Wednesday 17 February 2016

वनपर्व---राम-रावण-युद्ध, रावण वध और राम-सीता-सम्मिलन

राम-रावण-युद्ध, रावण वध और राम-सीता-सम्मिलन
प्रिय पुत्र मेघनाद के मारे जाने पर रावण रत्नजटित सुवर्ण के रथ पर बैठकर लंका से चला। उसके साथ तरह-तरह के अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित अनेकों भयंकर राक्षस थे। इस प्रकार वह वानर-यूथपतियों के साथ मुठभेड़ करता रामजी की ओर चला। उसे क्रोधातुर होकर रामजी की ओर चला। उसे क्रोधातुर होकर रामजी की ओर आते देख सेना के सहित मैन्द, नील, नल, अंगद, हनुमान् और जाम्बवान् ने चारों ओर से घेर लिया। उन रीछ और वानर वीरों ने वृक्षों की मार से रावण के देखते-देखते उसकी सेना को तहस-नहस कर दिया। मायावी राक्षसराज ने जब देखा कि शत्रु मेरी सेना को नष्ट किये डालते हैं तो उसने माया फैलायी।थोड़ी ही देर में उसके शरीर से निकले हुए वाण, शक्ति और ऋष्टि आदि आयधों से सुसज्जित सैकड़ों-हजारों राक्षस दिखायी देने लगे। किन्तु भगवान् राम ने दिव्य अस्त्रों के द्वारा उन सभी को मार डाला। इसके बाद रावण ने दूसरी माया फैलायी। वह राम और लक्ष्मण के ही रूप धारण करके राम- लक्ष्मण की ओर दौड़ा। राक्षसराज की इस माया को देखकर भी लक्ष्मणजी को किसी प्रकार की घबराहट नहीं हुई। उन्होंने रामजी से कहा, 'भगवन् ! अपने ही समान आकारवाले इन पापी राक्षसों को मार डालिये।' तब श्रीराम ने उन्हें तथा और भी अनेकों राक्षसों को धराशायी कर दिया। इसी समय इन्द्र का सारथी मातलि नीलवर्ण घोड़ों से जुता हुआ सूर्य के समान तेजस्वी रथ लिये उस रणांगण में रामजी के पास उपस्थित हुआ और उनसे कहने लगा, 'रघुनाथजी ! यह नीले घोड़े से जुता हुआ इन्द्र का जैत्र नामक श्रेष्ठ रथ है, इसी पर चढ़कर इन्द्र ने संग्रामभूमि में सैकड़ों दैत्य और दानवों का वध किया है। पुरुषसिंह ! आप भी मेरे सारथ्य में इसी पर सवार होकर तुरंत रावण को मार डालिये, देरी मत कीजिये।' तब श्रीरघुनाथजी प्रसन्न होकर 'ठीक है' ऐसा कहकर उस रथ पर चढ़ गये। रावण पर चढ़ाई करते ही सब राक्षस हाहाकार करने लगे तथा आकाश में देवतालोग दुंदुभियों का शब्द करते हुए सिंहनाद करने लगे।इस प्रकार राम और रावण का बड़ा भीषण संग्राम छिड़ गया। उस युद्ध की कोई दूसरी उपमा मिलनी असम्भव ही है। राक्षसराज रावण ने राम के ऊपर इन्द्र के वज्र के समान एक अत्यन्त कठोर त्रिशूल छोड़ा। उस त्रिशूल को रामजी ने तत्काल अपने पैने बाणों से काट डाला। उनका यह दुष्कर कार्य देखकर रावण पर भय सवार हो गया और वह क्रोधित होकर हजारों-लाखों तीखे-तीखे वाण बरसाने लगा। उनके सिवा उसने भुशुण्डी, शूल, मूसल, फरसा, शक्ति और तरह-तरह के आकार की शतघन्नियों और पैने-पैने छुरों की भी वर्षा आरम्भ कर