Monday 8 February 2016

वनपर्व---अंगद का रावण के पास जाकर राम का संदेश सुनाना और राक्षसों तथा वानरों का संग्राम

अंगद का रावण के पास जाकर राम का संदेश सुनाना और राक्षसों तथा वानरों का संग्राम
लंका के उस वन में अन्न और पानी का अधिक सुविधा था, फल और मूल प्रचुर मात्रा में प्राप्य थे; इसीलिये वहाँ सेना का पड़ाव पड़ा था और भगवान् राम सब ओर से उसकी रक्षा करते थे। इधर रावण भी लंका में शास्त्रोक्त प्रकार से युद्धसामग्री का संग्रह करने लगा। लंका की चहारदीवारी और नगरद्वार बहुत ही मजबूत थे; अतः स्वभाव से ही किसी आक्रमणकारी का वहाँ पहुँचना कठिन था। नगर के चारों ओर सात गहरी खाइयाँ थीं, जिसमें अगाध जल था और बहुत से मगर आदि जलजन्तु भरे रहते थे। इन खाइयों में खैर की कीलें गड़ी हुईं थीं, मजबूत किवाड़ लगे थे, गोलाबारी करनेवाली मशीनें फिट की गयीं थीं। इन सब कारणों से उनमें प्रवेश करना कठिन था। मूसल, बनैठी, पान, तोमर, तलवार, फरसे, मोम के मुद्गर और तोप आदि अस्त्र-शस्त्रों का भी विशेष संग्रह था। नगर के सभी दरवाों पर छिपकर बैठने के लिये बुर्ज बने हुए थे और घूम-फिरकर रक्षा करनेवाले रिसाले भी तैनात किये गये थे। इनमें अधिकांश पैदल और बहुत से हाथीसवार तथा घुड़सवार भी थे। इधर अंगदजी दूत बनकर लंका में गये। नगरद्वार पर पहुँचकर उन्होंने रावण के पास खबर भेजी और निडर होकर पुरी में प्रवेश किया।उस समय करोड़ों राक्षसों के बीच महाबली अंगद मेघमाला से घिरे हुए सूर्य की भाँति शोभा पा रहे थे। रावण के पास पहुँचकर उन्होंने कहा---"राक्षसराज ! कोसलदेश के राजा श्रीराचन्द्रजी ने तुमसे कहने के लिये जो संदेश भेजा है, उसे सुनो और उसके अनुसार कार्य करो। 'जो अपने मन को काबू में न रखकर अन्याय में लगा रहता है, ऐसे राजा को पाकर उसके अधीन रहनेवाले देश और नगर भी नष्ट हो जाते हैं।' सीता का लपूर्वक अपहरण करके अपराध तो अकेले तुमने किया है; परन्तु इसका दण्ड बेचारे निरपराध लोगों को भोगना पड़ेगा, तुम्हारे साथ वे भी मारे जायेंगे। तुमने बल और अहंकार से उन्मत्त होकर वनवासी ऋषियों की हत्या की, देवताओं का अपमान किया और राजर्षियों तथा रोती-बिलखती अबलाओं के भी प्राण लिये।इन सब अत्याचारों का फल अब प्राप्त होनेवाला है। मैं तुम्हें मंत्रियों सहित मार डालूँगा; साहस हो तो युद्ध करके पौरुष दिखाओ। निशाचर ! यद्यपि मैं मनुष्य हूँ, तो भी मेरे धनुष की शक्ति देखना। जनकनन्दिनी सीता को छोड़ दो, अन्यथा मेरे हाथ से कभी भी तुम्हारा छुटकारा होना असम्भव है। मैं अपने तीखे वाणों से इस भूमण्डल को राक्षसों से शून्य कर दूँगा।" श्रीराचन्द्रजी के दूत के मुख से ऐसी कठोर बात सुनकर रावण सहन न कर सका। वह क्रोध से अचेत हो गया। उसका इशारा पाकर चार राक्षस उठे और जिस प्रकार पक्षी सिंह को पकड़े, उसी तरह उन्होंने अंगद के चार अंगों को पकड़ लिया। अंगद उन चारों को लिये-दिये ही उछलकर महल की छत पर जा बैठे। उछलते समय उनके शरीर से छूटकर चारों राक्षस जमीन पर जा गिरे। उनकी छाती फट गयी और अधिक चोट लगने के कारण उन्हें बड़ी पीड़ा हुई। अंगद महल के कंगूरे पर चढ़ गये और वहाँ से कूदकर लंकापुरी को लाँघते हुए अपनी सेना के समीप आ पहुँचे। वहाँ श्रीरामचन्द्रजी से मिलकर उन्होंने सारी बातें बतायीं। राम ने अंगद की बड़ी प्रशंसा की, फिर वे विश्राम करने चले गये। तदनन्तर भगवान् राम ने वायु के समान वेगवाले वानरों की संपूर्ण सेना के द्वारा लंका पर एक साथ धावा बोल दिया और उसकी चहारदीवारी तुड़वा डाली। नगर के दक्षिण द्वार पर प्रवेश करना बड़ा कठिन था, किन्तु लक्ष्मण ने विभीषण और जाम्बवान् को आगे करके उसे भी धूल में मिला दिया। फिर युद्ध करने में कुशल वानर वीरों की सौ अरब सेना लेकर लंका के भीतर घुस गये। उस समय उनके साथ तीन करोड़ भालुओं की सेना भी थी। इधर रावण ने भी राक्षस वीरों को युद्ध का आदेश दिया। आज्ञा पाते ही इच्छानुसार रूप धारण करनेवाले भयंकर राक्षस लाख-लाख की टोली बनाकर आ पहुँचे और किलेबंदी करके अस्त्र-शस्त्रों की वाण-वर्षा द्वारा वानरों को भगाने और मान् पराक्रम का परिचय देने लगे।  इधर वानर भी खम्भों से मार-मारकर निशाचरों को गिराने लगे। दूसरी ओर भगवान् राम ने वाणों की वर्षा करके उनका संहार आरम्भ किया। एक ओर लक्ष्मण भी अपने सुदृढ़ वाणों से किले के भीतर रहनेवाले राक्षसों के प्राण लेने लगे। जब रावण को यह सब समाचार ज्ञात हुआ तो वह अमर्ष में भरकर पिशाचों और राक्षसों की भयावनी सेना साथ ले स्वयं भी युद्ध के लिये आ पहुँचा। वह दूसरे शुक्राचार्य के समान युद्धशास्त्र की कला में प्रवीण था। शुक्र की बतायी हुई रीति से उसने अपनी सेना का व्यूह रचाया और वानरों का संहार करने लगा। श्रीरामचन्द्रजी ने जब रावण को व्यूहाकार सेना के साथ लड़ने को उपस्थित देखा तो उन्होंने उसके मुकाबले में बृहस्पति की बतायी हुई रीति से अपनी सेना का व्यूह रचाया। फिर रावण के साथ भगवान् राम, इन्द्रजीत के साथ लक्ष्मण, विरूपाक्ष के साथ सुग्रीव, तुण्ड के साथ नल और पटुस से पनस का युद्ध होने लगा। जिसने जिसको अपने जोड़ का समझा, वह उसके साथ भिड़ गया। यह युद्ध यहाँ तक बढ़ा कि प्राचीन काल के देवासुर-संग्राम इसके सामने फीका पड़ गया।

No comments:

Post a Comment