Saturday 19 March 2016

वनपर्व---यक्ष युधिष्ठिर संवाद

यक्ष युधिष्ठिर संवाद

इधर महाराज युधिष्ठिर भीम को बहुत विलम्ब हुआ देखकर बड़े चिन्तित हुए। उनका चित्त शोकानल से संतप्त हो उठा और वे स्वयं ही जाने को खड़े हो गये। जलाशय के तट पर पहुँचकर उन्होंने देखा कि उनके चारों भाई मरे हुए पड़े हैं।उन्हें निष्चेष्ट पड़े देखकर महाराज युधिष्ठिर अ्यन्त खिन्न हो गये। शोकसमुद्र में डूबकर वे सोचने लगे---'इन वीरों को किसने मारा है ? इनके अंगों में कोई शस्त्रप्रहार का चिह्न भी नहीं है और यहाँ किसी के चरणचिह्न दिखायी भी नहीं देते। जिसने मेरे भाइयों को मारा है, मैं समझता हूँ वह कोई महान् प्राणी होगा। अच्छा, पहले मैं एकाग्रतापूर्वक इसके कारण का विचार करूँ अथवा जल पीने पर मुझे स्वयं ही इसका पता लग जायगा। ऐसा न हो कि हमलोगों से छिपे-छिपे कूटबुद्धि शकुनि के द्वारा दुर्योधन ने यह यह विषैला सरोवर बनवा दिया हो। किन्तु इसका जल विषैला भी नहीं जान पड़ता, क्योंकि मर जाने पर भी मेरे इन भाइयों के शरीर में कोई विकार नहीं जान पड़ता तथा इनके चेहरे का रंग भी खिला हुआ है। इनमें से प्रत्येक जल के प्रबल प्रवाह के समान महाबली हैं। इन पुरुषश्रेष्ठ का सामना भी साक्षात् यमराज के सिवा और कौन कर सकता है ?' यह सब सोचकर वे जल में उतरने को तैयार हुए। इसी समय उन्हें आकाशवाणी सुनायी दी। उसने कहा, 'मैं बगुला हूँ। मैने ही तुम्हारे भाइयों को मारा है। यदि तुम मेरे प्रश्नों का उत्तर नहीं दोगे तो पँचवें तुम भी इन्हीं के साथ सोओगे। हे तात ! साहस न करो। मेरा पहले ही से यह नियम है। तुम मेरे प्रश्नों का उत्तर दे दो। फिर जल पीना और ले भी जाना।' युधिष्ठिर ने कहा---यह काम पक्षी का तो हो नहीं सकता। अतः मैं आपसे पूछता हूँ कि आप रुद्र, वसु अथवा मरुत् आदि प्रधान देवताओं में से कौन हैं। यक्ष ने कहा---मैं करा जलचर पक्षी नहीं हूँ, मैं यक्ष हूँ। तुम्हारे ये महान् तेजस्वी भाई मैने ही मारे हैं।यक्ष की यह अमंगलमयी और कठोर वाणी सुनकर राजा युधिष्ठिर उसके पास जाकर खड़े हो गये। उन्होंने देखा कि एक विकट नेत्रोंवाला विशालकाय यक्ष वृक्ष के ऊपर बैठा है। वह बड़ा ही दुर्धर्ष, ताल के समान लम्बा, अग्नि के समान तेजस्वी और पर्वत के समान विशाल है; वही अपनी गम्भीर नादमयी वाणी से ललकार रहा है। फिर वह युधिष्ठिर से कहने लगा, 'राजन् ! तुम्हारे इन भाइयों को मैने बार-बार रोका था, फिर भी इन्होंने मूर्खता से जल ले जाना ही चाहा; इसी से मैने इन्हें मार डाला। यदि तुम्हें अपने प्राण बचाने हों तो यहाँ जल नहीं पीना चाहिये। यह स्थान पहले से ही मेरा है। मेरा यह नियम है कि पहले मेरे प्रश्नों का उत्तर दो, उसके बाद जल पीना और ले भी जाना।' युधिष्ठिर ने कहा---मैं आपके अधिकार की चीज को ले जाना नहीं चाहता। आप मुझसे प्रश्न कीजिये। कोई पुरुष स्वयं ही अपनी प्रशंसा करे, इस बात की सत्पुरुष बड़ाई नहीं करते। मैं अपनी बुद्धि के अनुसार उनके उत्तर दूँगा। यक्ष ने