Thursday 31 March 2016

विराटपर्व---धौम्य का युधिष्ठिर को राजा के यहाँ रहने का ढ़ंग बताना

धौम्य का युधिष्ठिर को राजा के यहाँ रहने का ढ़ंग बताना
द्रौपदी सहित सब भाइयों की बातें सुनकर राजा युधिष्ठिर ने कहा---"विधता के निश्चय के अनुसार जो-जो कार्य तुमलोग करनेवाले हो, सो सब तुमने सुना दिये; मुझे भी अपनी बुद्धि के अनुसार जो कुछ उचित जान पड़ा, वह अपना कर्तव्य बताया। अब पुरोहित धौम्य मुनि सेवकों और रसोइयों के साथ राजा द्रुपद के घर पर जाकर रहें और हमारे अग्निहोत्र की रक्षा करें। इन्द्रसेन आदि सारथि और सेवकगण खाली रथ लेकर द्वारका चले जायँ। तथा ये सब स्त्रियाँ और द्रौपदी की दासियाँ रसोइयों और नौकरों सहित पांचाल को लौट जायँ। किसी के पूछने पर सबको यही बताना चाहिये कि 'हमें पाण्डवों का पता नहीं है, वे हमको द्वैतवन में ही छोड़कर न जाने कहँ चले गये।" इस प्रकार परस्पर निश्चय करके पाण्डवों ने धौम्य मुनि से सलाह ली। धौम्य ने उनके समक्ष अपना विचार इस प्रकार रखा---'पाण्डवों ! तुमने ब्राह्मण, सुहृद्, सेवक, वाहन अस्त्र-शस्त्र और अग्नि आदि के सम्बन्ध में जैसी व्यवस्था की है, सब ठीक है। अब मैं तुम्हे यह बता देना चाहता हूँ कि राजा के घर में रहकर कैसा वर्ताव करना चाहिये। राजा से मिलना हो तो पहले द्वारपाल से मिलकर उनकी आज्ञा मँगा लेनी चाहिये; राजाओं पर पूर्ण विश्वास कभी नहं करना चाहिये। अपने लिये वही आसन पसंद करें जिसपर दूसरा कोई बैठनेवाला न हो। समझदार मनुष्य को कभी राजा की रानियों से मेल-जोलनहीं बढ़ाना चाहिये। इसी प्रकार जो अंतःपुर में जाने-आनेवाले हों, उनलोगों से तथा राजा जिनसे द्वेष रखते हों या जो लोग राजा से शत्रुता रखते हों, उनसे भी मित्रता नहीं करनी चाहिये। छोटे-से-छोटा कार्य भी राजा को जताकर ही करें,  ऐसा करने से कभी हानि नहीं उठानी पड़ती। अग्नि और देवता के समान मानकर प्रतिदिन प्रयत्नपूर्वक राजा की परिचर्या करनी चाहिये।  जो उनके साथ कपटपूर्ण बर्ताव करता है, वह निःसंदेह मारा जाता है। राजा जिस-जिस कार्य के लिये आज्ञा दे, उसका ही पालन करे; लापरवाही, क्रोध और घमण्ड को सर्वथा त्याग दे। प्रिय और हितकारी बात कहे; प्रिय से भी हितकर वचन का महत्व विशेष है। सभी विषयों और सब बातों में राजा के अनुकूल रहे। जो चीज राजा को पसंद न हो, उसका कदापि सेवन न करे; उसे शत्रुओं से बातचीत करना छोड़ दे और कभी भी अपने स्थान से विचलित न हो। ऐसा वर्ताव करनेवाला मनुष्य ही राजा के यहाँ रह सकता है। विद्वान पुरुष राजा के दाहिने या बाँयें भाग में बैठे; जो शस्त्र लेकर पहरा देनेवाले हों, उन्हें राजा के पिछले भाग में रहना चाहिये। यदि राजा कोई अप्रिय बात कह दे, तो उसे दूसरों के सामने प्रकाशित न करे। 