Saturday 27 February 2016

वनपर्व---सावित्री द्वारा सत्यवान् को जीवनदान

सावित्री द्वारा सत्यवान् को जीवनदान
जब बहुत दिन बीत गये तो अन्त में समय आ ही गया, जिस दिन कि सत्यवान् मरने वाला था। सावित्री एक-एक दिन गिनती रहती थी और उसके हृदय में नारदजी का वचन सदा ही बना रहता था। जब उसने देखा कि अब इन्हें चौथे दिन मरना है तो उसने तीन दिन का व्रत धारण किया और वह रात दिन स्थिर होकर बैठी रही । कल पतिदेव के प्राण प्रयाण करेंगे, इस चिंता में सावित्री ने बैठे-बैठे ही वह रात बितायी । दूसरे दिन यह सोचकर कि आज ही वह दिन है, उसने सूर्यदेव के चार हाथ ऊपर उठते-उठते अपने सभी आह्लिक कृत्य समाप्त किये और प्रज्जवलित अग्नि में आहुतियाँ दीं । फिर सभी बड़े-बूढ़े, सास और ससुर को क्रमशः प्रणाम कर संयम पूर्वक हाथ जोड़कर खड़ी रही । उस तपोवन में रहनेवाले सभी तपस्वियों ने उसे अवैधव्य के सूचक शुभ आशीर्वाद दिये और सावित्री ने तपस्वियों की उस वाणी को 'ऐसा ही हो' इस प्रकार ध्यान योग में स्थित होकर ग्रहण किया। इसी समय सत्यवान् के कन्धे पर कुल्हाड़ी रखकर वन से समिधा लाने को तैयार हुआ। तब सावित्री ने कहा, 'आप अकेले न जायँ, 'मैं भी आपके साथ चलूँगी।' सत्यवान् ने कहा, 'प्रिये ! तुम पहले कभी वन में गयी नहीं हो, वन का रास्ता बड़ा कठिन होता है और तुम उपवास के कारण दुर्बल हो रही हो; फिर इस विकट मार्ग में पैदल ही कैसे चलोगी ?' सावित्री बोली, 'उपवास के कारण मुझे किसी प्रकार की शिथिलता या थकान नहीं है, चलने के लिये मन में बहुत उत्साह है। इसलिये आप रोकिये मत।' सत्यवान् ने कहा 'यदि तुम्हे चलने का उत्साह है तो, जो तुम्हे अच्छा लगे, करने को तैयार हूँ; किन्तु तुम माताजी और पिताजी से भी आज्ञा ले लो। तब सावित्री ने अपने सास-ससुर को प्रणाम करके कहा, 'मेरे स्वामी फल दिलाने के लिये वन में जा रहे हैं। यदि सासजी और ससुरजी आज्ञा दें तो आज मैं भी इनके साथ जाना चाहती हूँ।' इसपर धुमत्सेन ने कहा, 'जब से पिता के कन्यादान करने पर सावित्री बहू बनकर हमारे आश्रम में रही है, तबसे मुझे इसके किसी भी बात के लिये याचना करने का स्मरण नहीं है।अतः आज इसकी इच्छा अवश्य पूरी होनी चाहिये । अच्छा, बेटी ! तू जा, मार्ग में सत्यवान् की संभाल रखना।' इस प्रकार सास-ससुर की आज्ञा पाकर यशस्विनी सावित्री अपने पतिदेव के साथ चल दी। वह ऊपर से तो हँसती सी जान पड़ती थी, किन्तु उसके हृदय में दुःख की ज्वाला धधक रही थी।वीर सत्यवान् ने पहले तो अपनी पत्नी के सहित फल बीनकर एक टोकरी भर ली और वह लकड़ियाँ काटने लगा। लकड़ी काटते-काटते परिश्रम के कारण उसे पसीना आ गया और इसी से उसके सिर में दर्द होने लगा । इस प्रकार श्रम से पीड़ित होकर उसने सावित्री के पास जाकर कहा, 'प्रिेये ! आज लकड़ी काटने के परिश्रम से मेरे सिर में दर्द होने लगा है तथा सारे अंगों में और हृदय में भी दाह सा होता है; मुझे शरीर कुछ अस्वस्थ सा जान पड़ता है और ऐसा मालूम होता है कि मा मेरे सिर में कोई बर्छी छेद रहा है । कल्याणी ! अब मैं सोना चाहता हूँ बैठने की मुझ में शक्ति नहीं है।'