Wednesday 9 December 2015

वनपर्व---श्रीकार्तिकेयजी के उदार कर्म और नाम

श्रीकार्तिकेयजी के उदार कर्म और नाम
मार्कण्डेयजी कहते हैं---राजन् ! कार्तिकेय को श्रीसम्पन्न और देवताओं का सेनापति हुआ देख सप्तर्षियों की छः पत्नियाँ उनके पास आयीं। वे धर्मयुक्ता और व्रतशीला थीं, फिर भी ऋषियों ने उन्हें त्याग दिया था। उन्होंने देवसेना के स्वामी कार्तिकेय से कहा, 'बेटा ! मारे देवतुल्य पतियों ने अकारण ही हमारा त्याग कर दिया है, इसलिये हम पुण्यलोक से च्युत हो गयीं हैं। उन्हें किसी ने यह समझा दिया है कि हमसे ही तुम्हारा जन्म हुआ है। अतः हमारी सच्ची बात सुनकर तुम हमारी रक्षा करो। तुम्हारी कृपा से हमें अक्षय स्वर्ग की प्राप्ति हो सकती है। इसके सिवा हम तुम्हें अपना पुत्र भी बनाना चाहती हैं।' स्कन्द ने कहा, 'निर्दोष देवियों ! आप मेरी माताएँ हैं और मैं आपका पुत्र हूँ। इसके सिवा आपकी यदि कोई और इच्छा हो तो वह भी पूर्ण हो जायगी।' जब कार्तिकेयजी ने अपनी माताओं का इस प्रकार प्रिय किया तो स्वाहा ने भी उनसे कहा, 'तुम मेरे औरस पुत्र हो। मैं चाहती हूँ कि तुम मेरा अत्यन्त दुर्लभ प्रिय कार्य करो।' तब स्कन्द ने उससे कहा, 'तुम्हारी क्या इच्छा है ?' स्वाहा बोली, 'मैं दक्ष-प्रजापति की लाडिली कन्या हूँ। बचपन से ही अग्निदेव पर मेरा अनुराग है। किनतु अग्नि को पूर्णतया मेरे प्रेम का पता नहीं है।मैं निरन्तर उन्हीं के साथ रहना चाहती हूँ।' तब स्कन्द ने कहा, 'ब्राह्मणों के हव्य कव्यादि जो भी पदार्थ मंत्रों से शुद्ध किये हुए होंगे, उन्हें वे 'स्वाहा' ऐसा कहकर ही अग्नि में हवन करेंगे। कल्याणी ! इस प्रकार अग्निदेव सर्वदा तुम्हारे साथ ही रहेंगे। स्कन्द ने ऐसा कहकर फिर स्वाहा का पूजन किया। इससे उसे बड़ा संतोष हुआ और फिर अग्नि से संयुक्त हो उसने स्कन्द का पूजन किया। तदनन्तर ब्रह्माजी ने स्कन्द से कहा, 'तुम अपने पिता त्रिपुरविनाशक महादेवजी के पास जाओ, क्योंकि संपूर्ण लोकों के हित के लिेये गगवान् रुद्र ने अग्निमें और उमा ने स्वाहा में प्रवेश करके तुम्हे उ्पन्न किया है।' ब्रह्माजी की बात सुकर श्रीकार्तिकेयजी 'तथास्तु' ऐसा कहकर श्रीमहादेवजी के पास चले गये। मार्कण्डेयजी कहते हैं---जिस समय इन्द्र ने अग्निकुमार कार्तिकेय को सेनापति के पद पर अभिषिक्त किया, उस समय भगवान् शंकर अत्यन्त प्रसन्न होकर पार्वतीजी के सहित एक सूर्य के समान कान्तिवाले रथ में बैठकर भद्रवट को चले। उस समय गुह्यकों के सहित श्रीकुबेरजी पुष्पक विमान में बैठकर उनके आगे चलते थे। इन्द्र ऐरावत पर चढ़कर देवताओं के सहित उनके पीछे चलते थे। उनकी दाहिनी ओर वसु और रुद्रों के सहित अनेकों अद्भुत देवसेनानी थे। यमराज भी मृत्यु के सहित उन्हीं के साथ थे। यमराज के पीछे भगवान् शंकर का अत्यन्त दारुण तीन नोकोंवाला विजय नाम का त्रिशूल चलता था। उसके