Thursday 10 December 2015

वनपर्व--द्रौपदी का सत्यभामा को अपनी चर्या सुनाना-

द्रौपदी का सत्यभामा को अपनी चर्या सुनाना
एक दिन महात्मा पाण्डव आश्रम में बैठे थे। उसी समय प्रियवादिनी द्रौपदी और सत्यभामा भी आपस में मिलकर एक जगह बैठीं। उन दोनो की भेंट बहुत दिनों पर हुई थी। इसलिये वे प्रेमपूर्वक आपस में हँसी करने लगीं औरकुरुकुल और यदुकुल से सम्बद्ध तरह-तरह की बातें करने लगीं। इसी समय श्रीकृष्ण की प्रेयसी महारानी सत्यभामा ने द्रुपदनन्दनी कृष्णा से कहा, 'बहिन ! तुम्हारे पति पाण्डवलोग लोकपालों के समान शूरवीर और सुदृढ़ शरीरवाले हैं; तुम उनके साथ किस प्रकार का बर्ताव करती हो, जिससे कि वे कुपित नहीं होते और सर्वदा तुम्हारे अधीन रहते है ? प्रिये ! मैं देखती हूँ कि पाण्डवलोग सर्वदा तुम्हारे वश में रहते हैं और तुम्हारा मुँह ताका करते हैं; सो यह रहस्य मुझे भी बताओ न। पांचाली ! तुम मुझे भी कोई ऐसा व्रत, तप, स्नान, मंत्र, औषधि, विद्या और यौवन का प्रभाव तथा जप, होम या जड़ी-बूटी बताओ, जो यश और सौभाग्य की वृद्धि करनेवाला हो और जिससे सर्वदा ही श्यामसुन्दर मेरे अधीन रहें।' ऐसा कहकर यशस्विनी सत्यभामा चुप हो गयी। तब पतिपायणा सौभाग्यवती यशस्विनी द्रौपदी ने उससे कहा--- 'सत्ये ! तुम तो मुझसे दुराचारिणी स्त्रियों के आचरण की बात पूछ रही हो। भला, उन दूषित आचरणवाली स्त्रियों के मार्ग की बात मैं कैसे कहूँ ? उनके विषय में तो तुम्हारा प्रश्न करना या शंका करना भी उचित नहीं है; क्योंकि तुम बुद्धिमती और श्रीकृष्ण की पट्टमहिषी हो। जब पति को यह मालूम हो जाता है कि गृहदेवी उसे काबू में करने के लिये किसी मंत्र-तंत्र का प्रयोग कर रही है तो वह उससे उसी प्रकार दूर रहने लगता है, जैसे घर में घुसे हुए साँप से। इस प्रकार जब चित्त में उद्वेग हो ाता है तो शान्ति कैसे रह सकती है, और जो शान्त नहीं है उसे सुख कैसे मिल सकता है। अतः मंत्र-तंत्र से कभी भी पति अपनी पत्नी के वश में नहीं हो सकता। इसके विपरीत इससे कई प्रकार के अनर्थ हो जाते हैं। धूर्त लोग जन्तर-मन्तर के बहाने ऐसी चीजें दे देते हैं, जिससे भयंकर रोग पैदा हो जाते हैं तथा पति के शत्रु इसी मिससे विष तक दे डालते हैं। वे ऐसे चूर्ण होते हैं कि जिन्हें पति जिह्वा या त्वचा से भी स्पर्श कर ले तो वे निःसंदेह उसी क्षण सबको मार डाले। ऐसी स्त्रियाँ अपने-अपने पतियों को तरह-तरह के रोग का शिकार बना देती हैं। वे उनकी कुमति से जलोदर, कोढ़, बुढ़ापे, नपुंसकता, जड़ता और बधिरता आदि के पंजों में पड़ जाते हैं। इस प्रकार पापियों की बातें माननेवाली ये पापिनी नारयाँ अपने पतियों को तंग कर डालती हैं। किन्तु स्त्री को तो कभी किसी प्रकार अपने पति का अप्रिय नहीं करना चाहिेये। यशस्विनी सत्यभामे ! महात्मा पाण्डवों के प्रति मैं जिस प्रकार का आचरण करती हूँ, वह सब सच-सच सुनाती हूँ; तुम सुनो। मैं अहंकार और काम-क्रोध को छोड़कर बड़ी सावधानी से सब पाण्डवों की, उनकी अन्यान्य स्त्रियों सहित सेवा करती हूँ।मैं ईर्ष्या से दूर रहती हूँ और मन को काबू में रखकर केवल सेवा की इच्छा से ही अपने पतियों का मन रखती हूँ। यह सब करते हुए भी मैं अभिमान को अपने पास नहीं फटकने देती। मैं कटु-भाषण से दूर रहती हूँ, असभ्यता से खड़ी नहीं होती, खोटी बातों पर दृष्टि नहीं डालती, बुरी जगह पर नहीं बैठती, दूषित आचरण के पास नहीं फटकती तथा उनके अभिप्रायपूर्ण संकेत का अनुकरण करती हूँ। देवता, मनुष्य, गन्धर्व, युवा, सजधजवाला, धनी अथवा रूपवान्--कैसा ही पुरुष हो, मेरा मन पाण्डवों के सिवा और कहीं नहीं जाता। अपने तयों के भोजन किये बिना मैं भोजन नहीं करती, स्नान किये बिना स्नान नहीं करती और बैठे बिना स्वयं नहीं बैठती। जब-जब मेरे पति घर में आते हैं, तभी मैं खड़ी होकर आसन जल देकर उनका सत्कार करती हूँ। मैं स्वच्छ रसोई में मधुर व्यंजन तैयार करती हूँ और समय पर भोजन कराती हूँ। सदा सावधान रहती हूँ। गुप्त रूप से अाज का