Sunday 7 February 2016

वनपर्व--वानरसेना का संगठन, सेतु का निर्माण, विभीषण का अभिषेक और लंका में सेना का प्रवेश-

वानरसेना का संगठन, सेतु का निर्माण, विभीषण का अभिषेक और लंका में सेना का प्रवेश
तदनन्तर वहाँ पर सुग्रीव की आज्ञा से बड़े-बड़े वानर वीर एकत्रित हने लगे। सर्वप्रथम वाली का ससुर सुषेण श्रीरामचन्द्रजी की सेवा में उपस्थित हुआ, उसके बाद वेगवान् वानरों की दस अरब सेना थी। महाबलवान् गज और गवय एक-एक अरब सेना लेकर आये। गवाक्ष के साथ साठ अरब वानर थे। गन्धमादन पर्वत पर रहनेवाला गन्धमादन नाम से प्रसिद्ध वानर अपने साथ सौ अरब वानरों की फौज लेकर आया। महाबली पनस के साथ बावन करोड़ सेना थी। अत्यन्त पराक्रमी दधिमुख भी तेजस्वी वानरों की बहुत बड़ी सेना लेकर उपस्थित हुआ। जाम्बवान् के साथ भयानक पौरुष दिखानेवाले काले रीछों की सौ अरब सेना थी। ये तथा और भी बहुत से वानर सेनाओं के सरदार श्रीरामचन्द्रजी की सहायता के लिये वहाँ एकत्रित हुए। इन वानरों में से कितनों का ही शरीर पर्वत शिखर के समान ऊँचा था; कई भैंसों की तरह मोटे और काले थे; कितने ही शरद्-ऋतु के बादल जैसे सफेद थे; बहुों का मुख सिन्दूर के समान लाल था। वानरों की वह विशाल सेना भरे-पूरे महासागर के समान दिखायी पड़ती थी। सुग्रीव की आज्ञा से उस समय माल्यवान् पर्वत के पास ही सबका पड़ाव पड़ गया। इस प्रकार जब सब ओर से वानरों की फौज इकट्ठी हो गयी, तब सुग्रीव सहित भगवान् रम ने एक दिन अच्छी तिथि, उत्तम नक्षत्र और शुभ मुहूर्त में वहाँ से कूच कर दिया। उस समय सेना व्यूह के आकार में खड़ी की गयी थी। उस व्यूह के अग्रभाग में पवनन्दन हनुमान् थे और पिछले भाग की रक्षा लक्ष्मणजी कर रहे थे। इनके अतिरिक्त नल, नील, अंगद, क्राथ, मैन्द और द्विन्द भी रक्षा करते थे। इन सबके द्वारा सुरक्षित होकर वह फौज श्रीरामचन्द्रजी का कार्य सिद्ध करने के लिये आगे बढ़ रही थी। मार्ग में अनेकों जंगल तथा पहाड़ों पर पड़ाव डालती हुई वह लवणसमुद्र के पास जा पहुँची और उसके तटवर्ती वन में उसने डेरा डाल दिया।तदनन्तर भगवान् राम ने प्रधान-प्रधान वानरों के बीच सुग्रीव से समयोचित बात कही---'हमारी यह सेना बहुत बड़ी है और सामने अगाध महासागर है, जिसको पार करना बहुत ही कठिन है; ऐसी दशा में आपलोग उस पार जाने के लिये क्या उपाय ठीक समझते हैं ? इतनी सेना उतारने के लिये हमलोगों के पास नावें भी नहीं है। व्यापारियों के जहाज से पार जाया जा सकता है; पर हमारे जैसे लोग अपने स्वार्थ के लिये उन्हें हानि कैसे पहुँचा सकते हैं ? हमारी फौज दूर तक फैली हुई है, यदि इसकी रक्षा का उचित प्रबंध नहीं हुआ तो मौका पाकर शत्रु इसका नाश कर सकता है। हमारे विचार में तो यह आता है कि किसी उपाय से समुद्र की ही अराधना करें, यहाँ उपवासपूर्वक धरना दें; यही कोई मार्ग बतावेगा। उपासना करने पर भी यदि इसने मार्ग नहीं बताया तो अपने अग्नि के समान तेजस्वी अमोघ वाणों से इसे जलाकर