Thursday 4 February 2016

वनपर्व---त्रिजटा का स्वप्न, रावण का प्रलोभन और सीता का सतीत्व

त्रिजटा का स्वप्न, रावण का प्रलोभन और सीता का सतीत्व
काम के वशीभूत हुए रावण ने सीता को लंका में में जाकर एक सुन्दर भवन में ठहराया। वह भवन नन्दनवन के समान मनोहर उद्यान के भीतर अशोकवाटिका के निकट बना हुआ था। सीता तपस्विनीवेष में वहाँ ही रहती और प्रायः तप उपवास किया करती थी। निरन्तर अपने स्वामी श्रीरामचन्द्रजी का चिन्तन करते-करते वह दुबली हो गयी और बड़े कष्ट से दिन व्यतीत कर रही थी। रावण ने सीता की रक्षा के लिये  कुछ राक्षसी स्त्रियों को नियुक्त कर रखा था, उनकी आकृति बड़ी भयानक थी। कोई फरसा लिये हुए थी और कोई तलवार। किसी के हथ में त्रिशूल था तो कसी के हाथ में मुदगर। कोई जलती हुई लुआठी ही लिये रहती थी। वे सब-के-सब सीता को सब ओर से घेरकर बड़ी सावधानी के साथ रात-दिन उसकी रक्षा करती थीं। वे बड़े विकट वेष बनाकर कठोर स्वर में सीता को धमकाती हुई आपस में कहती थीं---'आओ हम सब मिलकर इसे काट डालें औरतिल के समान टुकड़े-टुकड़े करके बाँटकर खा जायँ।' उनकी बातें सुनकर एक दिन सीता ने कहा---'बहिनों ! तुमलोग मुझे जल्दी खा जाओ। अब इस जीवन के लिये तनिक भी लोभ नहीं है। मैं अपने स्वामी भगवान् राम के बिना जीना ही नहीं चाहती। प्राणप्यारे के विोग में निराहार ही रहकर अपना शरीर सुखा डालूँगी, किन्तु उनके सिवा दूसरे पुरुष का सेवन नहीं करूँगी। इस बात को सत्य जानो और इसके बाद जो कुछ करना हो, करो।' सीता की बात सुनकर वे भयंकर शब्द करनेवाली राक्षसियाँ रावण को सूचना देने के लिये चली गयीं। उनके चले जाने पर एक त्रिजटा नाम की राक्षसी वहाँ रह गयी। वह धर्म को जाननेवाली और प्रिय वचन बोलनेवाली थी। उसने सीता को शान्त्वना देते हुए कहा---"सखी ! मैं तुमसे कुछ कहना चाहती हूँ। मुझपर विश्वास करो और अपने हृदय से भय को निकाल दो। यहाँ एक श्रेष्ठ राक्षस रहता है, जिसका नाम है अविन्ध्य। वहवृद्ध होने के साथ ही बड़ा बुद्धिमान है और सदा श्रीरामचन्द्रजी के हित चिन्तन में लगा रहता है। उसने तुमसे कहने के लिये यह संदेश भेजा है---'तुम्हारे स्वामी महाबली राम अपने भाई लक्ष्मण के साथ कुशल-पूर्वक हैं। वे इन्द्र के समान तेजस्वी वानरराज सुग्रीव के साथ मित्रता करके तुम्हे छुड़ाने का उद्योग कर रहे हैं। अब रावण से भी तुम्हे भय नहीं मानना चाहिये; क्योंकि नलकूबर ने जो उसे शाप दे रखा है, उसी से तुम सुरक्षित रहोगी। एक बार रावण ने नलकूबर की स्त्री रम्भा का स्पर्श किया था इसी से उसे शाप हुआ। अब वह अजितेन्द्रिय राक्षस किसी भी परस्त्री को विवश करके उसपर बलात्कार नहीं कर सकता। तुम्हारे स्वामी श्रीरामचन्द्रजी लक्ष्मण को साथ लेकर शीघ्र ही यहाँ आनेवाले हैं। उस समय सुग्रीव उनकी रक्षा में रहेंगे। भगवान् राम अवश्य ही तुम्हे यहाँ से छुड़ा ले जायेंगे।' मैने