Wednesday 9 March 2016

वनपर्व---सूर्य द्वारा कुन्ती के गर्भ से कर्ण का जन्म और अधिरथ के यहाँ उसका पालन तथा विद्याध्ययन

सूर्य द्वारा कुन्ती के गर्भ से कर्ण का जन्म और अधिरथ के यहाँ उसका पालन तथा विद्याध्ययन

उन ब्राह्मणदेवता के चले जाने पर चे जाने पर मंत्रों के बलाबल के विषय में विचार करने लगी। उसने सोचा, 'उन महात्माजी ने मुझे कैसे मंत्र दिये हैं, मैं शीघ्र ही इनकी शक्ति की परीक्षा करूँगी।' एक दिन वह महल पर खड़ी हुई उदय होते हुए सूर्य  की ओर देख रही थी। उस समय उसकी दृष्टि दिव्य हो गयी और उसे दिव्यरूप कवच-कुण्डलधारी सूर्यनारायण के दर्शन होने लगे। उसी समय उसे मन में ब्राह्मण के दिये हुए मंत्रों की पीक्षा का कौतूहल हुआ। उसने विधिवत् आचमन और प्राणायाम करके सूर्यदेव का आह्वान किया। इससे तुरंत ही वे उसके पास आ गये। उनका शरीर मधु के समान पिंगलवर्ण था, भुजाएँ विशाल थीं, ग्रीवा शंख के समान थी, मुख पर मुस्कान की रेखा थी , भुजाओं पर बाजूबंद और सिर पर मुकुट था तथा तेज से सारा शरीर देदीप्यमान था। वे अपनी योगशक्ति से दो रूप धारण कर एक से संसार को प्रकाशित करते रहे और दूसरे से पृथा के पास आ गये। उन्होंने बड़ी मधुर वाणी से कुन्ती से कहा, 'भद्रे ! तेरे मंत्र की शक्ति से मैं बलात् से तेरे अधीन हो गया हूँ; बता मैं क्या करूँ ? अब तू जो चाहेगी, वही मैं करूँगा।' कुन्ती ने कहा---भगवन् ! आप जहाँ से आये हैं, वहीं पधार जाइये; मैने तो कौतूहल से ही आपका आह्वान किया था, इसके लिये आप मुझे क्षमा करें। सूर्य बोले--तन्वि ! तू मुझसे जाने को कहती है तो मैं चला तो जाऊँगा, परन्तु देवता का आह्वान करके उसे बिना कोई प्रयोजन सिद्ध किये लौटा देना न्यायानुकूल नहीं है। सुन्दरी ! तेरी ऐसी इच्छा थी कि 'सूर्य से मेरे पुत्र हो, वह लोक में अतुलित पराक्रमी हो और कवच तथा कुण्डल धारण किये हुए हो।' अतः तू मुझे अपना शरीर समर्पित कर दे; इससे तेरे, जैसा मेरा संकल्प था, वैसा ही पुत्र उत्पन्न होगा। कुन्ती बोली---रश्मिमालिन् ! आप अपने विमान पर बैठकर पधारिये। अभी मैं कन्या हूँ, इसलिेये ऐसा अपराध करना मेरे लिये बड़े दुःख की बात होगी। मेरे माता-पिता और जो दूसरे गुरुजन हैं, उन्हें ही इस शरीर को दान करने का अधिकार है। मैं धर्म का लोप नहीं करूँगी। लोक में स्त्रियों के सदाचार की पूजा होती है और वह सदाचार अपने शरीर को अनाचार से सुरक्षित रखना ही है। मैने मूर्खता से मन्त्र के बल की परीक्षा करने के लिये ही आपका आह्वान किया था, सो भगवन् ! मुझे बालिका जानकर यह अपराध क्षमा करें। सूर्य ने कहा---भीरु ! तू बालिका है, इसलिये मैं तेरी खुशामद कर रहा हूँ; किसी दूसरी स्त्री की मैं विनय नहीं करता। कुन्ती ! तू मुझे अपना शरीर दान कर दे, इससे तुझे शान्ति मिलेगी। कुन्ती बोली---देव ! मेरे