सुखा डालूँगा। यों कहकर श्रीरामचन्द्रजी लक्ष्मण सहित आचमन करके समुद्र के किनारे कुशासन बिछाकर लेट गये। तब नद और नदियों के स्वामी समुद्र ने जलचरों सहित प्रकट होकर स्वप्न में भगवान् राम को दर्शन दिया और मधुर वचनों में कहा---कौशल्यानन्दन ! मैं आपकी क्या सहायता करूँ ? श्रीरामचन्द्रजी ने कहा---'नदीश्वर ! मैं अपनी सेना के लिये मार्ग चाहता हूँ, जिससे जाकर रावण का वध कर सकूँ। यदि मेरे माँगने पर भी रास्ता न दोगे तो अभिमंत्रित किये हुए दिव्य वाणों से तुम्हे सुखा डालूँगा।' श्रीरामचन्द्रजी की बात सुनकर समुद्र को बड़ा कष्ट हुआ, उसने हाथ जोड़कर कहा---'भगवन् ! मैं आपका मुकाबला करना नहीं चाहता और आपके काम में विघ्न डालने की भी मेरी इच्छा नहीं है। पहले मेरी बात सुन लीजिये; फिर जो कुछ करना उचित हो, कीजिये। यदि आपका आज्ञा मानकर राह दे दूँगा तो दूसरे लोग भी धनुष का बल दिखाकर मुझे ऐसी आज्ञा दिया करेंगे। आपकी सेना में नल नाम का एक वानर है। वह विश्वकर्मा का पुत्र है; वह अपने हाथ से जो भी तृण, काष्ठ या पत्थर डालेगा, उसे मैं ऊपर रोके रहूँगा। इस प्रकार आपके लिये एक पुल तैयार हो जायगा। यों कहकर समुद्र अन्तर्धान हो गया। श्रीरामचन्द्रजी ने धरना छोड़ दिया और नल को बुलाकर कहा--'नल ! तुम समुद्र पर एक पुल बनाओ, मुझे मालूम हुआ है कि तुम इस कार्य में कुशल हो।' इस प्रकार नल को आज्ञा देकर भगवान् राम ने पुल तैयार कराया, जिसकी लम्बाई चार सौ कोस की और चौड़ाई चालीस कोस की थी। आज भी वह इस पृथ्वी पर 'नलसेतु' के नाम से प्रसिद्ध है। तदनन्तर वहाँ श्रीरामचन्द्रजी के पास राक्षसराज रावण का परम भाई धर्मात्मा विभीषण आया। उसके साथ चार मंत्री भी थे। भगवान् राम बड़े ही उदार हृदयवाले थे, उन्होंने विभीषण को स्वागतपूर्वक अपना लिया। सुग्रीव के मन में शंका हुई कि यह शत्रु का कोई जासूस न हो, परन्तु श्रीरामचन्द्रजी ने उसकी चेष्टा, व्यवहार तथा मनोभावों की परीक्षा करके उसे सत्य और शुद्ध पाया, इसीलिये उन्होंने बहुत प्रसन्न होकर उसका आदर किया। इतना ही नहीं, उन्होंने उसी क्षण विभीषण को राक्षसों के राजपद पर अभिषिक्त कर दिया, लक्ष्मण से उसकी मित्रता करा दी और स्वयं उसे अपना गुप्त सलाहकार बना लिया। फिर विभीषण की सम्मति लेकर सब लोग पुल की राह से चले और एक महीने में पुल के पार पहुँच गये। वहाँ लंका की सीमा पर फौज की छावनी पर गयी और वानर वीरों ने वहाँ के कई सुन्दर-सुन्दर बगीचों को तहस-नहस कर डाला। रावण के दो मंत्री थे, शुक और सारण। वे दोनो भेद लेने आये थे और वानरों के वेष में श्रीरामचन्द्रजी की सेना में मिल गये थे। विभीषण ने उन दोनो को पहचानकर पकड़ लिया। फिर वे जब अपने असली रूप में प्रकट हुए तो उन्हें राम की सेना दिखाकर छोड़ दिया। लंका के उपवन में सेना ठहरायी गयी और भगवान् राम ने अत्यन्त बुद्धिमान अंगद को दूत बनाकर रावण के पास भेजा।

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