Monday 22 February 2016

वनपर्व---सावित्री चरित्र---सावित्री का जन्म और विवाह

सावित्री चरित्र---सावित्री का जन्म और विवाह


युधिष्ठिर ने पूछा---मुनिवर ! इस द्रौपदी के लिये मुझे जैसा शोक होता है, इन भाइयों के लिये और राज्य छिन जाने के लिये ही। यह जैसी पतिव्रता है, वैसी क्या कोई दूसरी भाग्यवती नारी भी आपने पहले कभी देखी या सुनी है ? मार्कण्डेयजी ने कहा---राजन् ! राजकन्या सावित्री ने जिस प्रकार यह कुलकामिनियों का परम सौभाग्यरूप पातिव्रत्य का सुयश प्राप्त किया था, वह मैं कहता हूँ; सुनो। 
मद्रदेश में अश्वपति नाम का एक बड़ा ही धार्मिक और ब्राह्मणसेवी राजा था। वह अत्यन्त उदारहृदय, सत्यनिष्ठ, जितेन्द्रिय, दानी, चतुर, पुरवासी और देशवासियों का प्रिय, समस्त प्राणियों के हित में तत्पर रहनेवाला और क्षमाशील था। उस नियमनिष्ठ राजा की धर्मशीला ज्येष्ठा पत्नी को गर्भ रहा यथासमय उसके एक कमलनयनी कन्या उत्पन्न हुई। राजा ने प्रसन्न होकर उस कन्या के जातकर्मादि सब संस्कार किये। वह कन्या सावित्री के मन्त्र द्वारा हवन करने पर सावित्री देवी ने ही प्रसन्न होकर दी थी; इसलिये ब्राह्मणों ने और राजा ने उसका नाम 'सावित्री' रखा। मूर्तिमति लक्ष्मी के समान वह कन्या धीरे-धीरे बढ़ने लगी। यथासमय उसने युवावस्था में प्रवेश किया। कन्या को युवती हुई देखकर महाराज अश्वपति बड़े चिन्तित हुए। उन्होंने सावित्री से कहा, 'बेटी ! अब तू विवाह के योग्य हो गयी है, इसलिये स्वयं ही अपने योग्य कोई वर खोज ले। धर्मशास्त्र की ऐसी आज्ञा है कि विवाह के योग्य हो जाने पर जो कन्यादान नहीं करता, वह पिता निन्दनीय है; ऋतुकाल में जो पति स्त्रीसमागम नहीं करता, वह पति निन्दा का पात्र है और पति के मर जाने पर उस विधवा माता का जो पालन नहीं करता वह पुत्र निन्दनीय है। अतः तू शीघ्र ही वर की खोज कर ले और ऐसा कर, जिससे मैं देवताओं की दृष्टि में अपराधी बनूँ।' पुत्री से ऐसा कहकर उन्होंने अपने बूढ़े मंत्रियों को आज्ञा दी कि 'आपलोग सवारी लेकर सावित्री के साथ जायँ।' तपस्विनी सावित्री ने कुछ सकुचाते हुए पिता की आज्ञा स्वीकार की और उनके चरणों में नमस्कार कर सुवर्ण के रथ में चढ़कर बूढ़े मंत्रियों के साथ रथ में चढ़कर बूढ़े मंत्रियों के साथ वर की खोज करने चल दी। वह राजर्षियों के रमणीय तपोवन में गयी और उन माननीय वृद्ध पुरुषों के चरणों की वन्दना कर फिर क्रमशः अन्य सब वनों में विचरती रही। इस तरह वह सभी तीर्थों में श्रेष्ठ ब्राह्मण को धन दान करती विभिन्न देशों में घूमती रही।राजन् ! एक दिन मद्रराज अश्वपति अपनी सभा में बैठे हुए देवर्षि नारद से बातें कर रहे थे। उसी समय मंत्रियों के सहित सावित्री समस्त तीर्थों में विचरकर अपने पिता के घर पहुँची। वहाँ पिता को नारद के साथ बैठे देखकर उसने दोनो ही के चरणों में प्रणाम किया।