पीछे तरह-तरह के जलचरों से घिरे हुए जलाधीश वरुणजी चल रहे थे। उस समय चन्द्रमा ने महादेवजी के ऊपर श्वेत छत्र लगाया। वायु और अग्नि चँवर  लिये स्थित थे। उनके सहित राजर्षियों सहित देवराज इन्द्र स्तुति करते चलते थे। तब महादेवजी ने बड़ी उदारता से कार्तिकेयजी ने कहा, 'तुम सर्वदा सावधानी से व्यूह की रक्षा करना।' स्कन्द ने कहा, 'भगवन् ! मैं उसकी रक्षा अवश्य करूँगा। इसके सिवा कोई और सेवा हो तो कहिये।' श्रीमहादेवजी बोले बोले, बेटा ! काम करने के समय भी तुम मुझसे मिलते रहना। मेरे दर्शन और भक्ति से तुम्हारा परम कल्याण होगा। ऐसा कहकर उन्होंने कार्तिकेयजी को हृदय से लगाकर विदा किया। उनके विदा होते ही बड़ा भारी उत्पात होने लगे।उससे समस्त देवगण सहसा मोह में पड़ गये। नक्षत्रों के सहित आकाश जलने लगा, संसार मुग्ध सा हो गया, पृथ्वी डगमगाने और गड़गड़ाने लगी, जगत् में अंधकार छा गया। इतने में ही वहाँ पर्वत और मेघों के समान अनेकों प्रकार के आयुधों से सुसज्जित बड़ी भयानक सेना दिखायी दी। वह बड़ी ही भीषण और असंख्येय थी तथा अनेक प्रकार से कोलाहल कर रही थी। वह विकट वाहिनी सहसा भगवान् शंकर और समस्त देवताओं पर टूट पड़ी तथा अनेकों प्रकार के बाण, पर्वत, प्रास, तलवार, परिघ और गदाओं की वर्षा करने लगी। उन भयंकर शस्त्रों की वर्षा से व्यथित होकर थोड़ी ही देर में देवताओं की सेना संग्राम छोड़कर भागने लगी। दानवों से पीड़ित होकर अपनी सेना को भागती देख देवराज इन्द्र ने उसे ढ़ाढ़स बँधाकर कहा, 'वीरों ! भय छोड़कर अपने अस्त्र संभालो, तुम्हारा मंगल होगा। जरा पराक्रम दिखाने का साहस करो, तुम्हारा सब दुःख दूर हो जायगा। इन भयानक और दुःशील दानवों को परास्त कर दो। आओ, मेरे साथ मिलकर इनपर टूट पड़ो।' इन्द्र की बात सुनकर देवताओं को धीरज बँधा और वे इन्द्र का आश्रय लेकर दानवों से युद्ध करने लगे। तब वे समस्त देवता और महाबली मरुत, साध्य एवं वसुगण भी शत्रुओं से भिड़ गये और उनके छोड़े हुए वाण दैत्यों के शरीर का भरपेट रुधिर पान करने लगे। वाणों की वर्षा से दानवों के शरीर छलनी हो गये और छितराये हुए बादलों के समान रणभूमि में सब ओर गिरने लगे। इस प्रकार देवताओं ने उस दानवसेना को अनेकों प्रकार के वाणों से व्यथित कर डाला और उसके पैर उखाड़ दिये। इतने में ही महिष नाम का एक दारुण दैत्य बड़ा भारी पर्वत लेकर देवताओं की ओर दौड़ा। उसे देखकर देवता भागने लगे। किन्तु उसने पीछा करते हुए देवताओं पर वह पहाड़ पटक दिया। उसके प्रहार से दस हजार योद्धा धराशायी हो गये। फिर महिषासुर दूसे दानवों के सहित देवताओं पर टूट पड़ा। उसे अपने ओर आते देख इन्द्र के सहित सभी देवगण भागने लगे। तब क्रोधातुर महिषासुर फुर्ती से भगवान रुद्र के रथ के पास पहुँचा और उसका धुरा पकड़ लिया। यह देखकर श्रीमहादेवजी ने महिषासुर के संहार का संकल्प कर उसके