'मैं शूरवीर हूँ, बड़ा बुद्धिमान हूँ, ऐसा घमण्ड न दिखाये, सदा राजा के प्रिय लगनेवाला कार्य करता रहे। अपने दोनो हाथ, ओठ और घुटनों को व्यर्थ न हिलावे; बहुत बातें न बनावे। किसी की हँसी हो रही हो तो बहुत हर्ष न प्रकट करे। पागलों की तरह ठहाका मारकर भी न हँसे। जो किसी वस्तु के मिलने पर खुशी के मारे फूल नहीं उठता, अपमान हो जाने पर बहुत दुःखी नहीं होता और अपने काम में सदा सावधान रहता है, वही राजा के यहाँ टिक सकता है।यदि कोई मंत्री राजा का पहले कृपापात्र रहा हो और पीछे अकारण उसे दण्ड भोगना पड़े, तो भी यदि वह उसकी निंदा नहीं करता तो फिर उसे सम्पत्ति प्राप्त हो जाती है। सदा अपना ही लाभ सोकर राजा दी दूसरों के साथ अधिक बातचीत नहीं करानी चाहिये; युद्ध आदि योग्य अवसरों पर राजा को सब प्रकार की राजोचित शक्तियों से विशिष्ट बनाने का प्रयत्न करते रहना चाहिये। जो सदा उत्साह दिखानेवाला; बु्धि-बल से युक्त, शूरवीर, सत्यवादी,  दयालु, जितेन्द्रिय और छाया की भाँति राजा के पीछे चलनेवाला हो, वही राजा के घर में गुजारा कर सकता है।  जब दूसरे को किसी काम के लिये भेजा जा रहा हो, उस समय जो स्वयं ही उठकर आगे आ जाय और पूछे---'मेरे लिये क्या आज्ञा है ?' वही राजभवन में टिक सकता है। राजा के समान अपनी वेश-भूषा न बनावें, उनके अत्यन्त निकट न रहें तथा अनेकों प्रकार की विरुद्ध सलाह न दिया करें। ऐसा करने से ही मनुष्य राजा का प्रिय हो सकता है। यदि राजा ने किसी काम पर नियुक्त कर दिया हो, तो उसमें दूसरों से घूस के रूप में थोड़ा भी धन न लेवें; क्योंकि जो चोरी का लेता है, उसे किसी-न-किसी दिन बन्धन अथवा वध का दण्ड भोगना पड़ता है। पाण्डवों ! इस प्रकार प्रयत्नपूर्वक अपने मन को वश में रखकर अच्छा वर्ताव करते हुए तेरहवाँ वर्ष पूर्ण करो; इसके बाद अपने देश में आकर स्वच्छंद बिचरना। युधिष्ठिर बोले---ब्रह्मन् ! आपने हमलोगों को बहुत अच्छी सीख दी। हमारी माता कुन्ती और महाबुद्धिमान् विदुरजी को छोड़कर दूसरा कोई नहीं है, जो ऐसी बात बता सके। अब हमें इस दुःख से छुटकारा दिलाने, यहाँ से प्रस्थान करने और विजयी होने के लिये जो कर्तव्य आवश्यक हो, उसे आप पूरा करें। राजा युधिष्ठिर के ऐसा कहने पर धौम्यजी ने यात्रा के समय जो कुछ भी शास्त्रविहित कर्तव्य है, उसका विधिवत् सम्पादन किया। पाण्डवों की अग्निहोत्र सम्बन्धी अग्नि को प्रज्वलित करके उन्होंने उनकी समृद्धि और विजय के लिये वेदमन्त्र पढ़कर हवन किया।  इसके बाद पाण्डवों ने अग्नि, ब्राह्मण और तपस्वियों की प्रदक्षिणा की और द्रौपदी को आगे करके वे अज्ञातवास के लिये चल दिये। उनके चले जाने पर धौम्यजी उस आहवनीय अग्नि को लेकर पांचाल देश में चले गये। तथा इन्द्रसेन आदि सेवक द्वारका जाकर रथ और घोड़ों की रक्षा करते हुए आनन्दपूर्वक रहने लगे।

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