उसे देखकर नारदजी ने पूछा, 'राजन् ! आपकी यह पुत्री कहाँ गयी थी और अब कहाँ से रही है ? यह युवती हो गयी है, फिर भी आप किसी वर के साथ इसका विवाह क्यों नहीं करते ?' अश्वपति ने कहा, 'इसे मैने किसी काम के लिये भेजा था और यह आज ही लौटी है। आपइसी से पूछिये इसने किस वर को चुना है।' तब पिता के यह कहने पर कि तू अपना वृतान्त सुना दे, सावित्री ने उनकी बात मानकर कहा---'शाल्वदेश में धुमत्सेन नाम से विख्यात एक बड़े धर्मात्मा राजा थे। पीछे वे अन्धे हो गये थे। इस प्रकार आँखें चले जाने से और पुत्र की पुत्र की बाल्यावस्था होने से अवसर पाकर उसके पूर्वशत्रु एक पड़ोसी राजा ने उनका राज्य हर लिया। अपने बालक पुत्र और भार्या के सहित वे वन में चले गे और बड़े-बड़े व्रतों का पालन करते हुए तपस्या करने लगे। उनके कुमार सत्यवान्, जो अब वन में रहते हुए बड़े हो गये हैं, मेरे अनुरूप हैं और मैने मन से उन्हीं को अपने पतिरूप से वरण किया है।' यह सोचकर नारदजी ने कहा---राजन् ! बड़े खेद की बात है। हाय ! सावित्री से तो बड़ी भूल हो गयी, जो इसने बिना जाने ही गुणवान् समझकर सत्यवान् को वर लिया ! इस कुमार के पिता सत्य बोलते हैं और माता भी सत्यभाषण ही करती है। इसीलिये इसका नाम 'सत्यवान्' रखा गया है। राजा ने पूछा---अच्छा, इस समय अपने पिता का लाड़ला राजकुमार सत्यवान् तेजस्वी, बुद्धिमान्, क्षमावान् और शूरवीर तो है ? नारदजी बोले---वह धुमत्सेन का वीर पुत्र सूर्य के समान तेजस्वी, वृहस्पति के मान बुद्धिमान्, इन्द्र के समान वीर, पृथ्वी के समान क्षमाशील, रन्तिदेव के समान दाता, उशीनर के पुत्र शिबि के समान सत्यवादी, ययाति के समान उदार, चन्द्रमा के समान प्रियदर्शन और अश्विनीकुमारों के समान अद्वितीय रूपवान हैं। वे जितेन्द्रिय हैं, मृदुलस्वभाव हैं, शूरवीर हैं, सत्यवादी हैं, मिलनसार हैं, ईर्ष्याहीन हैं, लज्जाशील हैं और तेजस्वी हैं। तप और शील में बढ़े हुए ब्राह्मणलोग संक्षेप में उसके विषय में ऐसा कहते हैं कि उसमें सरलता का निरन्तर निवास रहता है और उसमें उसकी अविचल स्थिति हो गयी है।अश्वपति ने कहा--भगवन् ! आप तो उसे सभी गुणों से सम्पन्न बता रहे हैं।अब यदि उसमें कोई दोष हो तो वे भी मुझे बताइये। नारदजी ने कहा---उसमें केवल एक ही दोष है; किन्तु उससे उसके सारे गुण दबे हुए हैं तथा किसी प्रयत्न द्वारा भी उसे निवृत किया नहीं जा सकता। उसके सिवा उसमें और कोई दोष नहीं है।वह दोष यह है कि आज से एक वर्ष बाद सत्यवान की आयु समाप्त हो जायगी और वह देह-त्याग कर देगा। तब राजा ने सावित्री से कहा---सावित्री ! यहाँआ।देख, तू फिर जा और किसी दूसरे वर की खोज कर। देवर्षि नारद मुझस कहतेहैं कि सत्यवान् तो अल्पायु है, वह एक वर्ष पीछे ही देह-त्याग कर देगा।सावित्री ने कहा---पिताजी ! काष्ठ-पाषाणादि का टुकड़ा एक बार ही उससे अलग होता है, कन्यादान एक बार ही किया जाता है और 'मैनेदिया' ऐसा संकल्प भी एक बार ही होता है ये तीन बातें एक-एक बार ही हुआ करती हैं।अब तो जिसे मैने एक बार वरण कर लिया --वह दीर्घायु हो अथवा अल्पायु तथा गुणवान् होअथवा गुणहीन--वही मेरा पति होगा; किसी अन्य पुरुष को मैं नहीं वर सकती।पहले मन से निश्चय करके फिर वाणी से कहा जाता है और उसके बाद कर्म द्वारा किया जाता है। अतः मेरे लिये तो मन ही परम प्रमाण है ।