दी। रावण की इस विकट माया को देखकर समस्त वानर इधर-उधर भागने लगे। तब रामजी ने अपने तरकसों से एक बाण खींचकर उसे ब्रह्मास्त्र से अभिमन्त्रित किया और फिर उस अतुलित प्रभावपूर्ण बाण को रावण पर छोड़ दिया। रामजी ने ज्योंहि धनुष कान तक खींचकर उसे छोड़ा वह राक्षस अपने रथ, घोड़े और सारथि के सहित भीषण अग्नि से व्याप्त होकर जलने लगा। इस प्रकार भगवान् राम के हाथ से रावण का वध हुआ देखकर गन्धर्व और चारणों के सहित सब देवता बड़े प्रसन्न हुए। राजन् ! देवताओं से द्रोह करनेवाले नीच राक्षस रावण को मारकर राम, लक्ष्मक्ष और उनके सुहृदों को बड़ा आनन्द हुआ। फिर देवता और ऋषियों ने जय-जयकार करते हुए आशीर्वाद देकर महाबाहु राम का अभिनन्दन किया। सभी देवताओं ने कमलनयन भगवान राम की स्तुति की और गन्धर्वों ने फूलों की वर्षा तथा गान करके  उनका पूजन किया। फिर भगवान् राम ने लंका के राज्य पर विभीषण का अभिषेक किया। इसके पश्चात् अविन्ध्य नाम का बुद्धिमान और वयोवृद्ध मंत्री सीताजी को लेकर विभीषण के साथ रामजी के पास आया और उनसे बड़ी दीनतापूर्वक कहने लगा, 'महात्मन् ! सदाचारपरायणा देवी जानकी को स्वीकार कीजिये।' उस समय सीताजी एक पालकी में बैठी थी। वे शक से अत्यन्त कृश हो गयी थीं तथा उनके शरीर में मैल चढ़ा हुआ था और जटाएँ बढ़ी हुईं थीं। उन्हें देखकर रामजी ने कहा, ' जनकनन्दिनी ! मुझे जो काम करना था, वह मैं कर चुका; अब तुम जहाँ इच्छा हो चली जाओ। मेरे समान जो पुरुष धर्मविधि को जाननेवाला है, वह दूसरे के हाथ में गयी हुई स्त्री को एक मुहूर्त भी कैसे रख सकता है ?' रामजी के ऐसे कठोर वचन सुनकर सुकुमारी सीताजी व्याकुल होकर कटे हुए केले के समान सहसा पृथ्वी पर गिर पड़ी तथा समस्त वानर और लक्ष्मणजी भी यह बात सुनकर प्राणहीन-से होकर निष्चेष्ट रह गये। इसी समय संसार की रचना करनेवाले देवाधिदेव ब्रह्माजी विमान पर बैठकर वहाँ पधारे। उनके साथ ही इन्द्र, अग्नि, वायु, यम, कुबेर, वरुण और सप्तर्षियों ने भी दर्शन दिया तथा दिव्य तेजोमी मूर्ति धारण किये राजा दशरथ भी एक हंसोंवाले प्रकाशपूर्ण श्रेष्ठ विमान पर बैठकर आये। उस समय देवता और गन्धर्वों से व्याप्त वह सारा आाश तारों से भरे हुए शरत्कालीन आकाश के समान ओभा पाने लगा। तब यशस्विनी जानकी ने उन सबके बीच में खड़े होकर विशाल वक्षःसथलवाले श्रीरामचन्द्रजी से कहा, 'राजपुत्र ! आप स्त्री और पुरुषों की स्थिति से अच्छी तरह परिचित हैं, इसलिये मैं आपको कोई दोष नहीं देती; किन्तु आप मेरी बात सुनिये। यह निरंतर गतिशील वायु सभी प्राणियों के भीतर चल रहा है। यदि मैने कभी कोई पाप किया हो तो यह मेरे प्राणों को हर ले। वीरवर ! यदि मैने स्वप्न में भी आपके सिवा किसी और पुरुष का चिन्तन न किया हो तो