पूछा---सूर्य को कौन उदित करता है ? उसे चारों ओर कौन चलते हैं ? उसे अस्त कौन करता है ? और वह किसमें प्रतिष्ठित है ? युधिष्ठिर बोले---ब्रह्म सूर्य को उदित करता है, देवता उसके चारों ओर चलते हैं। धर्म उसे अस्त करता है और वह सत्य में प्रतिष्ठित है। यक्ष ने पूछा---मनुष्य श्रोत्रिय किससे होता है ? महत् पद को किसके द्वारा प्राप्त करता है ? किसके द्वारा वह द्वीतीयमान् होता है ? और किससे बुद्धिमान् होता है ? युधिष्ठिर ने कहा--- श्रुति के द्वारा मनुष्य श्रोत्रिय होता है। तप से महत्पद प्राप्त करता है। धृति से द्वीतीयवान् होता है और वृद्ध पुरुषों की सेवा से बुद्धिमान् होता है। यक्ष ने पूछा--- ऐसा कौन सा पुरुष है जो इन्द्रियों के विषयों को अनुभव करते हुए, श्वास लेते हुए तथा बुद्धिमान्, लोक में सम्मानित और सब प्राणियों का माननीय होकर भी वास्तव में जीवित नहीं है। युधिष्ठिर ने कहा--- जो देवता, अतिथि, सेवक, माता-पिता और आत्मा---इन पाँचों का पोषण नहीं करता, वह श्वास लेने पर भी जीवित नहीं है। यक्ष ने पूछा--- पृथ्वी से भी भारी क्या है ? आकाश से भी ऊँचा क्या है ? वायु से भी तेज चलनेवाला क्या है ? और तिनकों से भी अधिक संख्या में क्या है ? युधिष्ठिर बोले-- माता भूमि से भी भारी (बढ़कर) है, पिता आकाश से भी ऊँचा है, मन वायु से भी तेज चलनेवाला है और चिन्ता तिनकों से भी बढ़कर है। यक्ष ने पूछा--- सो जाने पर पलक कौन नहीं मूँदता ? उत्पन्न होने पर चेष्टा कौन नहीं करता ? हृदय किसमें नहीं है ? और वेग से कौन बढ़ता है ? युधिष्ठिर ने कहा--- मछली सोने पर भी पलक नहीं मूँदती, अण्डा उत्पन्न होने पर भी चेष्टा नहीं करता। पत्थर में हृदय नहीं है और नदी वेग से बढ़ती है। यक्ष ने पूछा--- विदेश में जानेवाला का मित्र कौन है ? घर में रहनेवाला का मित्र कौन है ? युधिष्ठिर बोले--- साथ के यात्री विदेश में जाने के लिये मित्र हैं। वैद्य रोगी का मित्र है और दान मरनेवाले पुरुष का मित्र है। यक्ष ने पूछा--- समस्त प्राणियों का अतिथि कौन है ? सनातन धर्म क्या है ? अमृत क्या है ? और ये सारा जगत् क्या है ? युधिष्ठिर ने उत्तर दिया---अग्नि समस्त प्राणियों का अतिथि है, गौ का दूध अमृत है, अविनाशी नित्य धर्म ही सनातन धर्म है और वायु यह सारा जगत् है। यक्ष ने पूछा--- अकेला कौन विचरता है ? एक बार उत्पन्न होकर पुनः कौन उत्पन्न होता है ? शीत की औषधि क्या है ? और महान् आवपन (क्षेत्र) क्या है ? युधिष्ठिर बोले-- सूर्य अकेला विचरता है, चन्द्रमा एक बार जन्म लेकर पुनः जन्म लेता है, अग्नि शीत की औषधि है और पृथ्वी बड़ा भारी आवपन है। यक्ष ने पूछा--- धर्म का मुख्य स्थान क्या है ? यश का मुख्य स्थान क्या है ? स्वर्ग का मुख्य स्थान क्या है ? और सुख का मुख्य स्थान क्या है ? युधिष्ठिर ने कहा--- धर्म का मुख्य स्थान दक्षता है, यश का मुख्य स्थान दान है, स्वर्ग का मुख्य स्थान सत्य है और सुख का मुख्य स्थान शील है। यक्ष ने पूछा--- मनुष्य