नारदजी बोले---राजन् ! तुम्हारी पुत्री सावित्री की बुद्धि निश्चयात्मिका है। इसलिये इसे किसी भी प्रकार इसे धर्म से विचलित नहीं किया जा सकता। सत्यवान् में जो-जो गुण हैं, वे किसी दूसरे पुरुष में हैं भी नहीं ।अतः मुझे भी यही अच्छा जान पड़ता है कि आप उसे कन्यादान कर दें राजा ने कहा---आपने जो बात ही है, वह बहुत ठीक है और किसी प्रकार टाली नहीं जा सकती।अतः मैं ऐसा ही करूँगा मेरे तो आप ही गुरु हैं फिर कन्यादान के विषय में नारदजी की आज्ञा को ही शिरोधार्य समझ राजा अश्वपति ने सब वैवाहिक सामग्री एकत्रित करायी और वृद्ध पुरोहित के सहित सभी ऋत्वजों को बुलाकर शुभ दिन में कन्या के सहित प्रस्थान किया।जब एक पवित्र वन में राजा धुमत्सेन के आश्रम पर पहुँचे तो ब्राह्मणों के साथ पैदल ही उन राजर्षि के पास गये। वहाँ उन्होंने नेत्रहीन राजा धुमत्सेन को सालवृक्ष के नीचे एक कुश के आसन पर बैठे देखा।राजा अश्वपति ने राजर्षि धुमत्सेन की यथायोग्य पूजा की और विनीत शब्दों में उन्हे अपना परिचय दिया।धर्मज्ञ राजर्षि ने अर्ध्य और आसन देकर राजा का सत्कार किया और पूछा, 'कहिये, किस निमित्त से पधारने की कृपा की ?' तब अश्वपति ने कहा, 'राजर्षे ! मेरी यह सावित्री नाम की रूपवति कन्या है।इसे अपने धर्म के अनुसार आप अपनी पुत्रवधू के रूप में स्वीकार कीजिये।' धुमत्सेन ने कहा---हम राज्य से भ्रष्ट हो चुके हैं और यहाँ वन में रहकर संयम पूर्वक तपस्वियों का जीवन व्यतीत करते हैं।आपकी कन्या तो यह सब कष्ट सहन योग्य नहीं है। वह यहाँ आश्रम में वनवास के दुःख को सहन करती हुई कैसे रहेगी ?अश्वपतिनेकहा---राजन् ! सुखऔरदुःखतोआने-जानेवालेहैं, इस बात को मैं और मेरी पुत्री दोनो जानते हैं। मेरे-जैसे आदमी से आपको ऐसी बात नहीं करनी चाहिये, मैं तो सब प्रकार निश्चय करके ही आपके पास आया हूँ। धुमत्सेन बोले---राजन् ! मैं तो पहले ही आपके साथ सम्बन्ध करना चाहता था, किन्तु राजच्युत होने के कारण मैने अपना विचार छोड़ दिया था।अब यदि मेरी पहले की अभिलाषा स्वयं ही पूर्ण होना चाहती है तो ऐसा ही हो।आप तो मेरे अभीष्ट अतिथि हैं।तदनन्तर उस आश्रम में रहनेवाले सभी बाराह्मणों को बुलाकर दोनो राजाओं ने विधिवत् विवाह संस्कार कराया और यथायोग्य रीति से वर-कन्या को आभूषण आदि भी दिये।इसके पश्चात् राजा अश्वपति बड़े आनन्द से अपने भवन को लौट आये।उस सर्वगुणसम्पन्न भार्या को पाकर सत्यवान् को बड़ी प्रसन्नता हुई और अपना मनमाना वर पाकर सावित्री को भी बड़ा आनन्द हुआ।पिता के चले जाने पर सावित्री ने सब आभूषण उतार दिये और वल्कल वस्त्र तथा गेरुये कपड़े पहन लिये।उसकी सेवा, विनय, गुण, संयम और सबके मनके अनुसार काम करने से सभी को बहुत संतोष हुआ।उसने शारीरिक सेवा और सब प्रकार के वस्त्राभूषणों के द्वारा सासको और देवता के समान सत्कार करते हुए अपनी वाणी का संयम करके ससुरजी को संतुष्ट किया इसी प्रकार मधुरभाषण, कार्यकुशलता, शान्ति और एकान्त में सेवा करके पतिदेव को प्रसन्न किया। इस प्रकार उस आश्रम में रहकर तपस्या करते हुए उन्हें कुछ समय बीता

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