यह सुनकर सावित्री अपने पति के पास आयी और उसका सिर गोदी में रखकर पृथ्वी पर बैठ गयी । फिर वह नारद जी की बात याद करके उस मुहूर्त, क्षण और दिन का विचार करने लगी। इतने में ही उसे वहाँ एक पुरुष दिखाई दिया।वह लाल वस्त्र पहने था, उसके सिर पर मुकुट था और अत्यन्त तेजस्वी होने के कारण वह मूर्तिमान सूर्य के समान जान पड़ता था । उसका शरीर श्याम और सुन्दर था, नेत्र लाल-लाल थे, हाथ में पाश था और देखने में वह बड़ा भयानक जान पड़ता था। वह सत्यवान् के पास खड़ा हुआ उसी की ओर देख रहा था। उसे देखते ही सावित्री ने धीरे से पति का सिर भूमि पर रख दिया और सहसा खड़ी हो गयी। उसका हृदय धड़कने लगा और उसने अत्यन्त आर्त होकर उससे हाथ जोड़कर कहा, 'मैं समझती हूँ आप कोई देवता हैं, क्योंकि आपका यह शरीर मनुष्य का –सा नहीं है। यदि आपकी इच्छा हो तो बताइये आप कौन हैं और क्या करना चाहते हैं ? 'यमराज ने कहा---सावित्री ! तू पतिव्रता और तपस्विनी है, इसलिये मैं तुझसे सम्भाषण कर लूँगा। तू मुझे यमराज जान। तेरे पति इस राजकुमार सत्यवान् की आयु समाप्त हो चुकी है, अब मैं इसे पाश में बाँध कर ले जाऊँगा। यही मैं करना चाहता हूँ। सावित्री ने कहा---भगवन् ! मैने ऐसा सुना है कि मनुष्यों को लेने के लिये आपके दूत आया करते हैं। यहाँ स्वयं आप ही कैसे पधारे ? यमराज बोले---सत्यवान् धर्मात्मा, रूपवान् और गुणों का समुद्र है। यह मेरे दूतों द्वारा ले जाने योग्य नहीं है। इसी से मैं स्वयं आया हूँ। इसके बाद यमराज ने बलात् सत्यवान् के शरीर में से पाश में बँधा हुआ अंगुष्ठमात्र परिमाणवाला जीव निकाला। उसे लेकर वे दक्षिण की ओर चल दिेये। तब दुःखातुरा सावित्री भी यमराज के पीछे ही चल दी। यह देखकर यमराज ने कहा, 'सावित्री ! तू लौट जा और इसका दैहिक संस्कार कर। तू पतिसेवा के ऋण से मुक्त हो गयी है। पति के पछे भी तुझे जहाँ तक आना था, वहाँ तक आ चुकी है।' सावित्री बोली---मेरे पतिदेव जहाँ भी ले जाया जायगा अथवा जहाँ वे स्वयं जायेंगे, वहीं मुझे भी जाना चाहिये यही सनातन धर्म है। तपस्या, गरुभक्ति, पतिप्रेम, व्रताचरण और आपकी कृपा से मेरी गति कहीं भी रुक नहीं सकती। यमराज बोले---सावित्री ! तेरी स्वर, अक्षर, व्यंजन एवं युक्तियों से युक्त बात सुनकर मैं बहुत प्रसन्न हूँ। तू सत्यवान् के जीवन के  सिवा कोई भी वर माँग ले। मैं तुझे सब प्रकार का वर देने को तैयार हूँ। सावित्री ने कहा---मेरे ससुर राज्यभ्रष्ट होकर वन में रहने लगे हैं और उनकी आँखें भी जाती रही हैं। सो वे आपकी कृपा से नेत्र प्राप्त करें, बलवान हो जायँ और अग्नि तथा सूर्य के समान तेजस्वी हो जायँ। यमराज बोले---साध्वी सावित्री ! मैं तुझे यह वर