इन देवताओं के साक्षी देने पर आप मुझे स्वीकार करें।' तब वायु ने कहा, 'हे राम ! मैं निरंतर गतिशील वायु हूँ। सीता सचमुच निष्कलंक है। तुम अपनी भार्या को स्वीकार करो।' अग्नि ने कहा, 'रघुनन्दन ! मैं प्राणियों के शरीर के भीतर रहता हूँ, अतः मैं प्राणियों की बहुत गुप्त बातों को भी जानता हूँ; मैं सत्य कहता हूँ कि मैथिली का जरा भी अपराध नहीं है।' वरुण बोले, 'राघव ! समस्त भूतों में रस मुझसे ही उत्पन्न होते हैं, मैं निश्चयपूर्वक तुमसे कहता हूँ, तुम मिथिलेशकुमारी को ग्रहण करो।' ब्रह्माजी ने कहा, 'रघुवीर ! तुमने देवता, गन्धर्व, सर्प, यक्ष दानव और महर्षियों के शत्रु रावण का वध किया है। मेरे वर के प्रभाव से यह अबतक सभी जीव केलिये अवध्य हो रहा था। किसी कारणवश मैने कुछ समय के लिये इस पापी की उपेक्षा कर दी थी। इस दुष्ट ने अपने वध के लिये ही सीता को हरा था। नलकूबर के शाप के द्वारा मैने ही जानकी की रक्षा कर दी थी। रावण को पहले से ही यह शाप हो चुका था कि 'यदि तू किसी परस्त्री का शील उसकी इच्छा के बिना भंग करेगा तो तेरे सिर के अवश्य ही सैकड़ों टुकड़े हो जायेंगे।' अतः परम तेजस्वी राम ! तुम किसी प्रकार की शंका मत करो और सीता को स्वीकार कर लो। तुमने देवताओं का बड़ा भारी काम किया है।' दशरथजी कहने लगे, 'वत्स ! मैं तुम्हारा पिता दशरथ हूँ। मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ। मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ, तुम्हारा कल्याण हो। मैं तुम्हे आज्ञा देता हूँ कि अब तुम अयोध्या का राज करो।' तब रामजी बोले, 'महाराज ! यदि आप मेरे पिताजी हैं तो मैं आपको प्रणाम करता हूँ। मैं आपकी आज्ञा से अब सुरम्यपुरी अयोध्या को जाऊँगा।' मार्कण्डेयजी कहते हैं---राजन् ! फिर रामजी न सब देवताओं को प्रणाम किया और अपने बन्धुवर्गों से अभिनन्दित हो इस प्रकार श्रीसीताजी से मिले, जैसे इन्द्र इन्द्राणी से मिलते हैं। इस प्रकार श्रीरामचन्द्रजी ने अविन्ध्य को अभीष्ट वर दिया और त्रिजटा राक्षसी को धन और मान द्वारा संतुष्ट किया। यह सब हो जाने पर भगवान् ब्रह्मा ने उनसे कहा, कौशल्यानन्दन ! कहो, आज तुम्हे हम क्या-क्या अभीष्ट वर दें ?' तब रामजी ने उनसे ये वर माँगे---'मेरी धर्म में स्थिति रहे, शत्रुओं से कभी पराजय न हो और राक्षसों के द्वारा जो वानर मारे जा चुके हैं, वे फिर से जीवित हो उठें।' इस समय सौभाग्यवती सीता ने भी हनुमानजी को यह वर दिया, 'पुत्र ! भगवान् रामकी कीर्ति रहने तक तुम्हारा जीवन रहेगा और मेरी कृपा से तुम्हे सदा ही दिव्य भोग प्राप्त होते रहेंगे।' फिर वहाँ सबके सामने ही वे इन्द्रादि सब देवता अन्तर्धान हो गये।

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