Monday 29 February 2016

वनपर्व---धुमत्सेन और शैव्या की चिन्ता, सत्यवान् और सावित्री का आश्रम में पहुँचना तथा धुमत्सेन का राज्य पाना

धुमत्सेन और शैव्या की चिन्ता, सत्यवान् और सावित्री का आश्रम में पहुँचना तथा धुमत्सेन का राज्य पाना
मार्कण्डेयजी कहते हैं---राजन् !  इसी बीच में धुमत्सेन को पुत्र के न आने से उन्हें बड़ी चिन्ता हुई और रानी शैव्या के सहित वे उसे सब आश्रमों में घूमकर देखने लगे। फिर उनके पास समस्त आश्रमवासी आये और उन्हें धीरज बँधाकर उनके आश्रम ले गये। वहाँ बड़े-बूढ़े उन्हें प्राचीन राजाओं की तरह-तरह की कथाएँ सुनाकर धैर्य बँधाने लगे। उनमें सुवर्ण नाम का ब्राह्मण बड़ा सत्यवादी था। उसने कहा, 'सत्यवान् की स्त्री सावित्री तप, इन्द्रियसंयम और सदाचार का सेवन करनेवाली है; इसलिये वह अवश्य जीवित होगा।' जब सत्यवक्ता ऋषियों ने धुमत्सेन को इस प्रकार समझाया तो उन सबकी बात मानकर वे स्थिर हो गये। इसके कुछ देर बाद सत्यवान् के सहित सावित्री आ गयी और वे दोनो प्रसन्न होते हुए आश्रम में घुस गये। सभी के पूछने पर सावित्री ने पूरी कहानी सुना दी। ऋषियों ने कहा---साध्वी ! तू सुशीला, व्रतशीला और पवित्र आचरणवाली है। तूने उत्तम कुल में जन्म लिया है। राजा धुमत्सेन का दुःखाक्रान्त परिवार आज अन्धकारमय गड्ढ़े में डूबा जाता था, सो तूने उसे बचा लिया। मार्कण्डयी कहते हैं---राजन् ! वहाँ एकत्रित हुए ऋषियों ने इस प्रकार प्रशंसा करके स्त्रीरत्नभूता सावित्री का सत्कार किया तथा राजा और राजकुमारी की अनुमति लेकर प्रसन्नचित्त से अपने-अपने आश्रमों को चले गये। दूसरे दिन शाल्वदेश के समस्त राजकर्मचारियों ने आकर धुमत्सेन से कहा कि 'वहाँ जो राजा था उसे उसी के मंत्री ने मार डाला है तथा उसके किसी सहायक और स्वजन को भी जीवित नहीं छोड़ा है। शत्रु की सारी सेना भाग गयी है और सारी प्रजा ने आपके विषय में एकमत होकर यह निश्चय किया है कि उन्हें दीखता हो अथवा न दीखता हो, वे ही हमारे राजा होंगे। राजन् ! ऐसा निश्चय करके ही हमें यहाँ भेजा गया है। हम आपके लिये ये सवारियाँ आपकी चतुरंगिणी सेना लाये हैं।  आप प्रस्थान करने की कृपा कीजिये। नगर में आपकी जय घोषित कर दी गयी है। आप अपने बाप-दादों के राज पर चिर-काल तक प्रतिष्ठित रहें।' फिर राजा धुमत्सेन को नेत्रयुक्त और स्वस्थ शरीरवाला देखकर उन सभी के नेत्र आश्चर्य से खिल उठे और उन्हें सिर झुकाकर प्रणाम किया। राजा ने आश्रम में रहनेवालों को अभिवादन किया और अपनी राजधानी को चल दिये। वहाँ पहुँचने पर पुरोहितों ने बड़ी प्रसन्नता से धुमत्सेन का राज्याभिषेक किया और उनके पुत्र महात्मा सत्यवान् को युवराज बनाया। इसके बहुत समय बाद सावित्री के सौ पुत्र हुए, जो संग्राम में पीठ न दिखानेवाले और यश की वृद्धि करनेवाले शूरवीर थे। इसी प्रकार मद्रराज अश्वपति की रानी मालवी से उसके वैसे ही सौ भाई थे। इस प्रकार सावित्री ने अपने को तथा माता-पिता, सास-ससुर और पति के कुल---इन सभी को संकट से उबार लिया। इन सभी को संकट से उबार लिया। इसी प्रकार यह सावित्री के समान शीलवती, कुलकामिनी, कल्याणी द्रौपदी भी आप सबका उद्धार करेगी। इस प्रकार मार्कण्डेयजी के समझाने से शोक और संताप से मुक्त होकर महाराज युधिष्ठिर काम्यक वन में रहने लगे। जो पुरुष इस परम पवित्र सावित्रीचरित को श्रद्धापूर्वक सुनेगा, वह समस्त मनोरथों के सिद्ध होने से सुखी होगा और कभी दुःख में न पड़ेगा।

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