देता हूँ। तूने जैसा कहा है, वैसा ही होगा। तू मार्ग चलने से शिथिल सी जान पड़ती है। अब तू लौट जा, जिससे तुझे विशेष थकान न हो। सावित्री ने कहा---पतिदेव के समीप रहते हुए मुझे श्रम कैसे हो सकता है। जहाँ मेरे प्राणनाथ रहेंगे, वहीं मेरा आश्रम होगा। देवेश्वर ! जहाँ आप पतिदेव को ले जा रहे हैं, वहाँ मेरी भी गति होनी चाहिये। इसके सिवा मेरी एक बात और सुनिये। सत्पुरुषों का तो एक बार का समागम भी अत्यन्त अभीष्ट होता है। उससे भी बढ़कर उनके साथ प्रेम हो जाना है। संतमागम निष्फल कभी नहीं होता, अतः सर्वदा सत्पुरुषों के ही साथ रहना चाहिये। यमराज बोले---सावित्री ! तूने जो हित की बात कही है, वह मेरे मन को बड़ी ही प्रिय जान पड़ी है। उससे विद्वानों की भी बुद्धि का विकास होगा ! अतः इस सत्यवान् के जीवन के सिवा तू कोई भी दूसरा वर माँग ले। सावित्री ने कहा---पहले मेरे मतिमान् ससुरजी का जो राज्य छीन लिया गया है, वह उन्हें स्वयं ही प्राप्त हो जाय और वे अपने धर्म का त्याग न करें--यह मैं आपसे दूसरा वर माँगती हूँ। यमराज बोले---राजा धुमत्सेन शीघ्र ही अपने आप राज्य प्राप्त करेंगे और वे अपने धर्म का भी त्याग नहीं करेंगे। अब तेरी इच्छा पूरी हो गयी; तू लौट जा, जिससे तुझे व्यर्थ श्रम न हो। सावित्री ने कहा---देव ! इस सारी प्रजा का आप नियम से संयम करते हैं और उसका नियमन करके उसे अभीष्ट फल भी देते हैं; इसी से आप 'यम' नाम से विख्यात हैं। अतः मैं जो बात कहती हूँ, उसे सुनिये।  मन, वचन और कर्म से समस्त प्राणियों के प्रति अद्रोह, सब पर कृपा करना और दान देना---यह सत्पुरुषों का सनातन धर्म है। और इस प्रकार का तो प्रायः यह सभी लोक है---सभी मनुष्य अपनी शक्ति के अनुसार कोमलता का वर्ताव करते हैं। किन्तु जो सत्पुरुष हैं, वे तो अपने पास आये शत्रुओं पर भी दया करते हैं। यमराज बोले---कल्याणी ! प्यासे आदमी को जैसे जल पाकर आनन्द होता है, तेरी यह बात वैसी ही प्रिय लगनेवाली है। इस सत्यवान् के जीवन के सिवा तू फिर कोई अभीष्ट वर माँग ले। सावित्री ने कहा---मेरे पिता राजा अश्वपति पुत्रहीन हैं; उनके अपने कुल की वृद्धि करनेवाले सौ पुत्र हों---यह मैं तीसरा वर माँगती हूँ। यमराज बोले---राजपुत्री ! तेरे पिता के कुल की वृद्धि करनेवाले सौ तेजस्वी पुत्र होंगे। अब तेरी इच्छा पूर्ण हो गयी, तू लौट जा; अब बहुत दूर आ गयी है। सावित्री ने कहा---पतिदेव की सन्निधि के कारण यह कुछ दूरी नहीं जान पड़ती। मेरा मन तो बहुत दूर-दूर की दौड़ लगाता है। अतः अब मैं जो बात कहती हूँ, उसे भी सुनने की कृपा करें। आप सूर्य के प्रतापी पुत्र हैं, इसलिये पण्डितजन आपको 'वैवस्वत' कहते हैं। आप शत्रुमित्रादि के भेदभाव को छोड़कर सबका समान रूप से न्याय करते हैं, इसी से सब प्रजा धर्म का आचरण करती है और आप 'धर्मराज' कहलाते हैं। इसके सिवा मनुष्य सत्पुरुषों का सा जैसा विश्वास करता है, वैसा