माता, पिता तथा अन्य सम्बन्धी अभी जीवित हैं। उनके रहते हुए तो यह सनातन विधि का लोप ननहीं होना चाहिये। यदि आपके साथ मेरा यह शास्त्रविधि से विपरीत समागम हुआ तो मेरे कारण संसार में इस कुल की कीर्ति नष्ट हो जायगी। और यदि आप इसे धर्म मानते हैं तो अपने बन्धुजनों के दान न करने करने पर भी मैं आपकी इच्छा पूर्ण कर सकती हूँ। किन्तु आपको दुष्कर आत्मदान न करने पर भी मैं आपकी इच्छा पूर्ण कर सकती हूँ। किन्तु आपको दुष्कर आत्मदान करने पर भी मैं सती ही रहूँ; क्योंकि संसार में प्राणियों के धर्म, यश, कीर्ति और आयु आपही के ऊपर अवलम्बित है। सूर्य ने कहा---सुन्दरी ! ऐसा करने से तेरा आचरण अधर्ममय नहीं माना जायगा। भला, लोकों के हित की दृष्टिसे मैं भी अधर्म का आचरण कैसे कर सकता हूँ ? कुन्ती बोली---भगवन् ! यदि ऐसी बात है तो मुझसे आप जो पुत्र उत्पन्न करें वह जन्म से ही उत्तम कवच और कुण्डल पहने हुए हो तो मेरे साथ आपका समागम हो सकता है। किन्तु वह बालक पराक्रम, रूप, सत्व, ओज और धर्म से उत्पन्न होना चाहिये।  सूर्य ने कहा---राजकन्ये ! मेरी माता अदिति से मुझे जो कुण्डल और उत्तम कवच मिले हैं, वे ही मैं उस बालक को दूँगा। कुन्ती बोली---रश्मिमलिन् ! आप जैसा कह रहे हैं, यदि वैसा ही पुत्र मुझसे हो तो मैं बड़े प्रेम से आपके साथ सहवास करूँगी। तब भगवान् भास्कर ने अपने तेज से उसे मोहित कर दिया और योगशक्ति से उसे भीतर प्रवेश करके गर्भ स्थापित किया, उसके कन्यात्व को दूषित नहीं किया।  गर्भाधान हो जाने पर वह फिर सचेत हो गयी। इस प्रकार आकाश में जैसे चन्द्रमा उदित होता है , वैसे ही माघ शुक्ला प्रतिपदा के दिन पृथा के गर्भ स्थापित हुआ। उसके अन्तःपुर में रहनेवाली एक धाय के सिवा और किसी स्त्री को इसका पता नहीं चला। सुन्दरी पृथा ने यथासमय एक देवता के समान कान्तिमान् बालक उत्पन्न किया तथा सूर्यदेव की कृपा से वह कन्या ही बनी रही। वह बालक अपने पिता के समान ही शरीर पर कवच और कानों में सुवर्ण के उज्जवल कुण्डल पहने हुए था तथा उसके नेत्र सिंह के समान और कन्धे बैल के-से थे। पृथा ने धात्री से सलाह करके एक पिटारी मँगायी। उसमें अच्छी तरह से कपड़े बिछाये और ऊपर चारों ओर मोम चुपड़ दिया। फिर उसी में उस नवजात शिशु को लिटाकर ऊपर से ढ़क्कन लगाकर नदी में छोड़ दिया। उस समय कुन्ती ने रो-रोकर ये शब्द कहे, 'बेटा ! नभचर, स्थलचर और जलचर जीव तथा दिव्य प्राणी तेरा मंगल करें। तेरा मार्ग मंगलमय हो। शत्रु से तुझे कोई विघ्न न हो। जल में, जल के स्वामी वरुण तेरी रक्षा करें, आकाश में सर्वगामी पवन तेरा रक्षक हों तथा तेरे पिता सूर्यदेव सर्वत्र तेरी रक्षा करें। तू कभी विदेश में भी मिलेगा तो इन कवच और कुण्डलों से मैं तुझे पहचान लूँगी।' पृथा ने इसी प्रकार करुणापूर्वक बह विलाप किया और फिर अत्यन्त