Wednesday 17 February 2016

वनपर्व---श्रीरामचन्द्रजी का अयोध्या में लौटना और राज्याभिषेक

श्रीरामचन्द्रजी का अयोध्या में लौटना और राज्याभिषेक
इसके पश्चात् विभीषण से सम्मानित हो श्रीरामचन्द्रजी ने लंका की रक्षा का प्रबंध किया और फिर सुग्रीवादि सभी प्रमुख वानरों के सहित आकाशचारी पुष्पक विमान पर बैठकर सेतु के ऊपर होकर समुद्र को पार किया। समुदर के इस ओर आकर उन्होंने पहले जहाँ अपने मुख्य-मुख्य मंत्रियों के सहित शयन किया था, वहीं पर विश्राम किया। फिर परम धार्मिक भगवान् राम ने रत्नों की भेंट देकर समस्त रीछ और वानरों कोसंतुष्ट करके विदा किया। जब सब रीछ वानर चले गये तो आप विभीषण और सुग्रीव सहित पुष्पक विमान द्वारा किष्किन्धापुरी को चले। मार्ग में जानकीजी को वन की रमणीयता का दिग्दर्शन कराते रहे। किष्किन्धा में पहुँचकर उन्होंने महान् पराक्रमी अंगद को युवराज पद पर अभिषिक्त किया। फिर वे सबको साथ लिये लक्ष्मणजी के सहित, जिस रास्ते से आये थे, उसीसे, अपनी राजधानी को चले। अयोध्या के समीप पहुँचकर उन्होंने हनुमानजी को अपना दूत बनाकर भरतजी के पास भेजा। जब हनुमानजी लक्षणों-द्वारा उनका मनोभाव समझकर और उन्हें रामजी के पुनरागमन का प्रिय समाचार सुनकर लौट आये तो सब लोग नन्दिग्राम में पहुँचे। रामजी ने देखा कि भरतजी चीरवस्त्र पहने हुए हैं। उनका शरीर मैल से भरा हुआ है और वे पादुकाएँ सामने रखे आसन पर बैठे हैं। भरत और शत्रुध्न से मिलकर परम पराक्रमी रघुनाथजी और लक्ष्मणजी बड़े प्रसन्न हुए। फिर भरत और शत्रुध्न भी अपने भाई से मिले। जानकीजी के दर्शन करके भी भरत-शत्रुध्न को बड़ा हर्ष हुआ। तदनन्तर भरतजी ने बड़े आनन्द से भगवान् राम को अपने पास धरोहर रूप से रखा हुआ उनका राज्य सौंप दिया। फिर विष्णुदेवता वाले श्रवणनक्षत्र का पुण्यदिवस आने पर वशिष्ठ और वामदेव दोनो ने मिलकर शूरशिरोमणि भगवान् राम का राज्याभिषेक किया। अभिषेक हो जाने पर श्रीरामचन्द्रजी ने कपिराज सुग्रीव और पुलस्त्यनन्दन विभीषण को घर जाने की आज्ञा दी। भगवान् ने तरह-तरह के भोगों से उनका सत्कार किया। इससे जब उन्हें प्रसन्न और आनन्दयुक्त देखा तो उनका कर्तव्य समझाकर उन्हें विदा किया। इस समय राम से बिछुड़ने में उन्हें बड़ा ही दुःख हुआ। फिर पुष्पक विमान की पूजा कर उसे कुबेरजी को ही दे दिया तथा देवर्षियों की सहायता से गोमती नदी के तीर पर दस अश्वमेध यज्ञ किये, जिनमें अन्नार्थियों के लिये हर समय भण्डार खुला रहता था। मार्कण्डेयजी कहते हैं---महाबाहु युधिष्ठिर ! इस प्रकार पूर्वकाल में अतुलित पराक्रमी श्रीरामचन्द्रजी वनवास के कारण बड़ा भयंकर कष्ट भोग चुके हैं। पुरुषसिंह ! तुम क्षत्रिय हो, शोक मत करो; तुम अपने भुजबल के भरोसे प्रत्यक्ष फल देनेवाले मार्ग पर चल रहे हो। तुम्हारा इसमें अणुमात्र भी अपराध नहीं है। इस संकटपूर्ण मार्ग में तो इन्द्र के सहित सभी देवता और असुरों को आना पड़ा है। किन्तु जिस प्रकार इन्द्र ने मरुतों की सहायता से वृत्रासुर का नाश किया था, उसी प्रकार अपने इन देवतुल्य धनुर्धर भाइयों की सहायता से तुम भी अपने सभी शत्रुओं को संग्राम में परास्त करोगे। रामजी तो अकेले भयंकर पराक्रमी रावण को युद्ध में मारकर जानकीजी को ले आये थे। उनके सहायक तो केवल वानर और रीछ थे। इन सब बातों पर तुम विचार करो। इस प्रकार मतिमान् मार्कण्डेयजी ने राजा युधिष्ठिर को धैर्य बँधाया।

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