अपना भी नहीं करता। इसलिये वह सबसे ज्यादा सत्पुरुषों में ही प्रेम करना चाहता है। और विश्वास सभी जीवों को सुहृदता की अधिकता के कारण हुआ करता है; अतः सुहृदता की अधिकता के कारण ही सब लोग संतों में विशेषरूप से विश्वास किया करते हैं। यमराज बोले---सुन्दरी ! तूने जैसी बात कही है, वैसी मैने तेरे सिवा और किसी के मुँह से नहीं सुनी। इससे मैं बहुत प्रसन्न हूँ। तू इस सत्यवान् के जीवन के सिवा कोई भी चौथा वर माँग ले और यहाँ से लौट जा। सावित्री ने कहा---मेरे सत्यवान् के द्वारा कुल की वृद्धि करनेवाले बड़े बलवान् और पराक्रमी सौ पुत्र हों।--यह मैं चौथा वर माँगती हूँ। यमराज बोले---अबले ! तेरे बल और पराक्रम से सम्पन्न सौ पुत्र होंगे, जिनसे तुझे बड़ा आनन्द प्रात्त होगा। राजपुत्री ! अब तू लौट जा, जिससे तुझे थकान न हो। तू बहुत दूर आ गयी है। सावित्री ने कहा---सत्पुरुषों की वृति निरन्तर धर्म में ही रहा करती है, वे कभी दुःखित या व्यथित नहीं होते। सत्पुरुषों के साथ जो सत्पुरुषों का समागम होता है, वह कभी निष्फल नहीं होता और संतों से कभी संतों को कभी भय भी नहीं होता। सत्पुरुष सत्य के बल से सूर्य को भी अपने समीप बुला लेते हैं, वे अपने तप के प्रभाव से पृथ्वी को धारण किये हुए हैं। संत ही भूत और भविष्यत् के आधार हैं, उनके बीच में रहकर सत्पुरुषों को कभी खेद नहीं होता। यह सनातन सदाचार सत्पुरुषों द्वारा सेवित है--ऐसा जानकर सत्पुरुष सदाचार करते हैं और प्रत्युपकार की ओर कभी दृष्टि नहीं डालते। यमराज बोले---पतिव्रते ! जैसे-जैसे तू मुझे गम्भीर अर्थ से युक्त एवं चित्त को प्रिय लगनेवाली धर्मानुकूल बातें सुनाती जाती है, वैसे-वैसे ही तेरे प्रति मेरी अधिकाधिक श्रद्धा होती जाती है। अब तू मुझसे कोई अनुपम वर माँग ले। सावित्री ने कहा---हे मानद ! आपने जो मुझे पुत्र-प्राप्ति का वर दिया है, वह बिना दाम्पत्य-धर्म के पूर्ण नहीं हो सकता। अतः अब मैं यही वर माँगती हूँ कि ये सत्यवान् जीवित हो जायँ। इससे आपही का वचन सत्य होगा, क्योंकि पति के बिना तो मैं मौत के मुख में ही पड़ी हुई हूँ। पति के बिना मुझे कैसा ही सुख मिले, मुझे उसकी इच्छा नहीं है; पति के बिना मुझे स्वर्ग की भी कामना नहीं है; पति के बिना यदि लक्ष्मी आवे तो मुझे उसकी भी आवश्यकता नहीं है तथा पति के बिना तो मैं जीवित रहना भी नहीं चाहती। आपही ने मुझे सौ पुत्र होने का वर दिया है, और फिर भी आप मेरे पतिदेव को लिे जा रहे हैं ! अतः मैं जो यह वर माँग रही हूँ कि यह सत्यवान् जीवित हो जाय, इससे भी आपका ही वचन सत्य होगा।