हो तो इस प्रकार मैं आपके यहाँ रहूँगा और इच्छानुसार आता-जाता रहूँगा।'तब राजा कुन्तिभोज ने प्रेमपूर्वक उनसे कहा, 'महामते ! मेरी पृथा नाम की एक कन्या है। वह बडी सुशीला, सदाचारिणी, संयमशीला और भक्तिमति है। वही पूजा और सत्कारपू्र्वक आपकी सेवा किया करेगी। उसके शील-सदाचार से आपको अवश्य संतोष होगा।' ऐसा कहकर राजा ने विधिवत् उनका सत्कार किया और विशालनयना पृथा के पास जाकर कहा, 'बेटी ! ये महाभाग हमारे यहाँ ठहरना चाहते हैं और मैने तुझपर पूरा भरोसा रखकर इनकी बात स्वीकार कर ली है। अतः किसी भी प्रकार मेरी बात को झूठी मत होने देना। ये जो कुछ माँगे, वही चीज बिना अनखाये देती रहना। इस नगर में अथवा अन्तःपुर में ऐसा कोई पुरुष नहीं जान पड़ता, जो तुझसे असंतुष्ट हो। तू वृष्णिवंश में उत्पन्न हुई शूरसेन की लाडिली कन्या है। तूझे बचपन में ही प्रीतिपूर्वक राजा शूरसेन ने मुझे दत्तक रूप से दे दिया था। तू वसुदेवजी की बहिन है ऱ मेरी संतानों में सर्वश्रेष्ठ है। राजा शूरसेन ने ऐसी प्रतिज्ञा की थी कि 'अपनी प्रथम संतान मैं आपको दूँगा।' उस प्रतिज्ञा के अनुसार ही उनके देने से तू मेरी पुत्री हुई। सो बेटी ! यदि तू दर्प, दम्भ और अभिमान को छोड़कर इन वरदायक ब्राह्मणदेवता की सेवा करोगी तो अवश्य कल्याण प्राप्त करोगी।' इसपर कुन्ती ने कहा---राजन् ! आपकी प्रतिज्ञा के अनुसार मैं बहुत सावधान रहकर इनकी सेवा करूँगी। कुन्ती के ऐसा कहने पर राजा कुन्तिभोज ने उसे बार-बार हृदय से लगाया और उसे उत्साहित करते हुए उसका सारा कर्तव्य समझा दिया। राजा ने कहा, 'ठीक है, कल्याणी ! तुझे निःशंक होकर ऐसा ही करना चाहिये।' उससे ऐसा कहकर परम यशस्वी कुन्तिभोज ने उन ब्राह्मणदेवता को वह कन्या सौंप दी और उनसे कहा 'ब्रह्मण् ! मेरी यह कन्या छोटी आयु की है और बहुत सुख में पली है। यदि इससे कोई अपराध हो जाय तो उसपर ध्यान न दें। इसके पश्चात् राजा ने उन्हें प्रसन्न होकर हंस और चन्द्रमा के समान श्वेत प्रासाद में रखा। वहाँ अग्निशाला में उनके लिये एक तेजस्वी आसन बिछाया गया तथा उसी प्रकार पूरी-पूरी उदारता से उन्हें भोजनादि की समस्त वस्तुएँ भी समर्पित की गयीं। राजपुत्री पृथा भी आलस्य और अभिमान को एक ओर रखकर उनकी परिचर्या में दत्तचित्त होकर लग गयी। उसका आचरण बड़ा सराहनीय था। उसने शुद्ध मन से सेवा करके उन तपस्वी ब्राह्मण को पूर्णता प्रसन्न कर लिया। उनके झिड़कने, बुरा-भला कहने तथा अप्रिय भाषण करे पर भी पृथा उनको अप्रिय लगनेवाला काम नहीं करती थी। उनका व्यवहार बड़ा अटपटा था। कभी वे अनियमित समय पर आते, कभी आते ही नहीं और कभी ऐसा भोजन माँगते, जिसका मिलना अत्यन्त कठिन होता। किन्तु पृथा उनके सब काम इसप्रकार कर देती मानो उसने पहले से ही उनकी तैयारी कर रखी हो। वह शिष्य, पुत्र और बहिन के समान उनकी सेवा में तत्पर रहती थी। उसके शील-स्वभाव और संयम से उन्हें बड़ा संतोष हुआ और वे उसके कल्याण के लिये पूरा प्रयत्न करने लगे। राजन् ! कुन्तिभोज सायंकाल और सबेरे दोनो समय पृथा से पूछा करते थे कि बेटी ! वे तुम्हारी सेवा से प्रसन्न है न ? यशस्विनी पृथा उन्हें यही उत्तर देती थी कि वे खूब प्रसन्न हैं। इससे उदारचित्त कुन्तिभोज को बड़ी प्रसन्नता होती थी। इस प्रकार एक वर्ष पूरा हो जाने पर जब उन विप्रवर को पृथा का कोई दोष दिखाई नहीं दिया तो वे बड़े प्रसन्न हुए और उससे कहे, 'कल्याणी ! तेरी सेवा से मैं बहुत प्रसन्न हूँ। तू मुझसे ऐसे वर माँग ले , जो इस लोक में मनुष्यों के लिये दुर्लभ है।' तब कुन्ती ने कहा, 'विप्रवर ! आप वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ हैं। आप और पिताजी मुझपर प्रसन्न हैं, मेरे सब काम तो इसी से सफल हो गये। अब मुझे वरों की कोई आवश्यकता नहीं है।' ब्राह्मण ने कहा--'भद्रे ! यदि तू कोई वर नहीं माँगती तो देवताओं का आह्वान करने के लिये मुझसे यह मंत्र ग्रहण कर ले। इस मंत्र से तू जिस देवता का आह्वान करेगी, वही तेरे अधीन हो जायगा। उसकी इच्छा हो अथवा न हो, इस मंत्र के प्रभाव से वह शान्त होकर सेवक के समान तेरे आगे विनीत हो जायगा। उनके ऐसा कहने पर पृथा शाप के भय से दूसरी बार उन्हें मना न कर सकी। तब उन्होंने उसे अथर्ववेद-शिरोभाग में आये मंत्रों का उपदेश दिया। पृथा को मंत्रदान करके उन्होंने कुन्तिभोज से कहा, 'राजन् ! 'मैं यहाँ बड़े सुख से रहा। तुम्हारी कन्या ने मुझे सब प्रकार संतुष्ट रखा। अब मैं जाऊँगा।' ऐसा कहकर वे वहीं अन्तर्धान हो गये।



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