Sunday 14 February 2016

वनपर्व--राम-लक्ष्मण को मूर्छा और इन्द्रजीत का वध-

राम-लक्ष्मण को मूर्छा और इन्द्रजीत का वध
तदनन्तर रावण ने अपने वीर पुत्र इन्द्रजीत से कहा---'बेटा ! तू शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ है, युद्ध में इन्द्र को भी जीतकर तूने अपने उज्जवल सुयश का विस्तार किया है; अतः युद्धभूमि में जाकर राम, लक्ष्मण और सुग्रीव का नाश कर।' इन्द्रजीत ने 'बहुत अच्छा' कहकर पिता की आज्ञा स्वीकार की और कवच बाँध रथ पर तुरंत ही संग्रामभूमि की ओर चल दिया। वहाँ पहुँचकर उसने स्पष्ट रूप से अपना नाम बताकर परिचय दिया और लक्ष्मण को युद्ध के लिये ललकारा। लक्ष्मण भी धनुष पर बाण संधान किये बड़े वेग से उसके सामने आ गये और सिंह जैसे छोटे मृगों को भयभीत करता है, उसी प्रकार अपने धनुष के टंकार से सब राक्षसों को त्रास देने लगे। इन्द्रजीत और लक्ष्मण दोनो ही दिव्यास्त्र का प्रयोग जानते थे,दोनो की ही आपस में बड़ी लाग-डाँट थी, दोनो ही एक-दूसरे पर विजय पाना चाहते थे; अतः उनमें बड़े जोर की लड़ाई छिड़ गयी। इसी बीच बालिकुमार अंगद ने एक पेड़ उखाड़कर उसे इन्द्जीत के सिर पर मारा। चोट खाकर भी वह विचलित नहीं हुआ। इतने में अंगद उसके निकट चले आये। फिर तो उसने उनकी बायीं पसली में बड़े जोर से गदा मारी। अंगद बड़े बलवान थे, अतः उसके इस प्रहार को उन्होंने कुछ भी नहीं गिना। क्रोध में भरकर पुनः एक शाल का वृक्ष उखाड़ लिया और उसे इन्द्रजीत के ऊपर फेंका; उसकी चोट से उसका रथ चकनाचूर हो गया और घोड़े तथा सारथी मर गये। तब इन्द्रजीत उस रथ से कूद पड़ा और माया का आश्रय ले वहीं अन्तर्धान हो गया। उसे अन्तर्हित हुए देख भगवान् राम वहाँ आ गये और अपनी सेना का सब ओर से रक्षा करने लगे। इन्द्रजित् भी क्रोध में भरकर राम और लक्ष्मण के सारे शरीर पर सैकड़ों-हजारों वाणों की वर्षा करने लगा। वानरों ने देखा कि वह छिपकर वाणों की झड़ी लगा रहा है, तो वे हाथों में बड़ी-बड़ी शिलाएँ लिये आकाश में उड़कर उसका पता लगाने लगे। इन्द्रजित् छिपे-ही-छिपे उन वानरों तथा राम और लक्ष्मण को भी बाणों से बींधने लगा। दोनों भाइयों के शरीर वाणों से भर गये और वे आकाश से गिरे हुए हुए सूर्य और चन्द्रमा की भाँति इस पृथ्वी पर गिर पड़े। इतने में वहाँ विभीषण आ पहुँचे। उन्होंने प्रज्ञास्त्र से उनकी मूर्छा दूर की और सुग्रीव ने विशल्या नाम की औषधि को दिव्य मंत्र से अभिमंत्रित करके उसे दोनो उसे दोनों भाइयों की देह में लगाया। इसके प्रभाव से सरलतापूर्वक उनके शरीर का वाण निकलकर क्षणभर में ही घाव अच्छा हो गया। इस उपचार से वे दोनो महापुरुष शीघ्र ही होश में आ गये, आलस्य और थकावट दूर हो गयी। तदनन्तर भगवान् राम को पीड़ा से रहित देख विभीषण ने हाथ जोड़कर कहा---'महाराज ! श्वेतगिरि से यहाँ आपकी सेवा में एक गुह्यक आया है, जो कुबेर की आज्ञा से यह दिव्य जल ले आया है। इससे आँख धो लेने पर आप माया से छिपे हुए प्राणियों को भी देख सकते हैं तथा जिसे-जिसे यह जल देंगे, वह-वह मनुष्य भी उन्हें देख सकता है। ' 'बहुत अच्छा' कहकर श्रीरामचन्द्रजी ने वह जल स्वीकार किया और उससे अपने दोनो नेत्र धोये। इसके बाद लक्ष्मण, सुग्रीव, जाम्बवान्, हनुमान्, अंगद, मैन्द, द्विद् और नील ने भी उसका उपयोग किया। प्रायः सभी प्रमुख वानरों ने उससे अपने-अपने नेत्र धोये। विभीषण के बताये अनुसार ही उस जल का प्रभाव देखा गया। एक ही क्षण में उन सबकी आँखों से अतीन्द्रिय वस्तुओं का भी प्रत्यक्ष होने लगा। इन्द्रजीत ने उस दिन जो बहादुरी दिखायी थी, उसका बखान करने के लिये वह अपने पिता के पास चला गया था; वहाँ से पुनः युद्ध की इच्छा से वह क्रोध में भरा हुआ आ रहा था, इतने में विभीषण की सम्मति से लक्ष्मण ने उसके ऊपर धावा किया। यह देख इन्द्रजीत ने अनेकों मर्मभेदी वाण मारकर लक्ष्मण को बींध डाला। तब लक्ष्मण ने भी अग्नि के समान दाहक वाणों से इन्द्रजीत के ऊपर प्रहार किया। लक्ष्मण की चोट से आहत होकर इन्द्रजीत क्रोध से मूर्छित हो गया और उसने शत्रु के ऊपर विषधर साँपों के समान आठ वाण मारे। फिर लक्ष्मण ने भी अग्नि के समान तीखे स्पर्शवाले तीन बाण मारे। उन वाणों का स्पर्श होते ही इन्द्रजीत के प्राणपखेरू उड़ गये।

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