का आत्मा क्या है ? उसका दैवकृत सखा कौन है ? उपजीवन ( जीने का सहारा ) क्या है ? और उसका परम आश्रय क्या है ? युधिष्ठिर बोले--- संतान मनुष्य की आत्मा है, स्त्री उसका दैवकृत सखा है, मेघ उपजीवन है और दान परम आश्रय है। यक्ष ने पूछा--- धन्यवाद के योग्य पुरुषों में उत्तम गुण क्या है ? धनों में उत्तम धन क्या है ? लाभों में प्रधान लाभ क्या है ? और सुखों में श्रेष्ठ सुख क्या है ? युधिष्ठिर बोले--- धन्य पुरुषों में दक्षता ही उत्तम गुण है, धनों में शास्त्रज्ञान प्रधान है, लाभों में आरोग्य प्रधान है और सुखों में संतोष श्रेष्ठ सुख है। यक्ष ने पूछा--- लोक में श्रेष्ठ धर्म क्या है ? नित्य फलवाला धर्म क्या है ? किसको वश में रखने से शोक नहीं होता ? और किनके साथ की हुई संधि नष्ट नहीं होती ? युधिष्ठिर बोले--- लोक में दया श्रेष्ठ धर्म है, वेदोक्त धर्म नित्य फलवाला है, मन को वश में रखने से शोक नहीं होता और सत्पुरुषों के साथ की हुई सन्धि नष्ट नहीं होती। यक्ष ने पूछा--- किस वस्तु को त्यागने से मनुष्य प्रिय होता है ? किसे त्यागने पर शोक नहीं करता ? किसे त्यागने पर वह अर्थवान् होता है ? और किसे त्यागकर सुखी होता है ? युधिष्ठिर बोले-- मान को त्यागने से मनुष्य प्रिय होता है, क्रोध को त्यागने पर शोक नहीं करता, काम को त्यागने पर वह अर्थवान् होता है और लोभ को त्यागकर सुखी होता है। यक्ष ने पूछा--- ब्राह्मण को किसलिये दान दिया जाता है ? नट और नर्तकों को क्यों दान देते हैं ? सेवकों को दान देने का क्या प्रयोजन है ? और राजा को क्यों दान दिया जाता है ? युधिष्ठिर ने कहा--- ब्राह्मण को धर्म के लिये दान दिया जाता है, नट-नर्तकों को यश के लिये दान ( इनाम ) देते हैं। सेवकों को भरण-पोषण के लिये दान ( वेतन ) दिया जाता है और राजा को भय के कारण दान ( कर ) देते हैं। यक्ष ने पूछा--- जगत् किस वस्तु से ढ़का हुआ है ? किसके कारण वह प्रकाशित नहीं होता ? मनुष्य मित्रों को किसलिये त्याग देता है ? और स्वर्ग में किस कारण से नहीं जाता ? युधिष्ठिर ने उत्तर दिया--- जगत् अज्ञान से ढ़का हुआ है, तमोगुण के कारण वह प्रकाशित नहीं होता, लोभ के कारण मनुष्य मित्रों को त्याग देता है और आसक्ति के कारण स्वर्ग में नहीं जाता। यक्ष ने पूछा--- पुरुष किस प्रकार मरा हुआ कहा जाता है ? राष्ट्र किस प्रकार मरा हुआ कहलाता है ? श्राद्ध किस प्रकार मृत हो जाता है ? और यज्ञ कैसे मृत हो जाता है ? युधिष्ठिर बोले--- दरिद्र मनुष्य मरा हुआ है, बिना राजा का राज्य मरा हुआ है। श्रोत्रिय ब्राह्मण के बिना श्राद्ध मृत हो जाता है और बिना दक्षिणा का यज्ञ मरा हुआ है। यक्ष ने पूछा---दिशा क्या है ? जल क्या है ? अन्न क्या है ?  