Thursday 4 February 2016

वनपर्व---सीता की खोज में वानरों का जाना तथा हनुमान् जी का श्रीरामचन्द्रजी से सीता का समाचार कहना

सीता की खोज में वानरों का जाना तथा हनुमान् जी का श्रीरामचन्द्रजी से सीता का समाचार कहना
श्रीरामचन्द्रजी लक्ष्मण के साथ माल्यवान् पर्वत पर रहते थे; सुग्रीव ने उनकी रक्षा का पूरा प्रबंध कर दिया था। एक दिन भगवान् राम लक्ष्मण से बोले---'सुमित्रानन्दन ! जरा किष्किन्धा में जाकर पता तो लगाओ सुग्रीव क्या कर रहा है। मैं तो समझता हूँ वह अपनी की हुई प्रतिज्ञा का पालन करना नहीं जानता; अपनी मंदबुद्धि के कारण उपकारी का भी अनादर कर रहा है। यदि वह सीता के लिये कुछ उद्योग न करता हो, विषय-भोग में ही आसक्त हो तो उसे भी तुम बाली के मार्ग पर ही पहुँचा देना। यदि हमारे कार्य के लिये कुछ चेष्टा कर रहा हो तो उसे साथ लेकर शीघ्र ही यहाँ लौट आना, विलम्ब न करना।' भगवान् राम के ऐसा कहने पर बड़े भाई की आज्ञा माननेवाले वीरवर लक्ष्मणजी प्रत्यंचा चढ़ाया हुआ धनुष लेकर किष्किन्धा की ओर चल दिये। नगरद्वार पर पहुँचकर वे बेरोक-टोक भीतर घुस गये। वानरराज सुग्रीव लक्ष्ण को कुपित जानकर स्त्री को साथ ले बहुत ही विनीतभाव से उनकी आगवानी में आये। उन्होंने उनका पूजन एवं सत्कार किया, इससे लक्ष्मणजी प्रसन्न हुए और नि्भय होकर श्रीरामचन्द्जी का संदेश सुनाने लगे। सब सुन लेने पर सुग्रीव ने हाथ जोड़कर कहा---'लक्ष्मण ! मेरी बुद्धि खोटी नहीं है, मैं कृतध्न और निर्दयी भी नहीं हूँ। सीता की खोज के लिये जो यत्न मैने किया है, उसे ध्यान देकर सुनिये। सब दिशाओं में सुशिक्षित वानर पठाये गये हैं; उनके लौटने का समय भी नियत कर दिया गया है। कई भी एक महीने से अधिक समय नहीं लगा सकता। उन्हें यह आज्ञा दी गयी है कि वे इस पृथ्वी पर घूम-घूमकर प्रत्येक पहाड़, जंगल, समुद्र, गाँव, नगर और घर में सीता की खोज करें। पाँच रात में उनके लौटने का समय पूरा हो जायगा, उसके बाद आप श्रीरामचन्द्रजी के साथ बहुत ही प्रिय समाचार सुनेंगे। सुग्रीव की बात सुनकर लक्ष्मणजी बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने अपना क्रोध त्याग दिया और इस प्रबंध के लिये सुग्रीव की बड़ी प्रशंसा की। फिर वे उन्हें साथ लेकर श्रीरामचन्द्रजी के पास गये और सुग्रीव ने जो कुछ प्रबंध किया था, उसे उनसे निवेदन किया। समय पूरा होते-होते तीन दिशाओं में खोज करके हजारों वानर आ पहुँचे। केवल दक्षिण दिशा में गये वानर अभी तक नहीं लौटे थे। आये हुए वानरों ने बताया कि 'बहुत ढ़ूँढ़ने पर भी हमें रावण और सीता का पता नहीं लगा।' फिर दो मास व्यतीत होने पर कुछ वानर बड़ी शीघ्रता से सुग्रीव के पास आये और कहने लगे---'वानरराज ! वाली तथा आपने जिस महान् मधुवन की रक्षा की है, वह आज उजाड़ हो रहा है। आपने जिन-जिन को दक्षिण भेजा था, वे पवननन्दन हनुमान्, वालीकुमार अंगद तथा और भी बहुत से वानर मधुवन का स्वेच्छानुसार उपभोग कर रहे हैं।' उनकी धृष्टता का समाचार सुनकर सुग्रीव समझ गये कि उन्होंने अपना काम पूरा कर लिया है। क्योंकि ऐसी चेष्टा वे ही भृत्य कर सकते हैं, जो स्वामी का कार्य सिद्ध करके आये हों। ऐसा सोचकर बुद्धिमान सुग्रीव ने श्रीरामचन्द्रजी के पास जाकर यह समाचार कह सुनाया। श्रीरामचन्द्रजी ने भी यही अनुमान किया कि उन वानरों ने अवश्य ही सीता का दर्शन किया होगा। तदनन्तर हनुमान् आदि वानर वीर मधुवन में विश्राम करने के पश्चात् सुग्रीव से मिलने के लिये राम-लक्ष्मण के निकट आये। उनमें से हनुमान् की चाल-ढ़ाल और मुख की प्रसन्नता देखकर श्रीरामचन्द्रजी को यह विश्वास हो गया कि इसने ही सीता का दर्शन किया है। हनुमान् आदि ने वहाँ आकर श्रीराम, सुग्रीव तथा लक्ष्मण को प्रणाम किया। फिर राम के पूछने पर हनुमान् ने कहा---"रामजी ! मैं आपको बहुत प्रिय समाचार सुनाता हूँ; मैने जानकीजी का दर्शन किया है। पहले