Thursday 3 March 2016

वनपर्व---स्वप्न में ब्राह्मणवेषधारी सूर्यदेव की कर्ण को चेतावनी

स्वप्न में ब्राह्मणवेषधारी सूर्यदेव की कर्ण को चेतावनी

जब पाण्डवों के बारह वर्ष बीत गये और तेरहवाँ वर्ष आरम्भ हुआ तो पाण्डवों के हितैषी इन्द्र कर्ण से उनके कवच और कुण्डल माँगने को तैयार हुए। जब सूर्यदेव को इन्द्र का ऐसा विचार मालूम हुआ तो वे कर्ण के पास आये। सत्यवादी वीरवर कर्ण अत्यन्त निश्चिन्त होकर एक सुन्दर बिछौनेवाली बहुमूल्य सेज पर सोये हुए थे। सूर्यदेव पुत्रस्नेहवश अत्यन्त दयार्द्र होकर वेदवेत्ता ब्राह्मण के रूप में स्वप्नावस्था में उनके सामने आये और उनके हित के लिये समझाते हुए इस प्रकार कहने लगे, 'सत्यवादियों में श्रेष्ठ महाबाहु कर्ण ! मैं स्नेहवश तुम्हारे परम हित की बात कहता हूँ, उसपर ध्यान दो। देखो, पाण्डवों का हित करने की इच्छा से देवराज इन्द्र ब्राह्मण के रूप में तुम्हारे पास कवच और कुण्डल माँगने के लिये आयेंगे। वे तुम्हारे स्वभाव को जानते हैं तथा सारे संसार को भी तुम्हारे इस नियम का पता है कि किसी सत्पुरुष के माँगने पर तुम उसकी अभीष्ट वस्तु दे देते हो और स्वयं कभी किसी से कुछ नहीं माँगते। किन्तु यदि तुम अपने जन्म के साथ ही उत्पन्न हुए इन कवच और कुण्डल को दे दोगे तो तुम्हारी आयु क्षीण हो जायगी और तुम्हारे ऊपर मृत्यु का अधिकार हो जायगा। तुम सच मानो, जबतक तुम्हारे पास ये कवच और कुण्डल रहेंगे, तुम्हे युद्ध में कोई भी शत्रु नहीं मार सकता। ये रत्नमय कवच-कुण्डल अमृत से उत्पन्न हुए हैं; इसलिये यदि तुम्हे प्राण प्यारे हैं तो इनकी अवश्य रक्षा करनी चाहिये।' कर्ण ने पूछा---भगवन् ! आप मेरे प्रति अत्यन्त स्नेह दिखाते हुए मुझे उपदेश कर रहे हैं। यदि इच्छा हो तो बताइये इस ब्राह्मण वेश में आप कौन हैं ? ब्राह्मण ने कहा---हे तात ! मैं सूर्य हूँ; मैं स्नेहवश ही तुम्हे ऐसी सम्मति दे रहा हूँ। तुम मेरी बात मानकर ऐसा ही करो। इसी में तुम्हारा विशेष कल्याण है। कर्ण बोले---जब स्वयं भगवान् भास्कर ही मुझे मेरे हित की इच्छा से उपदेश कर रहे हैं तो मेरा परम कल्याण तो निश्चित ही है; किन्तु आप मेरी यह प्रार्थना सुनने की कृपा करें। आप वरदायक देव हैं, आपको प्रसन्न रखते हुए मैं प्रेमपूर्वक यह निवेदन करता हूँ कि यदि आप मुझे प्यार करते हैं तो इस व्रत से मुझे विचलित न करें। सूर्यदेव ! संसार में मेरे इस व्रत को सभी लोग जानते हैं कि मैं श्रेष्ठ माँगनेवालों के माँगने पर अपने प्राण भी अवश्य दान कर सकता हूँ। यदि देवश्रेष्ठ इन्द्र पाण्डवों के हित के लिये ब्राह्मण का वेष धारण कर मरे पास भिक्षा माँगने के लिये आयेंगे तो मैं उन्हें ये दिव्य वच और कुण्डल अवश्य दे दूँगा। इससे तीनों लोकों में जो मेरा नाम हो रहा है, उसे बट्टा नहीं लगेगा। मेरे जैसे लोगों को यश की ही रक्षा करनी चाहिये, प्राणों की नहीं। संसार में यशश्वी होकर ही मरना चाहिये। सूर्य ने कहा---कर्ण ! तुम देवताओं की गुप्त बातें नहीं जान सकते। इसलिये इसमें जो रहस्य है, वह मैं तुम्हें नहीं बताना चाहता; समय आने पर तुम्हे वह स्वयं ही मालूम हो जायगा। किन्तु मैं तुमसे फिर भी कहता हूँ कि तुम माँगने पर भी इन्द्र को अपने कुण्डल मत देना, क्योंकि इन कुण्डलों से युक्त रहने पर तो अर्जुन और उसका सखा इन्द्र भी तुम्हें युद्ध में परास्त करने में समर्थ नहीं है। इसलिये यदि तुम अर्जुन को जीतना चाहते हो तो ये दिव्य कुण्डल इन्द्र को कदापि मत देना। कर्ण ने कहा---सूर्यदेव ! आपके प्रति जैसी मेरी भक्ति है, वह आप जानते ही हैं; तथा यह बात भी आपसे छिपी नहीं है कि मेरे लिये अदेय कुछ भी नहीं है। भगवन् ! आपके प्रति मेरा जैसा अनुराग है वैसा प्रेम तो स्त्री, पुत्र, शरीर और सुहृदों के प्रति भी नहीं है। इसमें भी संदेह नहीं कि महानुभावों का अपने भक्तों पर अनुराग रहा ही करता है। अतः इस नाते से आप जो मेरे हित की बात कर रहे हैं, उसके लिये मैं आपको सिर झुकाता हूँ और आपको प्रसन्न रखते हुए बार-बार यही प्रार्थना करता हूँ कि आप मेरा अपराध क्षमा करें और मेरे इस वरत का अनुमोदन करें, जिससे कि याचना करने पर मैं इन्द्र को अपने प्राण भी दान कर सकूँ। सूर्य बोले---अच्छा, यदि तुम अपने ये दिव्य कवच और कुण्डल दो ही तो अपनी विजय के लिये उनसे यह प्रार्थना करना कि 'देवराज ! आप मुझे अपनी शत्रुओं का संहा करनेवाली अमोघ शक्ति दीजिये, तब मैं आपको कवच और कुण्डल दूँगा।' महाबाहो इन्द्र की वह शक्ति बड़ी प्रबल है। जबतक वह सैकड़ों हजारों शत्रुओं का संहार नहीं कर लेती तबतक छोड़नेवाले के हाथ में लौटकर नहीं आती। ऐा कहकर भगवान् सूर्य अन्तर्धान हो गये। दूसरे दिन जप समाप्त करने के अनन्तर कर्ण ने ये सब बातें सूर्यनारायण से कहीं। उन्हें सुनकर भगवान् भास्कर ने मुस्कुराकर कहा, 'यह कोरा स्वप्न ही नहीं है, सब सच्ची घटना है।' तब कर्ण ने उन बातों को ठीक समझकर शक्ति पाने की इच्छा से इन्द्र की प्रतीक्षा करने लगे।

1 comment:

  1. माते! आपके मन में महाभारत ग्रन्थ को लिखने की जिज्ञासा कैसी उतपन्न हुई ? यह जानने की इच्छा है ।

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