Tuesday 22 March 2016

वनपर्व---सब पाण्डवों का जीवित होना, महाराज युधिष्ठिर का वर पाना तथा पाण्डवों का अज्ञातवास के लिये सबसे विदा लेना

सब पाण्डवों का जीवित होना, महाराज युधिष्ठिर का वर पाना तथा पाण्डवों का अज्ञातवास के लिये सबसे विदा लेना


तब यक्ष के कहते ही सब पाण्डव खड़े हो गये तथा एक क्षण में ही उनकी सब भूख-प्यास जाती रही।युधिष्ठिर ने पूछा---भगवन् ! आप कौन देवश्रेष्ठ हैं ? आप यक्ष ही हैं, ऐसा तो मुझे मालूम नहीं होता आप वसुओं में से, रुद्रों मे से अथवा मरुतों में से तो कोई नहीं हैं ? अथवा स्वयं देवराज इन्द्र ही हैं ? मेरे ये भाई तो सौ-सौ, हजार-हजार वीरों से युद्ध करनेवाले हैं। ऐसा तो मैने कोई योद्धा नहीं देखा, जिसने इन सभी को रणभूमि में गिरा दिया हो। अब जीवित होने पर भी इनकी इन्द्रियाँ सुख की नींद सोकर उठे ुओं के समान स्वस्थ दिखायी देती है; सो आप हमारे कोई सुहृद हैं अथवा पिता हैं। यक्ष ने कहा---भरतश्रेष्ठ ! मैं तुम्हारा पिता धर्मराज हूँ। यश, सत्य, दम, शौच, मृदुता, लज्जा, अचंचलता, दान, तप और ब्रह्मचर्य---ये सब मेरे शरीर हैं तथा अहिंसा, समता, शान्ति, तप, शौच और अमत्सर---इन्हें तुम मेरा मार्ग समझो। तुम मुझे सदा ही प्रिय हो। यह बड़ी प्रसन्नता की बात है कि तुम्हारी शम, दम, उपरति, तितिक्षा और समाधान---इन पाँच साधनों पर प्रीति है तथा तुमने भूख-प्यास, शोक-मोह और जरा-मृत्यु---इन छः दोषों को जीत लिया है। इनमें पहले दो दोष आरम्भ से ही रहते हैं, बीच के दो तरुणावस्था आने पर होते हैं तथा अन्तिम दो दोष अनन्त समय पर आते हैं। मैं धर्म हूँ और तुम्हारा व्यवहार जानने की इच्छा से ही यहाँ आया हूँ। निष्पाप राजन् ! तुम्हारी समदृष्टि के कारण मैं तुमपर प्रसन्न हूँ, तुम अभीष्ट वर माँग लो; जो मेरे भक्त हैं, उनकी कभी दुर्गति नहीं होती। युधिष्ठिर ने कहा---भगवन् ! पहला वर तो मैं यही माँगता हूँ कि जिस ब्राह्मण के अरणीसहित मन्थन काष्ठ को मृग लेकर भाग गया है, उसके अग्निहोत्र का लोप हो। यक्ष ने कहा---राजन् ! उस ब्राह्ण के अरणिसहित मन्थन काष्ठ को तुम्हारी परीक्षा के लिये मैं ही मृगरूप से लेकर भाग गया था। वह मैं तुम्हे देता हूँ। तुम कोई दूसरा वर माँग लो। युधिष्ठिर बोले---हम बारह वर्ष तक वन में रहे, अब तेरहवाँ वर्ष लगा है; अतः ऐसा वर दीजिये कि हमें कोई पहचान सके। यह सुनकर भगवान् धर्म ने कहा---'मैने तुम्हे वर दिया। यद्यपि तुम पृथ्वी पर अपने इसी रूप से विचरोगे , तो भी तुम्हे कोई पहचान नहीं सकेगा। तथा तुममें से जो-जो जैसा-जैसा चाहेगा, वह वैसा-वैसा ही रूप धारण कर सकेगा। इसके सिवा तुम एक तीसरा वर भी माँग लो। राजन् ! तुम मेरे पुत्र हो और विदुर ने भी मेरे ही अंश से जन्म लिया है; अतः मेरी दृष्टि में तुम दोनो ही समान हो। युधिष्ठिर ने कहा--- युधिष्ठिर ने कहा---भगवन् ! आप सनातन देवाधिदेव हैं। आज साक्षात् आपके ही दर्शन हुए, इससे अब मेरे लिये क्या दुर्लभ है ? तो भी आप मुझे जो वर देंगे, वह मैं सिर आँखों पर लूँगा। मुझे ऐसा वर दीजिये कि मैं लोभ, मोह और क्रोध को जीत सकूँ तथा दान, तप और सत्य में सर्वदा मेरे मन की प्रवृति रहे। धर्मराज ने कहा---पाण्डुपुत्र ! इन गुणों से तो तुम स्वभाव से ही सम्पन्न हो, आगे भी तुम्हारे कथनानुसार तुममें ये सब धर्म बने रहेंगे। ऐसा कहकर भगवान् धर्म अन्तर्धान हो गये तथा सब पाण्डव साथ-साथ आश्रम में लौट आये। वहाँ आकर उन्होंने उस तपस्वी ब्राह्मण को उसकी अरणी दे दी। जो लोग इस श्रेष्ठ आख्यान को ध्यान में रखेंगे उनके मन की अधर्म में, सुहद्विद्रोह में, दूसरों का धन हरने में, परस्त्रीगमन में अथवा कृपणता में कभी प्रवृति नहीं होगी। इस तरह धर्मराज की आज्ञा पाकर सत्यपराक्रमी पाण्डवलोग अज्ञात रहने के लिये तेरहवें वर्ष में गुप्तरूप से रहे थे। वे सब बड़े नियम-व्रतादि का पालन करनेवाले थे। एक दिन वे अपने प्रेमी वनवासी तपस्वियों के साथ बैठे थे। उस समय अज्ञातवास के लिये आज्ञा लेने के लिये उन्होंने हाथ जोड़कर कहा, 'मुनिगण ! हम बारह वर्ष तक तरह-तरह की कठिनाइयाँ सहते हुए वन में निवास करते हुए वन में निवास करते रहे हैं। अब हमारे अज्ञातवा का तेरहवाँ वर्ष शेष है। इसमें हम छिपकर रहेंगे। आप हमें इसके लिये आज्ञा देने की कृपा करें। दुरात्मा दुर्योधन, कर्ण और शकुनि ने हमारे पीछे गुप्तचर लगा दिये हैं तथा पुरवासी और स्वजनोंको सचेत कर दिया है कि यदि हमें कोई आश्रय देगा तो उसके साथ कड़ाई का व्यवहार किया जायगा। अतः अब हमको किसी दूसरे राष्ट्र में जाना होगा। अतः अाप हमें प्रसन्नता से अन्यत्र जाने की आज्ञा प्रदान करें।' तब समस्त वेदवत्ता मुनि और यतियों ने उन्हें आशीर्वाद दिये और उनसे फिर भी भेंट होने की आशा रखकर वे अपने-अपने आश्रमों को चले गये। फिर धौम्य के साथ पाँचों पाण्डव खड़े हुए और द्रौपदी के सहित वहाँ से चल दिये। एक कोस आकर वे दूसरे ही दिन अज्ञातवास आरम्भ करने के लिये आपस में सलाह करने के लिये बैठ गये।

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