हम सब लोग यहाँ से दक्षिण दिशा में जाकर पर्वत, वन और गुफाओं में ढ़ूँढ़ते-ढ़ूँढ़ते थक गये थे। इतने में एक बहुत बड़ी गुफा दिखायी पड़ी, वह अनेकों योजन लम्बी-चौड़ी थी; भीतर कुछ दूर तक अँधेरा था, घने जंगल थे और उसमें बहुत से जानवर रहते थे। बहुत दूर तक मार्ग तय करने के बाद सूर्य का प्रकाश देखने में आया। वहाँ एक बहुत सुन्दर दिव्य भवन बना हुआ था, वह मय दानव का निवासस्थान बताया जाता है। उसमें प्रभावती नाम की एक तपस्विनी तप कर रही थी। उसने हमलोगों को नाना प्रकार के भोजन दिये, जिन्हें खाने से हमारी थकावट दूर हो गयी, शरीर में बल आ गया। फिर प्रभावती के बताये हुए मार्ग से हमलोग ज्योंही गुफा से बाहर निकले त्योंही देखते हैं कि हम लवणसमुद्र के निकट पहुँच गये हैं और सह्य, मलय तथा दुर्दुर नामक पर्वत हमारे सामने हैं। फिर हम सब लोग मलय पर्वत पर चढ़ गये। वहाँ से जब समुद्र पर दृष्टि पड़ी तो हृदय विषाद से भर गया। हम जीवन से निराश हो गये। भयंकर जल-तंतुओं से भरा हुआ यह सैकड़ों योजन विस्तृत महासागर कैसे पार किया जायगा, यह सोचकर हमें बड़ा दुःख हुआ। अन्त में अनशन करके प्राण त्याग देने का निश्चय करके हमलोग वहाँ बैठ गये। आपस में बातचीत होने लगी; बीच में जटायु का प्रसंग छिड़ गया। उसे सुनकर एक पर्वतशिखर के समान विशालकाय घोररूपधारी भयंकर पक्षी हमारे सामने प्रकट हुआ; देखने से जान पड़ता था मानो दूसरे गरुड़ हों। उसने हमलोगों के पास आकर पूछा---'कौन जटायु की बात कर रहा है ? मैं उसका बड़ा भाई हूँ, मेरा नाम सम्पाति है; मुझे अपने भाई को देखे बहुत दिन हो गये हैं, अतः उसके सम्बन्ध में मैं जानना चाहता हूँ।' तब हमने जटायु की मृत्यु और और आपके संकट का समाचार संक्षेप से सुना दिया। यह अप्रिय समाचार सुनकर उसे बड़ा कष्ट हुआ और फिर पूछने लगा---'राम कौन हैं ? सीता कैसे हरी गयी ? और जटायु की मृत्यु किस प्रकार हुई ?' इसके उत्तर में हमने आपका परिचय, सीताहरण, जटायुमरण और संकटों का आना तथा अपने अनशन का कारण---यह सबकुछ विस्तार से बताया। यह सुनकर उसने हमलोगों को उपवास करने से रोककर कहा---'रावण को मैं जानता हूँ' उसकी महापुरी लंका भी मेरी देखी हुई है; वह समुद्र के उस पर त्रिकूट गिरि की कन्दरा में बसी है। विदहकुमारी सीता वहीं होगी; इसमें तनिक भी विचार करने की आवश्यकता नहीं है।'  "उसकी बात सुनकर हमलोग तुरंत उठे और समुद्र पार करने के विषय में सलाह करने लगे। जब कोई भी उसे लाँघने का साहस कर सका, तब मैं अपने पिता वायु के स्वरूप में प्रवेश करके सौ योजन विस्तृत समुद्र लाँघ गया। समुद्र के जल में एक राक्षसी थी, जाते समय उसे भी मार डाला। लंका में पहुँचकर रावण के अंतःपुर में मैने पतिव्रता सीता का दर्शन किया। वे आपके दर्शन की लालसा में बराबर तप और उपवास करती रहती हैं। उनके पास एकान्त में जाकर कहा---'देवी ! मैं श्रीरामचन्द्रजी का दूत एक वानर हूँ, आपके दर्शन के लिये आकाशमार्ग से यहाँ आया हूँ। दोनो राजकुमार श्रीराम और लक्ष्मण कुशल से हैं, वानरराज सुग्रीव इस मय उनके रक्षक हैं, उन सबने आपका कुशल समाचार पूछा है। अब थोड़े ही दिनों में वानरों की सेना साथ लेकर आपके स्वामी यहाँ पधारनेवाले हैं। आप मेरी बातों पर विश्वास करें, मैं राक्षस नहीं हूँ।' सीता थोड़ी देरतक विचार करके बोली---'अविन्ध्य के कथनानुसार मैं समझती हूँ तुम 'हनुमान' हो।ऐसा कहकर उसने अपनी पहचान के लिये यह एक मणि दी तथा विश्वास दिलाने के लिये एक कथा भी सुनायी; जब आप चित्रकूट पर्वत पर रहते थे, उस समय आपने एक कौए के ऊपर सींक का वाण मारा था। यही उस कथा का मुख्य विषय है। इस प्रकार सीता का संदेश अपने हृदय में धारण करके मैने लंकापुरी जलायी और फिर आपकी सेवा में चला आया।" यह प्रिय समाचार सुनकर श्रीरामचन्द्रजी ने हनुमान् की बड़ी प्रशंसा की।

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