व्याकुल होकर धात्री के साथ राजमहल में लौट आयी। वह पिटारी तैरती-तैरती अश्र्वनदी से चर्मण्वती ( चम्बल ) नदी में गयी और उससे यमुना में पहुँच गयी। फिर वह यमुना में बहती-बहती गंगाजी में चली गयी और जहाँ अधिरथ सूत रहता था, उस चम्पापुरी में आ गयी। इस समय राजा धृतराष्ट्र का मित्र अधिरथ अपनी स्त्री के साथ गंगातट पर आया। राजन् ! उसकी स्त्री राधा संसार में अनुपम रूपवती थी, किन्तु उसके कोई पुत्र नहीं हुआ था। इसलिये वह पुत्रप्राप्ति के लिये विशेष रूप से यत्न करती रहती थी। दैवयोग से उसकी दृष्टि गंगाजी में बहती हुई पिटारी पर पड़ी। जब वह गंगाजी की तरंगों से टकराकर किनारे पर लग गयी तो उसने कुतूहलवश अधिरथ से कहकर उसे जल से बाहर निकलवाया। जब उसे औजारों से खुलवाया तो उसमें एक तरुण सूर्य के समान तेजस्वी बालक दिखायी दिया। वह सोने का कवच पहने हुए था तथा उसका मुख उज्जवल कुण्डलों की कान्ति से दिप रहा था। उस बालक को देखकर अधिरथ और उसकी स्त्री के नेत्र विस्मय से खिल उठे। अधिरथ ने उसे गोद में लेकर अपनी स्त्री से कहा, 'प्रिये ! मैने जबसे जन्म लिया है तबसे आज ही ऐसा विचित्र बालक देखा है। मैं तो ऐसा समझता हूँ यह कोई देवताओं का बालक हमारे पास आया है। मैं पुत्रहीन था, इसलिये अवश्य देवताओं ने ही मुझे यह पुत्र दिया है।' ऐसा कहकर उसने वह बालक राधा को दे दिया। राधा ने उस दिव्यरूप शिशु को विधिवत् ग्रहण किया और उसका नियमानुसार पालन करने लगी। इस प्रकार वह पराक्रमी बालक बड़ा होने लगा। उस बालक को वसुवर्म ( सोने का कवच ) और सुवर्णमय कुण्डल पहने देखकर ब्राह्मणों ने उसका नाम वसुषेण रखा। इस तरह वह अतुलित पराक्रमी बालक सूतपुत्र कहलाया और 'वृष' नाम से विख्यात हुआ। दिव्यकवचधारी होने से पृथा ने भी दूतों द्वारा मालूम करा लिया उसका श्रेष्ठ पुत्र अंगदेश में एक सूत के घर पल रहा है। अधिरथ ने जब देखा कि अब वह बड़ा हो गया है तो उसे वि्द्योपार्जन के लिये हस्तिनापुर भेज दिया। वहाँ वह द्रोणाचार्य के पास रहकर अ्त्रविद्या सीखने लगा। उसने द्रोण, कृप और परशुरामजी से चारों प्रकार के अस्त्रों का संचालन सीखा और इस प्रकार महान् धनुर्धर होक संपूर्ण लोकों में प्रसिद्ध हो गया। वह दुर्योधन से मेल करके सर्वदा पाण्डवों का अप्रिय करने में तत्पर रहता था और सदा ही अर्जुन से युद्ध करने की टोह में रहता था। राजन् ! निःसंदेह यही सूर्यदेव की गुप्त बात थी कि कर्ण का जन्म सूर्य द्वारा कुन्ती के उदर से हुआ था और पालन सूत परिवार में। कर्ण को कवच-कुण्डलयुक्त देखकर महाराज युधिष्ठिर उसे युद्ध में अवध्य ( अजेय ) समझते थे, और इसी से उन्हें चिन्ता रहती थी। महाराज ! कर्ण मध्याह्न के समय जल में खड़े होकर हाथ जोड़कर सूर्य की स्तुति किया करते थे।

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