विष क्या है ? बताओ। युधिष्ठिर ने कहा--- सत्पुरुष दिशा है। आकाश जल है। गौ अन्न है ( क्योंकि गौ से दूध-घी और हव्य होता है, उससे हवन द्वारा वर्षा से अन्न होता है। और कामना विष है। यक्ष ने पूछा--- उत्तम क्षमा क्या है ? लज्जा किसे कहते हैं ? तप का लक्षण क्या है ? और दम क्या कहलाता है ? युधिष्ठिर ने कहा---द्वन्दों को सहना क्षमा है, न करनेवाले काम से दूर रहना लज्जा है, अपने धर्म में तप है और मन का दमन दम है। यक्ष ने पूछा--- राजन् ! ज्ञान किसे कहते हैं ? शम क्या कहलाता है ? दया किसका नाम है ? और आर्जव ( सरलता ) किसे कहते हैं ? युधिष्ठिर बोले---वास्तविक वस्तु को ठीक-ठीक जानना ज्ञान है, चित्त की शान्ति शम है, सबके सुख की इच्छा रखना दया है और समचित्त होना आर्जव ( सरलता ) है। यक्ष ने पूछा--- मनुष्यों का दुर्जय शत्रु कौन है ? अनन्त व्याधि क्या है ? साधु कौन माना जाता है ? और असाधु किसे कहते हैं ? युधिष्ठिर ने कहा--- क्रोध दुर्जय शत्रु है ; लोभ अनन्त व्याधि है; जो समस्त प्राणियों का हित करनेवाला हो, वह साधु है और निर्दय पुरुष असाधु है। यक्ष ने पूछा---राजन् ! मोह किसे कहते हैं ? मान क्या कहलाता है ? आलस्य किसे जानना चाहिये ? और शोक किसे कहते है ? युधिष्ठिर बोले--- धर्ममूढ़ता ही मोह है, आत्माभिमान ही मान है, धर्म न करना आलस्य है और अज्ञान शोक है। यक्ष ने पूछा--- ऋषियों ने स्थिरता किसे कहा है ? धैर्य क्या कहलाता है ? स्नान किसे कहते हैं ? और दान किसका नाम है ? युधिष्ठिर ने कहा---अपने धर्म में स्थिर रहना ही स्थिरता है, इन्द्रियनिग्रह धैर्य है, मानसिक मलों को छोड़ना स्नान है और प्राणियों की रक्षा करना दान है। यक्ष ने पूछा--- किस पुरुष को पण्डित समझना चाहिये ? नास्तिक कौन कहलाता है ? मूर्ख कौन है ? काम क्या है ? तथा मत्सर किसे कहते हैं। युधिष्ठिर ने कहा---धर्मज्ञ को पण्डित समझना चाहिये; मूर्ख नास्तिक कहलाता है और नास्तिक मूर्ख है, जो जन्म-मरण रूप संसार का कारण है; वह वासना काम है और हृदय का ताप मत्सर है। यक्ष ने पूछा--- अहंकार किसे कहते हैं ? दम्भ क्या कहलाता है ? जिसे परमदैव कहते हैं, वह क्या है ? और पैशुन्य किसका नाम है ? युधिष्ठिर बोले--- महान् अहंकार अज्ञान है, अपने को झूठमूठ बड़ा धर्मात्मा प्रसिद्ध करना दम्भ है, दान का फल दैव कहलाता है और दूसरों को दोष लगाना पैशुन्य ( चुगली ) है। यक्ष ने पूछा---धर्म, अर्थ और काम---ये परस्पर विरधी हैं। इन नित्य विरुद्धों का एक स्थान पर कैसे संयोग हो सकता है ? युधिष्ठिर ने कहा--- जब धर्म और भार्या परस्पर वशवर्ती हों तो धर्म, अर्थ और काम तीनों का संयोग हो सकता है। यक्ष ने पूछा--- भरतश्रेष्ठ ! अक्षय नरक किस मनुष्य को प्राप्त होता है ? युधिष्ठिर बोले--- जो मनुष्य भिक्षा माँगनेवाले को नहीं देता, वह अक्षय नरक प्राप्त करता है। यक्ष ने पूछा--- बताओ, मधुर वचन बोलनेवालों को क्या मिलता है ? सोच-विचारकर काम करनेवाला क्या पा लेता है ? जो बहुत-से मित्र बना लेता है, उसे क्या लाभ होता है ? और जो धर्मनिष्ठ है उसे क्या मिलता है ? युधिष्ठिर ने कहा--- मधुर वचन बोलनेवाला सबको प्रिय होता है; सोच-विचारकर काम करनेवालों को अधिकतर सफलता मिलती है; जो बहुत से मित्र