कालरूप श्रीकार्तिकेयजी का स्मरण किया। बस, उसी समय कान्तिवान् कार्तिकेय रणभूमि में उपस्थित हो गये। वे लाल वस्त्र पहने हुए थे, उनके गले में लाल रंग की मालाएँ थीं, उनके रथ के घोड़े लाल थे, वे सुवर्ण का कवच धारण किये थे तथा सूर्य के समान सुनहरी कान्तिवाले रथ में विराजमान थे। उन्हें देखते ही दैत्यों की सेना मैदान छोड़कर भागने लगी। महाबली कार्तिकेयजी ने महिषासुर का नाश करने के लिये एक प्रज्जवलित शक्ति छोड़ी। उसने छूटते ही उसका विशाल मस्तक काट डाला। सिर कटते ही महिषासुर प्राणहीन होकर गिर गया। महिषासुर के पर्वतसदृश सिर ने गिरकर उत्तरकुरुदेश का सोलह योजन चौड़ा मार्ग रोक लिया। इस प्रकार वह शक्ति बार-बार छोड़े जाने पर सहस्त्रों शक्तियों का संहार करके फिर कार्तिकेयजी के ही हाथ में लौट आती थी। इसी क्रम से कीर्तिमान कार्तिकेयजी ने अपने समस्त शत्रुओं को परास्त कर दिया---जैसे कि सूर्य अंधकार को, अग्नि वृक्षों को और वायु मेघों को नष्ट कर देता है। फिर उन्होंने भगवान् शंकर को प्रणाम किया और देवताओं ने उनका पूजन किया। इससे वे किरणजालमण्डित सूर्य के समान सुशोभित हुए। तब इन्द्र ने उन्हें आलिंगन करके कहा, 'कार्तिकेयजी ! यह महिषासुर ब्रह्माजी से वर प्राप्त किये हुये था, इसलिये सब देवता इसके लिये तृण के समान थे; सो आज आपने इसका वध कर दिया। इस प्रकार आपने देवताओं का एक बड़ा भारी काँटा निकाल दिया। देव ! आप भगवान् शंकर के समान ही संग्राम में अजेय होंगे और यह आपका प्रथम पराक्रम प्रसिद्ध होगा। तीनों लोकों में आपकी अक्षय कीर्ति फैल जायगी और सब देवता आपके अधीन रहेंगे।' कार्तिकेयजी से ऐसा कहकर देवताओं सहित इन्द्र भगवान शिव की आज्ञा पाकर वहाँ से चल दिये। फिर महादेवजी ने अन्य देवताओं से कहा, 'तुम सब कार्तिकेय को मेे समान ही मानना।' ऐसा कहकर शिवजी भद्रवट को चले गये और देवता अपने-अपने स्थानों को लौट आये। अग्निकुमार कार्तिकेय ने एक ही दिन में समस्त दानवों का संहार करके त्रिलोकी को जीत लिया। युधिष्ठिर बोले, द्विजवर ! मैं भगवान् कार्तिकेयजी का तीनों लोकों में विख्यात् नाम सुनना चाहता हूँ। मार्कण्डेयजी ने कहा---सुनिये ! आग्नेय, स्कन्द, दीप्तकीर्ति, अनामय, मयूरकेतू, भूतेश, महिषमर्दन, कामजित्, कामद, कान्त, सत्यवाक्, भुवनेश्वर, शिशु, शीघ्र, शुचि, चण्ड, दीप्तवर्ण, शुभानन, अमोघ, अनघ, रौद्र, चन्द्रानन, प्रिय, दीप्तशक्ति,प्रशान्तात्मा, भद्रकृत,कूटमोहन, षष्ठीप्रिय, धर्मात्मा, पवित्र, मातृवत्सल, कन्याभर्ता, विभक्त, स्वाय, रेवतीसुत, प्रभु, नेता, विशाख, नैगमेय, सुव्रत, ललित, ब्रह्मचारी, शूर, देवसेनाप्रिय, वासुदेवप्रिय और प्रियकृत---ये कार्तिकेयजी के दिव्य नाम हैं। जो इसका पाठ करता है वह निःसंदेह स्वर्ग, कीर्ति और धन प्राप्त करता है।

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