भी अनिष्ट की सूचना देनेवाले घोर स्वप्न देखे हैं, जिनसे रावण का विनाशकाल निकट जान पड़ता है। सपने में देखा है कि रावण का सिर मूँड़ दिया गया है,उसके सारे शरीरमें तेल लगा है और वह कीचड़ में डूब रहा है। यह भी देखने में आया कि गदहों से जुते रथ पर खड़ा होकर वह बारम्बार नाच रहा है। उसके साथ ही ये कुम्भकर्ण आदि भी मूँड़ मुड़ाये लाल चन्दन लगाये लाल-लाल फूलों की माला पहने नंगे होकर दक्षिण दिशा को जा रहे हैं। केवल विभिषण ही श्वेत क्षत्र धारण किये सफेद पगड़ी पहने श्वेत पुष्प और चन्दन से चर्चित हो श्वेत पर्वत के ऊपर खड़े दिखायी पड़े हैं। विभिषण के चार मंत्री भी उनके साथ उन्हीं के वेष में देखे गये हैं; अतः ये लोग उस आनेवाले महान् भय से मुक्त हो जायेंगे। स्वप्न में यह भी देखा कि भगवान् राम के वाणों से समुद्र सहित संपूर्ण पृथ्वी आच्छादित हो गयी है; अतः यह निश्चय है कि तुम्हारे पतिदेव का सुयश समस्त भूमण्डल में फैल जायगा। सीते ! अब तुम शीघ्र ही अपने पति और देवर से मिलकर प्रसन्न होगी।" त्रिजटा की ये बातें सुनकर सीता के मन में बड़ी आशा बँध गयी कि पुनः पतिदेव से भेंट होगी। उसकी बात समाप्त होते ही सभी राक्षसियाँ सीता के पास आकर उसे घेरकर बैठ गयीं। वह एक शिला पर बैठीहुई पति की याद में रो रही थी। इतने ही में रावण ने आकर उसे देखा और कामवाण से पीड़ित होकर उसके पास आ गया। सीता उसे देखते ही भसभीत हो गयी। रावण कहने लगा---'सीते ! आजतक तुमने जो अपने पति पर अनुग्रह दिखाया, यह बहुत हुआ; अब मुझपर कृपा करो। मैं तुम्हे अपनी सब स्त्रियों में ऊँचा आसन देकर पटरानी बनाना चाहता हूँ। देवता, गन्धर्व, दानव और दैत्य---इन सबकी कन्याएँ मेरी पत्नी के रूप में यहाँ विद्यमान हैं। चौदह करोड़ पिशाच, अट्ठाईस करोड़ राक्षस और इनके तिगुने यक्ष मेरी आज्ञा का पालन करते हैं। मेरे भाई कुबेर की तरह मेरी सेवा में भी अप्सराएँ रहती हैं। मेरे यहाँ भी इन्द्र के समान दिव्य भोग प्राप्त होते हैं। यहाँ रहने से तुम्हारा वनवास का दुःख दूर हो जायगा; इसलिये सुन्दरी ! तुम मन्दोदरी के समान मेरी पत्नी हो जाओ।' रावण के ऐसा कहने पर सीता ने दूसरी ओर मुँह फेर लिया, उसके आँखों से आँसुओं की झरी लग गयी। तृण की ओट करके काँपती हुई बोली---'राक्षसराज ! तुमने अनेकों बार ऐसी बातें मेरे सामने कही हैं; इनसे मुझे बड़ा कष्ट पहुँचा है तो भी मुझ अभागिनी को ये सभी बातें सुननी पड़ी हैं। तुम मेरी ओर से अपना मन हटा लो। मैं परायी स्त्री हूँ,पतिव्रता हूँ; तुम किसी तरह मुझे नहीं पा सकते।' यह कहकर सीता आँचल से अपना मुँह ढ़ँककर फूट-फूटकर रोने लगी। उसका कोरा उत्तर पाकर रावण वहाँ से अन्तर्धान हो गया और शोक से दुबली हुई सीता राक्षसियों से घिरी वहीं रहे लगी। उस समय त्रिजटा ही उसकी सेवा किया करती थी।

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