बना लेता है वह सुख से रहता है और जो धर्मनिष्ठ है उसे सद्गति मिलती है। यक्ष ने पूछा--- सुखी कौन है ? आश्चर्य क्या है ? मार्ग क्या है ? और वार्ता क्या है ? मेरे इन चार प्रश्नों का उत्तर दो। युधिष्ठिर ने कहा---जिस पुरुष पर ऋण नहीं है और जो परदेश में नहीं है, वह दिन के पाँचवें या छठे भाग में भी अपने घर में कुछ साधारण भी बनाकर खा लें वही सुखी है। रोज-रोज प्राणी यमराज के घर जा रहे हैं; किन्तु जो बचे हुए हैं, वे सर्वदा जीते रहने की इच्छा करते हैं---इससे बढ़कर और क्या आश्चर्य होगा। तर्क की कहीं स्थिति नहीं है, श्रुतियाँ भी भिन्न-भिन्न हैं, एक ही ऋषि नहीं है जिसका वचन प्रमाण माना जाय और धर्म का तत्व अत्यन्त गूढ़ है; अतः जिससे महापुरुष जाते रहे हैं वही मार्ग है। इस महमोह रूप कड़ाह में काल-भगवान् समस्त प्राणियों को मास और ऋतुरूप कलछी से उलट-पलटकर सूर्यरूप अग्नि और रात-दिन रू ईंधन के द्वारा राँध रहे हैं--यही वार्ता है। यक्ष ने पूछा--- तुमने मेरे सब प्रश्नों के ठीक-ठीक उत्तर दे दिये, अब तुम मनुष्य की भी व्याख्या कर दो और यह बताओ कि सबसे बड़ा धनी कौन है ? युधिष्ठिर बोले---जिस व्यक्ति के पुण्यकर्मों की कीर्ति का शब्द जहाँ तक स्वर्ग और भूमि को स्पर्श करता है, वहीं तक वह मनुष्य भी है। जिसकी दृष्टि में प्रिय-अप्रिय, सुख-दुःख और भूत-भविष्यत्---ये जोड़े समान हैं, वही सबसे धनी मनुष्य है। यक्ष ने कहा---राजन् ! जो सबसे धनी मनुष्य है, उसकी तुमने ठीक-ठीक व्याख्या कर दी; इसलिये अपने भाइयों में से जिस एक को तुम चाहो, वही जीवित हो सकता है। युधिष्ठिर बोले---यक्ष, यह जो श्यामवर्ण, अरुणनन, सुविशाल शालवृक्ष के समान ऊँचा और चौड़ी छातीवाला महाबाहु नकुल है, वही जीवत हो जाय। यक्ष ने कहा---राजन् ! जिसमें दस हजार हाथियों के समान बल है, उस भीम को छोड़कर तुम नकुल को क्यों जिलाना चाहते हो ? तथा जिसके बाहुबल का सभी पाण्डवों को पूरा भरोसा है उस अर्जुन को भी छोड़कर तुम्हे नकुल को जिला देने की इच्छा क्यों है ? युधिष्ठिर ने कहा--- यदि धर्म का नाश किया जाय तो वह नष्ट हुआ धर्म ही कर्ता को भी नष्ट कर देता है और यदि उसकी रक्षा की जाय तो वही करा की भी रक्षा कर लेता है। इसी से मैं धर्म का त्याग नहीं करता, जिससे कि नष्ट होकर धर्म ही मेरा नाश न कर दे। मेरा ऐसा विचार है कि वस्तुतः सबके प्रति समान भाव रखना परम धर्म है। लोग मेरे विषय में समझते हैं कि राजा युधिष्ठिर धर्मात्मा हैं। मेरे पिता की कुन्ती और माद्री दो भार्याएँ थीं, वे दोनो ही पुत्रवती बनी रहें---ऐसा मेरा विचार है। मेरे लिये जैसी कुन्ती है, वैसी ही माद्री है; उन दोनो में कोई अन्तर नहीं है। मैं दोनो माताओं के प्रति समान भाव ही रखना चाहता हूँ, इसलिये नकुल ही जीवित हो। यक्ष ने कहा--- भरतश्रेष्ठ ! तुमने अर्थ और काम से भी समता का विशेष आदर किया है, इसलिये तुम्हारे सभी भाई जीवित हो जायँ।

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