संचय रखती हूँ और घर को साफ रखती हूँ। मैं बातचीत में किसी का तिरस्कार नहीं करती, कुलटा स्त्रियों के पास नहीं फटकती और सदा ही पतयों के अनुकूल रहकर आलस्य से दूर रहती हूँ। मैं दरवाजे पर बार-बार जाकर खड़ी नहीं होती तथा खुली और कूड़ा-करकट डालने की जगह भी नहीं ठहरती, किन्तु सदा ही सत्यभाषण और पतिसेवा में तत्पर रहती हूँ। पतिदेव के बिना अकेली रहना मुझे बिलकुल पसंद नहीं है। जब किसी कौटुम्बिक कार्य से पतिदेव बाहर जाते हैं तो मैं पुष्प और चन्दनादि को छोड़कर नियम और व्रतों का पालन करते हुए रहती हूँ। मेरे पति जिस चीज को नहीं खाते, नहीं पीते अथवा सेवन नहीं करते, उससे मैं भी दूर रहती हूँ। स्त्रियों के लिये शास्त्र ने जो-जो बातें बतायी हैं, उन सबका मैं पालन करती हूँ। शरीर को यथा प्राप्त वस्त्रालंकारों से सुसज्जित रखती हूँ तथा सर्वदा सावधान रहकर पतिदेव का प्रिय करने में तत्पर रहती हूँ। सासजी ने मुझे कुटुम्बसंबंधी जो-जो धर्म बताये हैं, उन सबका मैं पालन करती हूँ। भिक्षा देना, पूजन, श्राद्ध, त्योहारों पर पकवान बनाना, माननीयों का सत्कार करना तथा और भी जो-जो धर्म मेरे लिेये विहित है, उन सभी का सावधानी से दिन-रात आचरण करती हूँ। मैं विनय औरनियमों को सर्वदा सब प्रकार अपनाये रहती हूँ। मेरे पति मृदुलचित्त, सरल स्वभाव, सत्यनिष्ठ और सत्यधर्म का ही पालन करनेवाले हैं। मैं सर्वदा साधान रहकर उनकी सेवा में तत्पर रहती हूँ। मरे विचार से तो स्त्रियों का सनातन धर्म पति के अधीन रहना ही है, वही उनका इष्टदेव है और वही आश्रय है। मैं अपने पतियों से बढ़कर कभी नहीं रहती, उनसे अच्छा भोजन नहीं करती, उनकी अपेक्षा बढ़िया वस्त्राभूषण नहीं पहनती और न कभी सासजी से ही वाद-विवाद करती हूँ, तथा सदा ही संयम का पालन करती हूँ। मैं सावधानी से सर्वदा अपने पतियों से पहले उठती हूँ तथा बड़े-बूढ़े की सेवा में लगी रहती हूँ। इसी से मेरे पति मेरे वश में रहते हैं। वीरमाता, सत्यवादिनी, आर्या कुन्ती की मैं भोजन, वस्त्र और जल आदि से सदा ही सेवा करती रहती हूँ। वस्त्र, आभूषण और भोजनादि में मैं कभी भी उनकी अपेक्षा अपने लिये कोई विशेषता नहीं रखती। पहले महाराज युधिष्ठिर के महल में नित्य प्रति आठ हजार लोग सुवर्ण पात्रों में भोजन किया करते थे। महाराज युधिष्ठिर अठ्ठासी हजार गृहस्थों का भरण-पोषण करते थे और उनके दस हजार दासियाँ थीं। मझे उनके नाम, रूप, भोजन, वस्त्र--सभी बातों का पता रहता था और इस बात की निगाह रहती थी कि किसने क्या काम किया है और क्या नहीं किया। जिस समय इन्द्रप्रस्थ में रहकर महाराज युधिष्ठिर पृथ्वी-पालन करते थे, उस समय उनके साथ एक लाख घोड़े और एक लाख हाथी चलते थे। उनकी गणना का प्रबंध मैं ही करती थी और मैं ही उनकी आवश्यकताएँ सुनती थी। अन्तःपुर के ग्वालों और गड़रियों से लेकर सभी सेवकों के कामकाज की देखरेख भी मैं ही किया करती थी। महाराज की जो कुछ आमदनी, व्यय और बचत होती थी, उन सबका विवरण मैं अकेली ही रखती थी। पाण्डवलोग कुटुम्ब का सारा भार मेरे ऊपर छोड़कर पूजा-पाठ में लगे रहते थे और आये-गयों का स्वागत-सत्कार करते थे, और मैं सब प्रकार के सुख छोड़कर उसकी सँभाल करती थी। मेरे धर्मात्मा पतियों का जो वरुण के भंडार के समान अटूट खजाना था, उसका पता भी एक मुझही को था। मैं भूख-प्यास को सहकर रात-दिन पाण्डवों की सेवा में लगी रहती। उस समय रात और दिन मेरे लिये समान हो गये थे। मेरी यह बात सुन सच मानो कि मैं सदा ही सबसे पहले उठती थी और सबसे पीछे सोती थी। पतियों को वश में करने का मुझे तो यही उपाय मालूम हैं, दुष्टा स्त्रियोंके-से आचरण न तो मैं करती हूँ और न मुझे अच्छे ही लगते हैं। द्रौपदी की ये धर्मयुक्त बातें सुनकर सत्यभामा ने उसका आदर करते हुए कहा, 'पांचाली ! मेरी एक प्रार्थना है, तुम मेरे कहे-सुने को क्षमा करना। सखियों में तो जान बूझकर भी ऐसी हँसी की बातें कह दी जाती हैं।

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