Friday 11 March 2016

वनपर्व---इन्द्र को कवच-कुण्डल देकर कर्ण का अमोघ शक्ति प्राप्त करना

इन्द्र को कवच-कुण्डल देकर कर्ण का अमोघ शक्ति प्राप्त करना

एक दिन देवराज इन्द्र ब्राह्मण का रूप धारण कर कर्ण के पास आये और 'भिक्षां देहि' ऐसा कहा। इसपर कर्ण ने कहा, 'पधारिये, आपका स्वागत है। कहिये, मैं आपकी क्या सेवा करूँ ? ब्राह्मण ने कहा--आपके जो ये जन्म के साथ उत्पन्न हुए कवच और कुण्डल हैं, ये ही उतारकर हमें दे दीजिये। कर्ण ने कहा---विप्रवर ! मेरे साथ उत्पन्न हुए ये कवच और कुण्डल अमृतमय हैं। इनके कारण तीनों लोकों में मुझे कोई नहीं मार सकता। इसलिये इन्हें मैं अपने से विलग करना नहीं चाहता। इसलिये आप मुझसे विस्तृत और शत्रुहीन पृथ्वी का राज्य ले लीजिये, इन कवच और कुण्डलों को देकर तो मैं शत्रुओं का शिकार बन जाऊँगा। जब ऐसा कहनेपर भी इन्द्र ने दूसरा वर नहीं माँगा तो कर्ण ने हँसकर कहा, 'देवराज ! मैं आपको पहले ही पहचान गया हूँ। मैं आपको कोई वस्तु दूँ और उसके बदले में मुझे कुछ भी न मिले, यह उचित नहीं है। आप साक्षात् देवराज हैं; आपको भी मुझे कोई वर देना चाहिये। आप अनेकों अन्य जीवों के स्वामी और उनकी रचना करनेवाले हैं। देवेश्वर ! यदि मैं आपको कवच और कुण्डल दे दूँगा तो शत्रुओं का वध्य हो जाऊँगा और आपकी भी हँसी होगी। इसलिये कोई बदला देकर आप भले ही ये दिव्य कवच-कुण्डल ले जाइये; और किसी प्रकार मैं इन्हे दे नहीं सकता।' इन्द्र ने कहा---मैं तुम्हारे पास आनेवाला हूँ, यह बात सूर्य को मालूम हो गयी थी; निःसंदेह उन्होंने तुम्हे भी सब बातें बता दी होगी। सो, कोई बात नहीं; तुम जैसा चाहते हो, वैसा ही सही। तुम एक वज्र को छोड़कर मुझसे कोई भी चीज माँग सकते हो। कर्ण बोले---इन्द्रदेव ! आप इन कवच और कुण्डलों के बदले में मुझे अमोघ शक्ति दे दीजिये, जो संग्राम में अनेकों शत्रुओं का संहार कर देनेवाली है।तब शक्ति के विषय में थोड़ी देर विचार करके इन्द्र ने कहा, 'तुम मुझे अपने शरीर के साथ उत्पन्न हुए कवच और कुण्डल दे दो और मुझसे मेरी शक्ति ले लो। किन्तु इसके साथ एक शर्त है। वह यह कि मेरे हाथ से छूटने पर यह शक्ति अवश्य ही सैकड़ों शत्रुओं का संहार करती है और फिर मेरे ही हाथ में लौट आतूी है; सो ह जब तुम्हारे हाथ से छूटेगी तो जो गरज-गरजकर तुम्हें अत्यन्त संतप्त कर रहा होगा, ऐसे एक ही प्रबल शत्रु को मारकर फिर मेरे ही हाथ में आ जायगी।' कर्ण ने कहा---देवराज ! मैं भी केवल एक ही ऐसे शत्रु को मारना चाहता हूँ, जो घनघोर युद्ध में गरज-गरजकर मुझे संतप्त कर रहा हो और जिससे मुझे भय उत्पन्न हो गया हो। इन्द्र बोले---तुम युद्ध में एक गरजते हुए एक प्रबल शत्रु को मारोगे तो सही; किन्तु जिसे तुम मारना चाहते हो उसकी रक्षा तो भगवान् श्रीकृष्ण करते हैं, जिन्हें वेदज्ञ पुरुष अजित, वराहॆ और अचिन्त्य नारायण कहते हैं। कर्ण ने कहा---भगवन् ! भले ही ऐसी बात हो; तथापि आप मुझे एक वीर का नाश करनेवाली अमोघ शक्ति दीजिये, जिसे कि मैं अपने को संतप्त करनेवाले शत्रु का संहार कर सकूँ। इन्द्र बोले--- एक बात और है। यदि दूसरे शस्त्रों के रहते हुए और प्राणान्त संकट उपस्थित होने से पहले तुम प्रमादवश इस अमोघ शक्ति को छोड़ दोगे तो यह तुम्हारे ही ऊपर पड़ेगी। कर्ण ने कहा--- इन्द् ! आपके कथनानुसार मैं आपकी इस शक्ति को बड़े भारी संकट में ही पड़ने पर छोड़ूँगा, यह मैं सच-सच कहता हूँ। तब उस प्रज्जवलित शक्ति को लेकर कर्ण एक पैने शस्त्र से अपने समस्त अंगों को छीलकर अपने कवच उतारने लगे। उन्हें शस्त्र से अपना शरीर काटते और बार-बार मुस्कराते हुए देखकर देवतालोग दुंदुभियाँ बजाने लगे और दिव्य पुष्पों की वर्षा करने लगे। इस प्रकार अपने शरीर को उधेड़कर उन्होंने यवह खून से भीगा हुआ दिव्य कवच इन्द्र को दे दिया और दोनों कुण्डलों को भी कानों से काटकर उन्हें सौंप दिया। इस दुष्कर कर्म के कारण ही वे कर्ण कहलाये। इस प्रकार कर्ण को ठगकर और उन्हें संसार में यशस्वी बनाकर इन्द्र ने निश्चय किया कि अब पाण्डवों का काम सिद्ध हो गया। इसे पश्चात् वे हँसते-हँसते देवलोक को चले गये। जब धृतराष्ट्र के पुत्रों को कर्ण के ठगे जाने का समाचार मालूम हुआ तो वे बड़े ही दुःखी हुए और उनका सारा गर्व ढ़ीला पड़ गया तथा वनवासी पाण्डवों ने कर्ण को ऐसी परिस्थिति में पड़ा सुना तो वे बड़े प्रसन्न हुए।
 

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