यह सुनकर सूर्यपुत्र यम बड़े प्रसन्न हुए और 'ऐसा ही हो' कहते हुए सत्यवान् का बन्धन खोल दिया। इसके बाद वे सावित्री से कहने लगे, 'हे कुलनन्दिनी कल्याणी !' ले मैं तेरे पति को छोड़ता हूँ। अब यह सर्वथा निोग हो जायगा। तू इसे घर ले जा, इसके सभी मनोरथ पूरे होंगे। यह तेरे सहित चार सौ वर्षों तक जीवित रहेगा तथा धर्मपूर्वक यज्ञानुष्ठान करके लोक में कीर्ति प्राप्त करेगा। इससे तेरे गर्भ से सौ पुत्र उत्पन्न होंगे।' इस प्रकार सावित्री को वर देकर और उसे लौटाकर प्रतापी धर्मराज अपने लोक को चल गये। यमराज के चले जाने पर सावित्री अपने पति को पाकर उस स्थान पर आयी, जहाँ सत्यवान् का शव पड़ा था। पति को पृथ्वी पर पड़ा देखकर वह उसके पास बैठ गयी और उसका सिर उठाकर गोद में रख लिया। थोड़ी ही देर में सत्यवान् के शरीर में चेतना आ गयी और वह सावित्री की ओर बार-बार प्रेमपूर्वक देखता हुआ इस प्रार बातें करने लगा मानो बहुत दिनों के प्रवास के बाद लौटा हो। वह बोला, 'मैं बड़ी देर तक सोता रहा, तुमने जगाया क्यों नहीं ? यह काले रंग का मनुष्य कौन था, जो मुझे खींचे लिये जाता था ?' सावित्री ने कहा, 'पुरुषश्रेष्ठ ! आप बड़ी देर से मेरी गोद में सोये पड़े हैं। वे श्यामवर्ण के पुरुष प्रजा का नियंत्रण करनेवाले देवश्रेष्ठ भगवान् यम थे। अब वे अपने लोक में चले गये हैं। देखिये, सूर्य अस्त हो चुका है और रात्रि गाढ़ी होती जा रही है; इसलिये ये सब बातें तो जैसे-तैसे हुईं हैं, कल सुनाऊँगी। इस समय तो आप उठकर माता-पिता के दर्शन कीजये। सत्यवान् ने कहा---ठीक है, चलो। देखो, अब मेरे सिर में दर्द नहीं है और न मेरे किसी और अंग में पीड़ा ही है। मेरा सारा शरीर स्वस्थ प्रतीत होता है। मैं चाहता हूँ तुम्हारी कृपा से शीघ्र ही अपने वृद्ध माता-पिता के दर्शन करूँ। प्रिये ! मैं किसी दिन भी देर करके आश्रम में नहीं जाता था। सन्ध्या होने से पहले ही मेरी माता मुझे बाहर जाने से रोक देती थी। दिन में भी, जब मैं आश्रम से बाहर जाता तो मेरे माता-पिता मेरे लिये चिन्ता में डूब जाते थे और अधीर होकर आश्रमवासियों को साथ ले मुझे ढ़ूँढ़ने को चल देते थे। अतएव कल्याणी ! मुझे इस समय अपने अंधे पिता की और उनकी सेवा में लगी हुई दुर्बल शरीर अपनी माता की जितनी चिन्ता हो रही है, उतनी अपने शरीर की भी नहीं है। मेरे परम पूज्य पवित्रतम माता-पिता मेरे लिये आज कितना संताप सह रहे होंगे ! जबतक मेरे माता-पिता जीवित हैं, तभी तक मैं जीवन धारण किये हुए हूँ।' पति की बात सुनकर सावत्री खड़ी हो गयी। उसने सत्यवान् को उठाया, अपने बायें कन्धे पर उसका हाथ रखा और दायाँ हाथ उसकी कमर में डालकर उसे ले चली। तब सत्यवान् ने कहा, 'भीरु ! इस रास्ते में आने-जाने का अभ्यास होने के कारण मैं इससे अच्छी तरह परिचित हूँ, और अब वृक्षों के बीच में होकर चन्द्रमा की चाँदनी भी फैलने लगी है। हम कल जिस रास्ते पर फल बीन रहे थे, वही आ गया है; इसलिये अब सीधे इस मार्ग से चली चलो, कुछ और सोच विचार मत करो। मैं भी अब स्वस्थ और सबल हो गया हूँ और माता-पिता को देखने की भी मुझे जल्दी है। ऐसा कहकर वह जल्दी-जल्दी आश्रम की ओर चलने लगा।

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