Thursday 11 February 2016

वनपर्व---प्रहस्त, धूम्राक्ष और कुम्भकरण का वध

प्रहस्त, धूम्राक्ष और कुम्भकरण का वध

तदनन्तर युद्ध में भयानक पराक्रम दिखानेवाले प्रहस्त ने सहसा विभीषण के पास आकर गर्जना करते हुए उन्हे गदा से मारा। विभीषण ने एक महाशक्ति हाथ में ली और उसे अभिमंत्रित कर प्रहस्त के मस्तक के मस्तक पर दे मारा। उस शक्ति का वेग वज्र के समान था; उसका आघात लगते ही प्रहस्त का मस्तक कटकर गिर पड़ा और वह आँधी से उखाड़े हुए वृक्ष के समान धराशायी हो गया। उसको मरते देख धुम्राक्ष नामक राक्षस बड़े वेग से वानरों की ओर दौड़ा और अपने वाणों के प्रहार से सबको इधर-उधर भगाने लगा। यह देख पवननन्दन हनुमान ने धुम्राक्ष को उसके घोड़े, रथ और सारथीसहित मार डाला। उसके मरने से वानरों को कुछ तसल्ली हुई और वे अन्यान्य राक्षसों को मारने लगे। उनकी भयंकर मार पड़ने से सभी राक्षस जीवन से निराश हो गये। जो मरने से बचे, वे भय के मारे भागकर लंका में घुस गये। वहाँ जाकर सबने रावण को युद्ध का समाचार सुनाया। उनके मुख से सेना सहित प्रहस्त और धुम्राक्ष के वध का वृतान्त सुनकर रावण बड़ी देर तक शोकभरा उच्छवास लेता रहा; फिर सिंहासन से उठकर कहने लगा---'अब कुम्भकर्ण के पराक्रम दिखाने का समय आ गया है।' ऐसा सोचकर उसने ऊँची आवाजवाले नाना प्रकार के बाजे बजवाये और विशेष प्रयत्न करके घोर निद्रा में पड़े हुए कुम्भकर्ण को जगाया। फिर जब वह कुछ स्वच्छ और शान्त हुआ तो उससे रावण ने कहा, 'भैया कुम्भकर्ण ! तुम्हे पता नहीं, हमलोगों पर बड़ा भारी भय आ पहुँचा है। मैं राम की स्त्री सीता को हर लाया था, उसी को वापस लेने के लिये वह समुद्र पर पुल बाँधकर यहाँ आया हुआ है; उसके साथ वानरों की बहुत बड़ी सेना है। अबतक उसने प्रहस्त आदि हमारे कई आत्मिय व्यक्तियों को मार डाला है और राक्षसों का संहार मचा रखा है। तुम्हारे सिवा कोई ऐसा वीर नहीं है, जो उसे मार सके। तुम बलवानों में श्रेष्ठ हो, इसलिये कवच आदि से सुसज्जित हो युद्ध के लिये जाओ और राम आदि संपूर्ण क्षत्रियों का नाश करो। 'रावण की आज्ञा मानकर कुम्भकर्ण जब अपने अनुचरों सहित नगर से बाहर निकला तो उसकी दृष्टि सामने ही खड़ी हुई वानर सेना पर खड़ी हुई वानर सेना पर पड़ी, जो विजय के उल्लास से शोभा पा रही थी। फिर उसने जब भगवान् राम के दर्शन की इच्छा से उस सेना में इधर-उधर दृष्टि डाली तो उसे हाथ में धनुष लिये लक्ष्मण भी दिखायी पड़े। इतने में ही वानरों ने आकर कुम्भकरण को सब ओर से घेर लिया और बड़े-बड़े पेड़ उखाड़कर उसको मारने लगे। कुछ वानर नाना प्रकार के भयानक अस्त्र-शस्त्रों का प्रहार करने लगे। कुम्भकर्ण इससे जरा भी विचलित नहीं हुआ, वह हँसते-हँसते वानरों का भक्षण करने लगा। देखते-देखते बल, चण्डबल और बज्रबाहु नामक वानर उसके मुख के ग्रास बन गये। कुम्भकर्ण का यह दुःखदायी कर्म देखकर तार आदि वानर थर्रा उठे और बड़े जोर-जोर से चित्कार करने लगे। उनका क्रंदन सुनकर सुग्रीव वहाँ दौड़े आये और एक शाल का वृक्ष उखाड़कर उन्होंने कुम्भकर्ण के सिर पर दे मारा। वह शाल टूट गया, पर कुम्भकर्ण को पीड़ा न पहुँची। हाँ, उसके स्पर्श से वह सावधान अवश्य हो गया। फिर तो उसने विकट गर्जना की और सुग्रीव को बलपूर्वक पकड़कर अपनी दोनो भुजाओं में दाब लिया। लक्ष्मणजी यह सब देख रहे थे। जब वह राक्षस सुग्रीव को लेकर जाने लगा तो वे दौड़कर उसके सामने आ गये। उन्होंने कुम्भकर्ण को लक्ष्य करके एक बड़ा वेगशाली वाण मारा, वह उसके कवच को काटकर शरीर को छेदता हुआ रक्तरंजित हो जमीन में समा गया। छाती छिद जाने के कारण सुग्रीव को तो उसने छोड़ दिया और और अपने दो हाथों में एक बहुत बड़ी चट्टान लिये लक्ष्मण पर धावा किया; किन्तु सुमित्रानन्दन ने हस्तलाघव दिखाते हुए फिर से वाण मारकर उन चारों भुजाओं को भी काट दिया। तब उसने अपना शरीर बहुत बड़ा कर लिया; उसके अनेकों पैर, अनेकों सिर और अनेकों भुजाएँ हो गयीं। यह देख लक्ष्मण ने ब्रह्मास्त्र प्रहार करके उस पर्वताकार राक्षस को चीर डाला। जैसे बिजली गिरने से वृक्ष धराशायी हो जाता है, उसी प्रकार दिव्यास्त्र से आहत होकर वह महाबली राक्षस पृथ्वी पर गिर पड़ा। कुम्भकर्ण को प्राणहीन हो गिरते देख राक्षसलोग भय के मारे भाग गये। इस युद्ध में राक्षसों का ही अधिक संहार हुआ।

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